*** मीरा का काव्य और ‘स्त्रीत्व’ का निर्माण


मीराबाई जैसी मध्ययुगीन कवयित्री को स्त्री सन्दर्भों में पढ़ना चुनौती भरा काम है। मीरा के सन्दर्भ में अक्सर यह देखा गया है कि उनके व्यक्तिगत जीवन और भक्ति सन्दर्भों को लेकर प्राय: हिन्दी आलोचना का रवैया ‘नारी गौरवान्वयन’ कर पुरुष सन्दर्भों के लिये स्थान सुरक्षित रख करके स्त्री को देवी जैसे शब्दों के मायालोक में कैद कर देता है। मीरा को स्त्री सन्दर्भों में पढ़ने से प्रथमतया स्त्री के परम्परागत तर्क के सारे अभियान उथले और झूठे साबित हो जाते हैं और हिन्दी आलोचना की वह प्रवृत्ति भी छल पूर्ण दिखाई देने लगती है जो तीर को गलत निशाने पर बहुत सोच समझ कर लगाती है। यह आलोचना रचनाकार के उन प्रसंगों को राजी से नहीं तो ज़बरदस्ती उभार देती है जो गौण महत्व रखते हैं। मीरा के बारे में भी इन आलोचकों का रवैया सहानुभूतिपूर्ण होते हुए भी तमाम पूर्वग्रहों से भरा होकर ऐसी बातों में मीरा की महानता और देवीत्व दिखाने की कोशिश करता है जिनसे कि अधिक से अधिक एक व्यक्तिगत कहानी भर ही उभर पाती है। हालांकि यह भी कम महत्वपूर्ण नहीं होता कि एक पूरी और साफ कहानी उभर आये, पर ठीक से यह भी नहीं सध पाता और मीरा विधवा या सधवा थी, राणा उसका पति था या देवर था में ही सारी बहस उलझ कर रह जाती है। मीरा के सन्दर्भ में स्त्री प्रश्नों को उठाना इसलिये भी चुनौतीपूर्ण है कि ऐसा करने से ‘भक्त’ के ‘स्त्री’ में बदलने का पूरा उपक्रम खड़ा हो जायेगा, जिससे धार्मिक ढाँचे के खतरे में पड़ने की सम्भावना बढ़ जाती है। धार्मिक छाया का यह दवाब शायद ही कभी हिन्दी आलोचना का पीछा छोड़ पाया है।
मीरा के बारे में यह माना जाता है कि वे राजकुल में पैदा हुई थी या पालन पोषण हुआ था। पर देखने योग्य बात यह है कि राजकुलोचित व्यवहार के अनुकूल न तो उनके बारे में जीवन तथ्य ही प्रामाणिक रूप में पाये जाते हैं और न ही उनकी रचनाओं के प्रति रवैया ही बहुत सम्मान जनक रहा, जबकि उसी जमाने में रचनाकारों के प्रति राज्य का रवैया उतना दमनात्मक नहीं था। क्या यह मान लेने में कोई आपत्ति होगी कि ऐसा इसलिये था क्योंकि मीरा स्त्री हैं और उस जमाने में ‘स्त्री सवालों’ को उठा रही थीं। इन सत्ता समीकरणों की एक दूसरी रणनीति का भी पर्दाफाश हो जाता है कि ये (आलोचक) जब कबीर आदि के जन्म की बात करते हैं तो भी नदी में पाये जाने और दूसरी जाति का होने की घटना का जिस तरह जिक्र करते हैं, मीरा के बारे में भी ऐसा ही जिक्र आता है, लेकिन दोनों के निहितार्थ में बड़ा अन्तर है। पुरुष सन्तों के सन्दर्भो में यह तर्क उन्हें अपने में मिला लेने के लिये (पालिटिक्स ऑफ इनक्लूजन के तहत) दिया जाता है, वहीं स्त्री के सन्दर्भ में जाकर यही तर्क उन्हें अपने से बाहर निकाल देने के लिए (पालिटिक्स ऑफ एक्सक्लूजन के तहत ) दिया जाता है। मीरा के बारे में जो कुछ भी तथ्य मिलते हैं वे सबके सब ऐसे पुरुषों द्वारा संकलित सामग्री पर ही टिके हैं जो कि सत्ता प्रतिष्ठानों से कहीं न कहीं जुड़े थे और अपनी मानसिकता में ठेठ महिला विरोधी रवैया रखते थे या कहें मनुस्मृति की उसी परम्परा के अनुयायी थे जिसकी स्त्री पूजा वाली बात (यत्र नारिस्तु पूज्यन्ते तत्र रमन्तु देवता) तो जगत प्रसिद्धि  प्राप्त कर गयी, पर नारी की पूजा किसलिये? पर चुप्पी बरकरार रही। दरअसल मनुस्मृति पहले नारी को ऐसे दुर्गुणों की खान कहती है जिसे उसके नारीत्व को देवीत्व में बदलकर ही रोका जा सकता है। मीरा के बारे में सामग्री का दूसरा आधार लोक व्याप्त किंवदन्तियां हैं जो कि उसे कभी कम से कम अच्छा तो नहीं ही कहती। लोक में मीरा होना किसी भी लड़की को गाली देने के अर्थ में प्रयुक्त होता है। लोक की जुबान सीधी, सपाट और निश्चल होती है, विचार में भले ही वह सत्ता पक्ष के विचारों को ही अपने विचार मान लेती हो।

मीरा के बारे में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने लिखा है कि ”ये आरम्भ से ही कृष्ण भक्ति में लीन रहा करती थीं। विवाह के उपरांत थोड़े दिनों में पति का परलोकवास हो गया। ये मन्दिर में जाकर भक्तों और संतो के बीच श्रीकृष्ण भगवान की मूर्ति के सामने आनंदमग्न होकर नाचती और गाती थीं । कहते हैं कि इनके इस राजकुल विरुद्ध आचरण से इनके स्वजन लोकनिंदा के भय से रुष्ट रहा करते थे।…. जहाँ जाती वहाँ इनका देवियों जैसा सम्मान होता।” एक तरफ आचार्य लोकनिन्दा की बात कहते हैं, अगली ही पंक्ति में लोक में अपूर्व सम्मान, यह उलटबांसी कुछ जमीं नहीं। दरअसल यह उसी परम्परा को आगे बढ़ाते हुये दिया गया तर्क है जो कि लगातार मीरा के बारे में विरोधाभासों को निर्मित करके असल मुद्दे से ध्यान भटकाती रही है। दूसरे मत और परम्परा के प्रतिपादक आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी अपनी पुस्तक में अधिकतर अन्य लोगों की उक्तियों से ही काम चलाकर इतना निर्णय भर देते हैं कि ”मीराबाई अत्यन्त उदार मनोभावापन्न भक्त थीं। उन्हें किसी पन्थ विशेष पर आग्रह नहीं था। जहाँ कहीं भी उन्हें भक्ति या चारित्रय मिला है, वहीं उन्होंने उसे सिर माथे चढ़ाया है।” इसका कुल मतलब इतना है कि मीरा बिना पैंदी का लोटा थीं, उन्हें जिस तरह आप चाहें देख सकते हैं। इसका अर्थ यह भी है कि एक स्त्री के पास वह नजरिया नहीं हो सकता कि वह अपनी कोई समझदारी पैदा कर सके।हिन्दी आलोचना में मीरा पर एक महत्वपूर्ण काम डॉ0 विश्वनाथ त्रिपाठी का माना जाता है। उनकी नजर सबसे अधिक मीरा के वैधव्य पर टिकती है और विधवा मीरा का कुल स्त्रीत्व पति की याद, संयम व पवित्रता में सिमट जाता है। ”मीरा का जीवन संघर्ष उनके वैधव्य से शुरू होता है। मीरा पति की मृत्यु पर सती नहीं हुईं और भक्तिन हो गईं।…. मीरा की कविताओं में अलौकिक प्रियतम को पाने की आतुरता, न पा सकने की व्यथा, उसके पास पहुंचने से रोके जाने का आक्रोश, अपनी असहायता, उसे भाव जगत में प्राप्त करने की पुलक- सब विद्यमान है।”  त्रिपाठी जी अलौकिक प्रियतम और उससे मिलन पर पाबन्दी दो बातें कहते हैं। जहाँ तक अलौकिक प्रियतम से मिलने की रीति (किस तरह से मिलन हो?) का सवाल है, तब या तो अलौकिक (प्रियतम) में छल है,या तो पाबन्दी (सामाजिक) में झूठ। ज्यों ही इन विरोधपूर्ण स्थितियों के बीच से गुजरते हैं स्त्री की ‘पवित्रता’ खतरे में पड़ जाती है और हम (हिन्दी के आलोचक) इस खतरे को उठाने के लिये तैयार नहीं है। इसी में बात बनते बनते रह जाती है और मीरा ‘स्त्री’ की भूमिका से हटकर ‘भक्तिन’ में सिमटकर रह जाती है। फिर आगे त्रिपाठी जी लिखते हैं ”मीरा ने जोगी के वियोग में जो कुछ कहा है वह विरह वर्णन की परम्परा में होते हुए भी किंचित असामान्य है। जोगी की राह देखते बहुत दिन बीत गये, वह आज तक आया नहीं। या तो जोगी जग में नहीं (मर गया है) या उसने मुझे भुला दिया : कै तो जोगि जग में नाहीं कैर बिसारी मोइ।” यह जोगी असल परेशानी की जड़ है। जोगी को पति के साथ एकमेक करने से निश्चित रूप से हम उस परम्परागत नैतिकता को सुरक्षित रख पाते हैं जिसमें कि एक स्त्री को केवल अपने पति से ही प्रेम करने का अधिकार है (वह चाहे कैसा भी हो)। जोगी के बारे में हिन्दी आलोचना का मत शायद ही कभी पति से बाहर जा पाया है। त्रिपाठी जी तो कहते ही हैं कि वह (जोगी) पति की स्मृति का ही पर्याय है, उनसे आगे पीछे के लोग भी कुछ ऐसा ही कहते हैं। डा0 परशुराम चतुर्वेदी कहते हैं कि ”ये किसी मूर्तमान व्यक्ति की प्रेम दिवानी बनी हुईं थीं।” डा0 भगवान दास तिवारी कहते हैं - ”जोगी सम्बन्धी उक्त भ्रष्ट पदों के आधार पर जोगी के प्रति गहरे व्यक्तिगत दाम्पत्य सम्बन्ध को व्यक्त करने वाले अंत:स्रोत की कल्पना अनुचित और भ्रान्त ही नहीं, मीरा की पुनीत नैतिकता पर आरोपित झूठा कलंक है।” मीरा की कविता में एक क्रमिक विकास पर न तो किसी नजर पड़ती है और न कोई इस ओर सोचना चाहता है। आखिरकार मीरा एक स्त्री जो ठहरीं। मीरा के पदों के संकलन से लेकर विवेचन तक का सारा अभियान अंतत: मीरा के प्रेम को एक अबूझ पहेली में बदल देता है। मीरा के पदों में सर्वत्र न तो रहस्य का पर्दा है और न ही उनका गिरधर गोपाल जनम से ही वह अलौकिक प्रेम पुरुष है जिसकी महिमा गाते गाते लोगों की जबान नहीं थकती।

मीरा के पदों में एक प्रेमी गिरधर गोपाल गली से गुजरता हुआ बार बार आता है, जिसे देख मीरा लाज के मारे घर में घुस जाती हैं। इसकी छवि में मीरा लगातार लीन दिखती हैं, पर मजेदार बात है कि न तो मीरा इसे घर आने का आग्रह करती हैं और न वह कभी घर में पैर रखता है। लम्बे समय तक यह रूप निहारना लगा रहता है फिर अचानक यह गिरधर जोगी में बदल जाता है। क्या यह नहीं सम्भव है कि वह किसी दबाव में जोगी हो गया हो? मीरा की कविता में यह कहीं नहीं है कि राणा मीरा के देवर हैं, और यह भी कि सती होने का अर्थ मात्र मृत पति के साथ जल मरना ही नहीं है, इसका एक अर्थ पवित्रतावादी आग्रहों (अपने स्वत्व को सामाजिक मान्यताओं के लिये लगातार दबाते चले जाना) से भरा हुआ भी है। मीरा के लिये इस पवित्रतावादी सतीत्व से अधिक महत्व रखता है प्रेम। प्रेम का अलौकिक रूप कहीं से भी सतीत्व के खिलाफ नहीं जाता, पर जैसे ही लौकिक का साथ होता है सारी पवित्रता धरी रह जाती है। मीरा की कविता में निहित विभिन्न तथ्यों का सचेत विश्लेषण करने पर यह आसानी से कहा जा सकता है कि मीरा का प्रेम किसी ऐसे व्यक्ति से किया गया प्रेम है जो राजसत्ता के दबाव के प्रतिरोध की क्षमता के अभाव में जोगी हो जाता है। यह लौकिकता सतीत्व के और सामन्ती सत्ता दोनों के खिलाफ है। मीरा की गिरधर गोपाल की खोज वस्तुत: उसी जोगी रूप की खोज है।

फिर सवाल यह है कि मीरा के बारे में इस तरह के व्यक्तिगत सन्दर्भों को ढूँढने का क्या अर्थ? भक्ति का अवदान निश्चित रूप से मुक्तिकारी है, पर मीरा के मामले में वह कौन सा सवाल है जिसके लिये मीरा मुक्ति की अपेक्षा रखती हैं? मीरा राजघराने से आती है (सामन्तवाद के उस दौर में डि-क्लास जैसी बात शायद ही सम्भव है), उच्च कुल, सारी सुख सुविधायें उपलब्ध हैं, और यह भी कि हिन्दू मतवाद में उस जमाने में शायद ही पूजा पाठ पर स्त्रियों के लिये इस तरह का प्रतिबन्ध न था कि उसके लिये मीरा को विद्रोही रूप अख्तियार करना पड़े। मान्य तौर पर लोग कहते हैं कि साधु संगति के कारण मीरा के प्रति राजसत्ता का रवैया ठीक नहीं रह गया था।राजभवन कोई इतने असुरक्षित स्थल तो नहीं रहे हाेंगे कि साधु संगति उनके लिये किसी भी तरह का खतरा बनता हो।यह भी ध्यान देने योग्य बात है कि मीरा के समय तक भक्ति का राजभवनों में (भक्ति आन्दोलन के परिणाम स्वरूप ) एक स्थान बन ही गया था या बन रहा था। मीरा की कविता में विकास की स्थितियों को जब तक स्वीकार नहीं किया जायेगा, उनकी संवेदना की ठोस समझ बनना कठिन है। इस पहचान में कठिनाइयां हैं लेकिन कोई ऐसी बात नहीं है कि इसे पहचाना ही न जा सके। मीरा की कविता में पहले प्रेम की स्थिति है जो बाद में भक्ति के स्वर में बदल गया। मीरा के लिये जो सवाल महत्व का है वह है एक स्त्री का अपने प्रेम को पाने की जिद। सीमोन द वोउआर ने अपने स्त्री सम्बन्ध में लिखे विचारों में लिखा है ”परिस्थितियों के कारण प्रेमी से प्रतिदान में प्रेम के स्थान पर निराशा मिलने पर उसका प्रेम ईश्वर के देवत्व की ओर उन्मुख हो जाता है।” मीरा के काव्य के विकास को देखने से पता चलता है कि देवत्व सचमुच में उसका आखिरी मकाम है। साधुओं से इतने विरोध में यह बात भी शामिल हो सकती है कि वे मीरा के जोगी का पता ठिकाना बताने का जरिया बनते हों और मीरा पता जानकर तीर्थाटन के लिये निकल पड़ती हों। यह बिन्दु राणा के साथ उनके तीखे तनाव का कारण हो सकता है। मीरा के जीवन में प्रतीक रूप में ही सही रणछोड़ को विशेष महत्व है। जिसका उनके गिरधर के प्रेम की रणछोड़कर भाग जाने और जोगी रूप धारण कर लेने से सम्बन्ध जोड़ा जा सकता है। इस प्रसंग में यह देखा जा सकता है कि तत्कालीन दौर में भी एक स्त्री अधिक संघर्षशील है बनिस्पत पुरुष के। पुरुष राजसत्ता के दबाव में भाग खड़ा होता है, वहीं स्त्री उसका सामना करती है और उसका दंश पूरे जीवन भोगती है।

मीरा को भक्त की श्रेणी में गिनने से महत्वपूर्ण सवाल है कृष्ण भक्ति मेें गिने जाने का। कृष्ण भक्ति की धारा के अंतर्निहित की तरफ रुख किया जाए तो स्पष्ट हो जाता है कि इस धारा का विकास निर्गुण का विरोध करने में ही अपनी सारी ऊर्जा लगाता है।मुक्तिबोध ने भक्ति आन्दोलन पर विचार करते समय लिखा है ”उत्तर भारत में नन्ददास वगैरह कृष्ण-भक्तिवादी सन्तों की निर्गुण विरोधी भावना तो स्पष्ट ही है और ये सब लोग उच्चकुलोद्भव थे। यद्यपि उत्तर भारतीय कृष्णभक्ति वाले कवि थे और निर्गुण सन्ताें से इनका सीधा संघर्ष भी था, किन्तु हिन्दू समाज के मूलाधार यानि वर्णाश्रम-धर्म के विरोधियों ने जातिवाद विराधी विचारों पर सीधी चोट नहीं की थी।” मजेदार बात यह है कि मीरा इस धारा की (कृष्ण भक्ति धारा की) सम्भवत: पहली कवयित्री हैं। ऐसा कौन-सा कारण है कि मीरा एक स्त्री होकर भी निर्गुण परम्परा से अपने को नहीं जोड़ पाती हैं भले ही अपनी संवेदना के लिये आवश्यक रस वहीं से पाती हैं? निर्गुण परम्परा की आराधना पद्धति  (मोकौं कहां ढूढ़े बन्दे में तो तेरे पास में) से मीरा की आराधना पद्धति मेल नहीं खाती, मीरा प्रिय को ढूंढ़ना चाहती हैं। यदि वह अलौकिक मात्र होता तो उसे निर्गुणियों के तरीके से पाया जा सकता था, पर वह तो जोगी बनकर निकला है। मीरा की खोज में लौकिक अलौकिक का घालमेल हो गया है।दूसरी बात यह कि मीरा की मनोदशा और कृष्ण के रूप (रणछोड़) दोनों में गहरी एकता है, तीसरे यह कि कृष्ण भक्ति का रूप प्रेम और माधुर्य को पर्याप्त जगह देता है और यह भी कि स्त्रियों के दु:ख (देह पर आधारित दु:ख) से विचलित हो उठनेवाला मिथक भी कृष्ण के ही पास है। मीरा की कविता में निर्गुण को लेकर न केवल शब्दावली का प्रयोग है, बहुत सारे पद भी ऐसे हैं जिनमें निर्गुण को पर्याप्त जगह मिलती है।पर जो साधुसंगति को लेकर उनकी दुर्दशा की जाती है उसके परिणाम स्वरूप वह धीरे धीरे कम होती जाती है। कृष्ण भक्ति के ठेकेदारों का दबाव उन्हें ऐसा करने पर मजबूर कर देता है, आखिर एक स्त्री कितने तरह के दबाव झेल सकती थी? निर्गुण का विरोध का ‘लेमैन तर्क’ निश्चित रूप से कुल और जाति की उच्चता की दुहाई देता रहा होगा और इन सवालों से ऊपर उठना आसान नहीं था। सूरदास ने अपनी गोपियों द्वारा निर्गुण के विरोध में जो तर्क रखे हैं सम्भवत: मीरा को ये ही तर्क निर्गुण से दूर करने और सगुण में मिलाने के लिये दिये जाते रहे होंगे।यहीं कहीं मीरा का मूक झुकाव उन्हें धीरे धीरे कृष्ण भक्ति तक पहुँचाने का जिम्मेदार है।और यह भी कि निर्गुण धारा का प्रभाव भी धीरे धीरे घट रहा था। मीरा की कविता के विकास पर एक क्रम बनायें तो पहले लौकिक प्रेम से शुरू होने वाली कविता है तत्प्रभाव जागतिक संघर्ष की कविता है। फिर कविता में जोगी का प्रवेश और इसी क्रम में निर्गुण का प्रभाव उनकी कविता पर है।कविता का अन्तिम चरण विशुद्ध कृष्ण भक्ति काव्य है। मीरा की कविता के उदाहरण से स्त्री और दलित के गठबंधन के सवाल पर बड़ी गहराई से सोचने की जरूरत पैदा हो जाती है। हालांकि मीरा अपनी भक्ति में लगातार अपने दासी रूप पर जोर देती हैं, ज्ञातव्य है कि दास और दलित जातियों में गहरा सम्बन्ध है, पर एक दूसरी दासता भी है स्त्री की दासता पुरुष के समक्ष। प्रभु के समक्ष भक्त की दासता और मालिक के समक्ष गुलाम की दासता से यह स्त्री का दासता नितान्त रूप से भिन्न है।पितृ-सत्ता और सामन्ती-सत्ता के भेद के बाद ही मीरा की भक्ति में स्त्री की दासता को पहचाना जा सकता है।इसीलिये मीरा का गिरधर गोपाल पुरुष है न कि प्रभु या मालिक।मीरा का यह पुरुष सामन्ती पुरुष से अलग है, पर-निष्ठुरता के मामले में यह उसी परम्परा में दीक्षित लगता है। एकनिष्ठता के कारण यह सामन्ती पुरुष से अलग है। लोक में एक मुहावरा प्रचलित है कि ‘अमुक बात पर हम तुम्हारे गुलाम हो गये’, इस मुहावरे के परिप्रेक्ष्य में मीरा के दासी होने को देखा जाना चाहिये। मीरा जितना झगड़ा अपने इस गोपाल से करतीं हैं शायद एक दास के लिये तो सम्भव नहीं ही है। मीरा अपने इस प्रियतम पर सामन्ती बुराइयों से परे होने पर ही उसकी दासी हैं। इस पुरुष में कम से कम सामन्ती बहुनायकत्व तो नहीं ही है, वह लीलायें नहीं करता, स्त्रियों के साथ उसका सम्बन्ध उपभोगमूलक नहीं है, अधिक से अधिक वह भगोड़ा है।

मीरा के स्त्रीत्व का निर्माण आत्मसम्मान और स्वतन्त्र व्यक्तित्व की ललक पर खड़ा है। उनके लिये मन के भीतरी उधेड़बुन के बहुत सूक्ष्म उलझाव नहीं है, सीधी और सपाट बातें है कि जो मीरा के लिये रुचिकर है वही वह करना चाहती हैं। ढ़ाँचे में ढालने वाले प्रतिबन्धों से उन पर कोई असर नहीं पड़ता। आम भारतीय स्त्री के निर्माण में ‘माइका’ और ‘ससुराल’ दो समाजों की अलग अलग दबावकारी रूप में भूमिका रहती है। पिता, पति और पुत्र तीन पुरुषों के चारों ओर उसकी दुनियां घूमती है। मीरा पिता, पति और पुत्र तीनों पुरुषों को अपने जीवन में कोई जगह नहीं देतीं है, पति आता है लेकिन वह पति से अधिक प्रेमी है ‘मेरे तो गिरिधर गुपाल दूसरो न कोई, जाके सिर मोर मुकुट मेरौ पति सोई।’ माइका तो एक राजकुमारी के लिये वैसे भी बड़ी चिन्ता का सबब नहीं बनता। जायसी ने भी माइके पर लिखा है 'जो लगि अहै पिता कर राजू। खेल लेहु जो खेलहु आजू॥’ ससुराल में मीरा की हालात का बयान राणा के प्रति मीरा की कटुक्तियों में मिल जाता है।राणा उनके लिये दुर्योधन जैसा (नारी के प्रति घोर अमानवीय रवैया रखनेवाला) है, कैर जैसा (न फलदायक, न छायाकारी सिर्फ कांटों से भरा हुआ)है। ऊदा, जो उनकी ननद है या ननद की भूमिका जैसी कोई उपस्थिति, की भूमिका एक स्त्री (कुलबधू) के लिये जितने कठिन सवाल उपस्थित कर सकती है उतने मीरा के मामले में भी करती है। मीरा इन ताकतों का पुरजोर विरोध तो करती है, पर वैकल्पिक स्थिति नहीं खड़ी कर पाती, कर भी नहीं सकती थी।

मीरा के प्रति चार सामाजिक समूहों का अलग अलग रवैया है ये हैं-भक्त, जन, परिवार और सत्ता। भक्त दो तरह के हैं, एक- निर्गुण सन्तों का वह जमावड़ा है जो घूम घूम कर अलख जगाता फिरता है या कम से कम निर्गुण का प्रचार करता है। दूसरा समूह वह है जो पन्थ चलाता है। मीरा के प्रति सन्तों का रवैया सहानुभूति पूर्ण है। मीरा की अपनी रचनायें इस बात की गवाह हैं कि वे इनका बड़ा सम्मान करती थीं और यह भी कहा जाता है कि मीरा ने बाद में चलकर रैदास को तो अपना गुरु मान लिया था और सन्तों को उन्होंने ‘हरिजन’ का सम्बोधन दिया। मीरा के लिये ये साधु ही माइका जैसा प्रिय लगता है। भक्तों के दूसरे जमावड़े ने मीरा को कभी भी अच्छी नजर से नहीं देखा। जीवगोस्वामी के बारे में यह प्रसंग है कि वे औरत का मुंह देखना तक पसन्द नहीं करते थे, उनके इस रवैये के कोप का शिकार मीरा को भी होना पड़ा। विट्ठलनाथ जी ने अपने शिष्य गोविन्द दुबे को चिट्ठी लिखकर मात्र इसलिये बुला लिया था कि उन्होंने मीरा का आथित्य स्वीकार कर लिया था, यह बात उनकी चौरासी वैष्णवन की वार्ता में मिलती है। अष्ठछाप के कृष्णदास शूद्र ने भी मीरा का आथित्य स्वीकार करने से इन्कार कर दिया था। मीरा के कुल पुरोहित रामदास भी मीरा को गालियां देते थे। मीरा के शरीर पर तो इनकी नजर लगी ही रहती थी,वार्तिक प्रकाश में इसका उदाहरण देखा जा सकता है, साथ ही यह भी कम महत्वपूर्ण नहीं था कि मीरा बल्लभ सम्प्रदाय में दीक्षित नहीं थीं, जबकि ये सभी बल्लभ सम्प्रदाय के ही थे। जाहिर है ये सगुण परम्परा के महानायक थे और सगुणों का एक स्त्री के प्रति यह रवैया बड़ा महत्व रखता है तिस पर भी ये सब सगुणों में भी उस परम्परा के प्रतिनिधि हैं जिसमें यह कहा जाता है कि यहां राधाकृष्ण के जरिये स्त्री मुक्ति का अभियान शुरू हुआ। जनों के रवैये को तो मीरा के बारे में प्रचलित तमाम किंवदन्तियों में ही देखा जा सकता है। वस्तुत: ये किंवदन्तियां एक तरह के दस्तावेज हैं जो जनता के तमाम विचारों का संगठित कोश हैं। मीरा के बारे में कई एक तरह की बातें हैं कुछ में मीरा को निन्दनीय कहा गया है तो कुछ में वन्दनीय।मीरा के जन्म को लेकर कहा जाता है कि वे अनाथ थीं, नदी में मिलीं थीं।सोचने योग्य है कि तब वे रानी नहीं हो सकतीं। एक रानी के बारे में इस तरह के मत के पीछे कहीं न कहीं यह विचार काम कर रहा है कि ऐसी हमारी रानी नहीं हो सकती। यह मुद्दा उनके भक्त होने की वजह से जनता में नहीं फैल सकती। इसके पीछे प्रेम ही कारण है। दूसरे रूप में चमत्कारवाद के प्रभाव में मीरा के देवीत्व की प्रतिष्ठा है, जिसमें मीरा को अवतार के रूप में दिखाया जाता है (ध्यान देने योग्य बात है कि इस तरह के अवतार मानने का एक पूरा जाल सा इन लोगों (भक्तों के दूसरे जमावड़े) ने बिछाया और पूरी गोकुल संस्कृति को मायालोक में बदलकर अपनी बदनीयती को उसमें छुपा लेजाने में सफल रहे।) दोनों ही मत मीरा के ऐसे स्त्रीत्व का निषेध करते हैं जो किसी भी तरह से अनुकरणीय बन जाय। परिवार का रवैया मीरा के प्रति राउ दूदा के बड़े प्रेम से पुत्री के पालन पोषण से शुरू होता है और ससुराल की क्रूरताओं तक जाता है। चचेरे भाई जयमल, जिनकी पहुंच मुगलिया दरबार तक थी के प्रताप वश ही सम्भवत: मीरा का ससुराल में रह पाना सम्भव हुआ होगा, अन्यथा ऐसी जिद्दी स्त्री का निर्वाह ससुराल में बड़ा कठिन है, ऐसे में या तो वह टूट जाती है या फिर उसे निकाल दिया जाता है।मीरा के साथ भी इससे अलग व्यवहार नहीं हुआ, पति का अनुभव पहले दिन से ही अमानवीय था।इस अनुभव का प्रतिफलन उनकी कविता में निहित त्रास में देखा जा सकता है। मीरा ने लिखा है ‘सास लड़ें मेरी ननद खिजावें राणा रहया रिसाय।’ यह अनुभव पूरी पारिवारिक (ससुराल) संरचना का अनुभव है।क्योंकि मीरा सीधे सीधे राजसत्ता से जुड़ी थीं इसलिये राजसत्ता की विभिन्न तरह की क्षमताओं का भी शिकार उन्हें होना पड़ा अन्यथा यदि वे आम नागरिक होती तो शायद ऐसे सन्दर्भ उपस्थित नहीं होते। वस्तुत: उन पर हुए अत्याचार राजसत्ता से अधिक पितृसत्ता के ही हैं, यह अलग बात है कि राजसत्ता पितृसत्ता का ही एक्सटेंशन है।
मीरा की कविता एक माइने में स्त्री के मुद्दों की तीखी टीस की कविता है। मीरा का स्त्री अनुभव इस कविता में तरह तरह से उभर कर आता है। वर्जीनिया वुल्फ स्त्री अनुभवों की जटिलता की बात करते हुए कहती है कि ”काफी देर बाद किसी मर्द का लिखा हुआ पढ़ना सचमुच रोचक लगा। औरतों के लेखन के उपरांत यह कितना सीधा, कितना प्रत्यक्ष था। इससे मस्तिष्क की स्वतंत्रता, व्यक्ति की मुक्ति, अपने आप में घनघोर विश्वास की अनुभूति होती है।” मीरा के बारे में इसमें पूरा सच नहीं तो कुछ सच जरूर है। जितना सपाट कबीर की कविता कह ले जाती है, मीरा की कविता के लिये यह सम्भव नहीं है। कबीर के रहस्य का कारण और मीरा के रहस्य के कारण में भी अन्तर है। कबीर का रहस्यवाद गुणयुक्त ईश्वर के विकल्प का प्रतिफलन है, जबकि मीरा के लिये लौकिक अलौकिक ईश्वर के भेद को छुपा लेने के कारण है।दोनों पर सामाजिक दबाव हैं पर अलग अलग तरह के। इन दबावों के अन्तर में जब तक ‘स्त्री’ पर ध्यान नहीं दिया जायेगा तब तक बात नहीं बनेगी। मीरा के मस्तिष्क की उलझन को व्यंजना के जरिये ही पकड़ा जा सकता है। मध्ययुगीन स्त्री की भूमिकायें आज की स्त्री से भिन्न हैं, उसके लिये उड़ान भरने के लिये अनन्त आकाश नहीं है। वह एक सीमित दायरे में भी अपनी छोटी छोटी इच्छाओं के लिये मजबूर है।हालांकि स्त्री की वस्तु बनने की प्रक्रिया अब अधिक तीव्र है और वह बाजार के विभिन्नीकृत रूप में कमशोषित नहीं मानी जा सकती, पर उसके कुछ छोटी छोटी इच्छाओं को पुरा करने का स्पेश है। मर्दवादी अभियान को मानवतावादी आन्दोलनों की छाया ने कुछ दौर के लिये ही सही धीमा किया है। मीरा के समय में स्त्री के ‘स्त्री’ होने का अनुभव बहुत जल्दी शुरू हो जाता था, बारह वर्ष में विवाह करके पूरी तरह से बता दिया जाता था कि वह स्त्री है। विचारधारा के विकास का तकाजा, कम उम्र की नासमझी और रक्तसम्बन्धी लगाव की मजबूरियां उसे विवाह पूर्व यह अहसास शायद ही होने देती रहीं है कि उसके साथ किया गया व्यवहार स्त्री होने के कारण ऐसा है। ससुराल में आकर वह समझने लगती है।मीरा के लिये भी स्त्री अनुभव इसी दौर का है। प्रेम करना, अपने स्वत्व को बनाये रखना है और प्रेम का निबाह करना अपने स्वत्व को और मजबूत करना। दोनों ही प्रसंग स्त्री के लिये उस पर लागू किये गये नियमों के प्रतिकूल हैं, स्त्री की स्वतंत्रता के लिये जगह बनाते हैं। मर्दमूल्यों पर आधारित व्यवस्था के लिये स्त्री की स्वतंत्रता स्त्रीमूल्यों पर आधारित व्यवस्था के आने का खतरा है।इसीलिये वह ऐसे हर प्रयास को निंदनीय कहता है जो इस उपक्रम में योगदान दे सकता हो।मीरा कहती है कि ”राणाजी म्हाने या बदनामी लागे मीठी/ चाहे कोई निंदो चाहे कोई बिन्दो चलूंगी राह अनूठी।” मीरा इस निन्दा प्रसंग की परवाह न करके अपनी ज़िद पर अड़िग रही हैं।ऊदा बाई (कहा जाता है कि ये मीरा ही ननद थीं) के प्रसंग में बात आती है कि ”कुल को दाग लगे छै भाभी, निन्दा हो रही भारी/साधो रे संग बन बन भटको लाज गमायी सारी/बड़ा घराँ में जनम लियो छै नाचो दे दे तारी।” यहाँ तारी दे दे कर नाचना सम्भवत: व्यंजनापूर्ण अर्थ रखता है, जिसका अर्थ है शोर करके किसी ध्येय के लिये इधर उधर दौड़ना,या बेचैन रहना।मीरा गिरधर की खोज में ही साधु संगति करती है और उसी की तलाश में घूमती फिरतीं हैं, वह भी डंके की चोट।क्या यह मीरा के स्त्री स्वत्व को पाने की महत्वमान कोशिश नहीं है? इससे उपजने वाले त्रास की परिणति है कि मीरा कृष्ण का दासत्व स्वीकार करतीं हैं।”मेरे तो गिरधर गुपाल दूसरो न कोई” अपने सामाजिक पति को पति न कहना आसान बात नहीं है। इसमें पति की अमानवीयता के साथ साथ तीव्र वितृष्णा भी दिखाई देती है। मीरा का इन अनुभवों का दर्द ही उनकी कविता में अधिक उभरा है। इस त्रास की कई स्थितियां है जो सामाजिक आलोचना से शुरू होकर राजा (नगर नरेश) द्वारा त्यागे जाने से गुजर कर विष दिये जाने तक जाती हैं।
मध्ययुगीन स्त्री आदर्श इस प्रक्रिया में बनाये जा रहे हैं कि इस्लामी प्रभुत्व(जो कि सत्तागत सवाल है) के फलस्वरूप हिन्दू राजाओं की कायरतापूर्ण स्थितियों ने और हिन्दू सरदारों राजाओं की स्त्रियों को नये शासकों द्वारा हथियाये जाने से पैदा होने वाली मन:स्थिति तरह तरह के बन्धनों को आयद करने पर आमादा है। ऐसे में स्त्री के लिये सती होना या जौहर करना स्त्री शिक्षा का सम्भवत: पहला पाठ बन गया है, कुल की मर्यादा, अपनी पवित्रता और सामाजिक दबावो के निर्वाह के लिये तत्परता उसके जीवन के निहितार्थ बन गये हैं।मीरा की कविता ऐसे तमाम सन्दर्भों का नकार करती हैं ”अपने कुल को पर्दा कर ले में अबला बौरानी” मीरा के इस पद में स्पष्ट है कि कुल की मर्यादा की जिम्मेवारी स्त्री की ही क्यों? जिसका कुल वह खुद रखवाली करे।मीरा कहती हैं कि सती और जौहर उनके लिये जो दूर बैठकर तमाशा देखते है ठीक वैसा ही नहीं हो सकता जो जौहर को भोग रहा है।”जौहर की गति जौहर जाने जिण लायि जौहर होय।” यहां स्त्री अनुभव और पुरुष अनुभवों में अन्तर की जितनी स्पष्ट पीड़ा है, शायद वह लम्बे अरसे बाद आज थोड़ी बहुत चर्चा का विषय बन पायी है, जबकि स्त्री लेखन की यह एक महत्वपूर्ण शर्त है। मध्ययुगीन हिन्दी कवियित्रियों में स्त्री चेतना के कई एक रूप हैं, एक वे हैं जो पुरुष विचार का ठीक उल्था करती दिखती हैं इनके अनुभव भले ही पुरुषों के जैसे ही हो सकते हैं, एक वे हैं जो श्रिंगार की तन्मयता में इतना खो गयी है कि उनके पास अपने लिये सोचने के सन्दर्भ ही नहीं हैं हालांकि इनके अनुभव स्त्री के निजी अनुभव ही हैं, एक वे हैं जो समाज, घर, खुद जैसी बाताें का सामना करती हैं और अपनी सत्ता के निर्माण में पुरुष की उपस्थिति को लगातार महसूस करती हैं।मीरा तीसरे प्रकार की कवियित्री हैं।मीरा कविता में पुरुष निर्मित विभिन्न सामाजिक प्रतिमानों के साथ एक सम्बन्ध रखती हैं, यह सम्बन्ध स्वीकार या अस्वीकार किसी भी तरह का हो सकता है।मीरा खुद को संयासीन नहीं कहतीं (वैसे भी सन्यास एक तरह की आत्महत्या है, भक्ति काव्य के सन्तों में बहुत कम सन्यासी हैं), सांसारिक लैंगिक भूमिकाओं से न दूसरे भक्त कवि उबर पाते हैं न मीरा। अपनी पूरी काव्य संवेदना में मीरा स्त्री जगत के कई एक पहलुओं पर ऐसी टिप्पणी करती हैं जो अन्य कवियों (पुरुषों) के लिये सम्भव नहीं हो पाया। मीरा व्यभिचार की बात अपनी कविता में कहीं नहीं करती जबकि तत्कालीन नैतिकता का दायरा भक्ति के ढाँचे में भी इस पवित्रता की रेखा को शायद ही पार कर पाया है। कबीर तो कहते है कि चुनरी में दाग लगने के बाद प्रिय प्रेम नहीं करेगा। व्यभिचार होना और व्यभिचार को प्रचारित करना दोनों दो बातें हैं और दोनों में ही अलग अलग उद्देश्य से पुरुषों की ही भूमिका होती है, शायद ही इस कार्य में स्त्रियां लगी हुई पायी जाती हैं। व्यभिचार करने वाला तो वह खुद है ही व्यभिचार को प्रचारित करना उसकी व्यभिचार में हाथ लगी असफलता का परिणाम है। और धीरे धीरे यह एक पुरुष सत्ता के प्रतिमान में बदल जाता है, इस पर यदि एक सचेत निगाह न रखी जाय तो बड़े आराम से इसके तर्कजाल में उलझा ता सकता है और कबीर जैसे लोग भी इस पुरुषसत्ता के नजरिये से शायद अपने को बचाने में असफल रहे हैं।

मीरा की कविता में जीवन के वे सभी उल्लासपूर्ण प्रसंग मौजूद हैं जिन्हें रस, रूप और आसक्ति के दायरे में रख सकते हैं। मीरा का गोपाल के साथ श्रंगारिक विस्तार उनकी कविता के बड़े फलक को घेरता है। मीरा के बारे में यह कहा जाता है कि मीरा बहुत सुन्दर थीं, कलाओं में कुशल थीं और स्वभाव में अंर्तमुखी थीं। आत्ममुग्धता या रूपासक्ति स्त्री के लिये एक सामान्य सी बात है, सीमोन ने लिखा है ”स्त्री अपने प्रतिबिम्ब में अहम के साथ तादात्म्य स्थापित कर लेती है। पुरुष की दृष्टि में उसका सौन्दर्य उत्कृष्टता का सूचक है किन्तु वही सौन्दर्य स्त्री की अर्न्तव्यापी निष्क्रियता का भी सूचक है।” मीरा के यहाँ इस आत्ममुग्धता का असर देखें तो ”हे मा बड़ी बड़ी ऍंखियन बारौ, मो तन हेरत हँसि क” मीरा का अपने ‘तन’ पर ध्याान है। बड़ी-बड़ी ऑंखों वाले की निगाहों में मीरा का ‘तन’ है और मीरा भी अपने तन को उसी की ऑंखों से देखती हैं। मीरा के रूपास्वाद का दूसरा पहलू यह है कि मीरा अपने प्रिय के रूप सौन्दर्य का ठहर ठहर कर पान करती हैं।मीरा ने अपने काव्य में नख-शिख वर्णन की परम्परा का अनुकरण नहीं किया है कि उनके अपने प्रिय के सौन्दर्य वर्णन को परिपाटी मान लिया जाय। भक्त कवियों ने सौन्दर्य की इस तरह की परम्परा का निर्वाह किया है किन्तु मीरा के हृदय की गहराईयों यह सौन्दर्य पैठ गया है।"भौंह कमान बान बाँके लोचन, मारत हियरे कसिकैं।जतन करौं जन्तर लिख बाँधो, ओखद लाऊं घसिकै॥” यह रति भाव का अनुभव उनके सौन्दर्यानुभव की ही परिणति है कि उनका अन्तर तक इस भाव से इतना उद्दीप्त होता है कि उन्हें ‘जन्तर’ और ‘ओखद’ की जरूरत महसूस होने लगती है।यह कोई अप्रत्याशित या अलौकिक संवेदन नहीं है, स्त्री मन की गहराइयों तक जाने वाले अध्ययन बताते हैं कि उनके लिये यह प्रेम भाव जादू की तरह होता है-एक साथ डरावना और लुभावना भी।इस भाव मे स्त्री जिन जिन सन्दर्भों के जिस जिस तरह से अनुभव करती है, मीरा के अनुभव उस दायरे से बाहर नहीं हैं।इसी कड़ी में मीरा लिखती हैं ”रेजा रेजा भयो करेजा अन्दर देखो धंसिकैं।” इसी रूप के लोभ में मीरा घर से निकलती हैं।

मीरा के प्रेम की यात्रा सौन्दर्य से आरम्भ होती है। पुरुष के सौन्दर्य के प्रति अपना निर्णय रखना एक स्त्री के लिये भारी पड़ता है। मीरा की खासियत इस बात में नहीं है कि वह प्रेम करती है, असल में उसके अपने निर्णय हैं और यह बड़ी बात है। मध्ययुग में स्त्री को प्रेम करने का अधिकार है, पर पितृसत्ता के ढाँचे की इच्छानुसार,इससे बाहर प्रेम इस सत्ता के लिये चुनौती है और मीरा यही चुनौती इसे देती हैं।मीरा का पहला निर्णय है कि वे राणा को अपने पति के रूप में पसन्द नहीं करतीं (ज्यों बृच्छन में कैर), दूसरा निर्णय है कि गिरधर के रूप के ‘बिना पल रह्या न जाय’। क्योंकि ऐसे निर्णयों पर तो पुरुष एकाधिकार है, इस अधिकार क्षेत्र में हस्तक्षेप करना निश्चित रूप से नारी अधिकारों की माँग का शुरुआती चरण है।मीरा न केवल गिरधर के रूप सौन्दर्य पर अपना निर्णय रखती हैं, बल्कि रस और आसक्ति तक पहुँचाती हैं, हालाँकि उनसे पैदा होने वाले तमाम अनुभावों का स्वरूप परम्परागत ढाँचे से बाहर नहीं जाता।

मीरा अपने ऊँचे महल पर खड़ी हैं गिरधर गली से गुजरता है। चन्द्रमा की तरह शरीर प्रकाशित है, मीरा को देखकर मन्द मन्द मुसकाता है।मीरा के मन में तमाम स्त्रियोचित भाव उदित होते हैं, पर परम्परागत स्त्रियोचित ‘लज्जा’ उन पर भारी पड़ती है और वे घर में घुस जाती हैं। डॉ0 विश्वनाथ त्रिपाठी इस पूरे उपक्रम पर एक जबरदस्त क्रिटिक रखते हैं, बाकी सब तो ठीक है पर अन्त तक पहँचते ही कहते हैं कि ”यह रूप भगवान का है किसी लौकिक पुरुष का नहीं। यदि मीरा को भगवान की पूजा करनी थी तो वे घर पर रहकर यह सब कर सकती थीं।इसमें किसी को आपत्ति न होती लेकिन मीरा भगवान का भजन भी करना चाहतीं थी और साधु संगति भी। इस साधु संगति के कारण ही राणा को का्रेध आया होगा।” रूप तो रूप है, उसमें लौकिक पुरुष और भगवान का सवाल कहाँ से आ गया? प्रेम के साथ प्रेमी का जोड़ा ही ठीक बैठता है, लौकिक या अलौकिक का नहीं।आखिर ऐसा कौन सा दबाव है जिसके चलते डॉ0 त्रिपाठी को यह झमेला खड़ा करना पड़ा? यह वही दबाव है जिसके चलते भक्त होने तक तो मामला सहनीय रहता है (पितृसत्ता खतरे में नहीं पड़ती), स्त्री बनते ही चुनौती खड़ी होने लगती है। जब मीरा के प्रेम का लौकिक आधार ग्रहण किया जाता है तो मीरा भक्त के दायरे की अस्पष्ट (रहस्यमय या धुंधली) पक्षधरता को लांघकर स्त्री की स्पष्ट पक्षधरता को निर्मित करने लगती हैं। डॉ0 त्रिपाठी का मीरा के प्रेम पर ठेठ लौकिक टिप्पणियों पर उनका अन्त में आरोपित अलौकिकतावादी जामा उनके पूरे अभियान को मजा लेने के अन्दाज में किये गये विवेचन में बदल देता है और अक्सर यह देखा गया है कि हिन्दी आलोचना में स्त्री के प्रश्न पर यही हुआ है। जब मीरा के प्रेम और रूप आसक्ति के लौकिक सन्दर्भों में ग्रहण किया जाय तो इस सवाल पर अधिक बहस की गुंजाइश नहीं रह जाती कि मीरा को घर छोड़ने पर क्यों मजबूर होना पड़ा या क्यों घर से निकाला गया। उनकी सामाजिक पहचान तक अंधेरों में चली गयी, कोई नहीं जानता कि मीरा का असली नाम क्या था? यहाँ एक और पहलू भी ध्यान देने योग्य है कि हमारे लोकसांस्कृतिक प्रसंगों पर ध्यान दिया जाय तो पता चलेगा कि अक्सर सम्बोधन में भगवान ही आता है,’बरना’ राम ही होते हैं,’जन्म लेने वाला बालक’ कृष्ण ही होता है।मीरा का लोकजागरण के काव्य में स्थान तो अविवादित है ही, फिर क्या यह सम्भव नहीं कि मीरा के लिये भी यह ‘भगवान’ सम्बोधन के रूप में भी ग्रहण कर लिया गया हो।

मीरा के रस का सबसे बड़ा आधार हैं ऑंखें।एक स्थिति वह है जब ऑंखों से वे लगातार अपने प्रिय के साथ सम्बन्ध बिठाती रहती है।’थारो रूप देख अटकी’,’निपट बंक छवि अटके’,’आली म्हारे नैना बाण पड़ी’ और कितने ही पदों में ये ऑंखें रस में डूबी दिखती हैं। स्त्री के लिये प्रेमी पुरुष में रस प्राप्त करने का यह एक जेनुविन तरीका है। ऑंखों पर पाबन्दी लगाना आसान बात नहीं है।(जबकि शुरू से लड़की की पहली शिक्षा ही ऑंखों पर काबू रखने के पाठ से शुरू होती है) मीरा इन ऑंखों के अनुभव को कह देतीं हैं। यह कह देना प्रेम का आख्यान करना है। मीरा यह करती हैं।मीरा अपने गिरधर को इन ऑंखों में बसाती हैं और खुद की छवि इनमें देखती है।फिर इन्हीं के हाथों बिक जाती है। यह सब इतने भाव से भरकर होता है कि स्त्री के स्वायत्त स्वप्न का इन्हीं में सिमटकर अन्त हो जाता है। उसे मीठा कष्ट होने लगता है कि इनके हाथों उसकी लाज चली गयी। एक साथ इस रस की आकाँक्षा में मुक्ति और बन्धन का संयोजन यही उनकी और तत्कालीन दौर की स्त्री मुक्ति का सीमित दायरा है। बाद में यह इतना कष्ट देता है कि मीरा हो इनके लिये मरना पड़ता है। मध्ययुग में जिस तरह भक्ति का आख्यान भक्ति की रहस्यमयता का शिकार होकर अपने सारे मुक्तिमूलक प्रंसगों से हाथ धो बैठता है, उसी तरह मीरा का स्त्री आख्यान पुरुष के अधीन होकर सारी ऊर्जा को धीरे धीरे खो बैठता है। वह प्रेम के उत्साह से शुरू होकर निरीहता और बेवशी में ही आश्रय पाती हैं।

मीरा की कविता के एक हिस्से को क्रोध, हिंसा और विवशता घेरती है। समाज व्यवस्था का ढ़ाँचा ऐसा है कि अपने रीति रिवाजों और मौखिक कानून का एक हिंसात्मक पृष्ठ तैयार करता है। इसकी शुरुआत बरजने से होती है और जिन्दा जला देने तक यह फैला हुआ है। किसी भी दौर में इन काले कानूनों से अकेला लड़ता हुआ व्यक्ति अपने हिस्से में विवशता के अलावा कुछ नहीं पाता। मीरा का संघर्ष दोहरा है, क्योंकि वह स्त्री है। लोक लाज इस लोक कानून व्यवस्था का एक अध्याय है, मीरा इसे फाड़कर फैंक देती है। ऐसा करने के लिये वह पुरुषों के हिस्से में आरक्षित वीरता को धारण करती है।’आधे मीरा एकली रे आधे राणा की फौज’ या ‘तन की आस कबहु नहि कीन्हीं ज्यों रण माहीं सूरौ’ या ‘ग्यान म्हारौ खाँड़े की धार’ ये मीरा की मर्दानगी के कुछ उदाहरण हैं। मध्ययुग में दो ही आदर्श हैं, सती और शूर। दोनों दु:खों से लड़ने के लिये दो जातियों के लिये बनाये गये दो अलग अलग हथियार हैं। सती का आदर्श आत्महिंसात्मक है, तो शूर का हिंसात्मक।सती स्त्री जाति की स्वतन्त्रता को आग में जला देने की रणनीति है जो पितृसत्ता ने तैयार की है, शूर सामन्तवाद की रक्षा के लिये आत्मोत्सर्ग की नायाब युक्ति। दु:खों से दोनों ही लड़ते है, अपनी जान देकर और रक्षा होती है दो व्यवस्थाओं की।अपने स्वयं के लिये उनके पास कुछ भी बचा नहीे रहता। एक और अवधारणा है ‘प्रतिहिंसा’ जो अपने बचाव के लिये किसी भी हिंसा का दिया गया जबाव है। मीरा पितृसत्ता और सामन्तवाद दोनों की हिंसा की शिकार हैं और अपने बचाव में प्रतिहिंसात्मकता तक जाती हैं। मीरा सती के आदर्श को तो स्वीकार नहीं ही करती हैं, शूर के मात्र बिम्ब को ग्रहण करती हैं आदर्श को नहीं। मीरा के पास अपने हथियार है-शील, इसे अहिंसा भी कह सकते हैं।मीरा क्रोध और हिंसा के जबाव में ‘शील’ और ‘सत्याग्रह’ के सहारे खड़ी होती हैं। आचार्य रामचन्द्रशुक्ल ने भक्तिकाव्य को नापने के लिये ‘शक्ति’, ‘शील’ और ‘सौन्दर्य’ तीन प्रतिमान खड़े किये हैं। उनके द्वारा तुलसी के राम में तीनों गुणों को पाया गया,सूर के कृष्ण में दो ही गुण हैं-‘शील’ और ‘सौन्दर्य’। ये तीनों ही गुण पितृसत्तावादी विचारधारा के अंग हैं। स्त्री उसकी नजर में अबला है, शील बृह्मचर्य का ही विस्तार है और सौन्दर्य के प्रतिमान निर्धारण से लेकर उपभोग तक उन्हीं का एकाधिकार है। मीरा सौन्दर्य के दायरे में स्त्री हस्तक्षेप करती है, लेकिन शील के आवरण को नहीं तोड़ पाती। ‘शील’ और ‘सौन्दर्य’ के कृष्णभक्ति के प्रतिमानों से जहाँ तक प्रतिरोध रखती हैं, वहाँ तक मीरा का खूब विरोध होता है।सामाजिक शील(मर्यादा) का मीरा पर इतना दबाव तो रहता ही है कि लोक लाज कुल से वेपरवाह होकर भी मीरा एक अपना शील बना ही लेती हैं। मीरा की कविता में राणा द्वारा किये गये अमानवीय व्यवहार से उपजी त्रासपूर्ण स्थितियों की चर्चा बहुत बार होती है। इनमें ऐसा लगता है जैसे अपने ठाठ बाट का बार बार उलाहना देने, जली कटी सुनाने वाले व्यक्ति को वे सम्बोधित करके उन उलाहनों का जबाव दे रही है यह स्त्री। स्त्री हिंसा का ही एक रूप है उसे बार-बार आर्थिक आधारों को लेकर उसका जीना दूभर किया जाय।मीरा के अपनी इच्छा से जीने की लालसा राणा को इस बात के लिये पर्याप्त जगह देती है कि वह अपने धन दौलत और राजसी ठाठ बाट की धौंस दे,मीरा इसी के जबाव में वह सब छोड़ देती हैं या छोड़ने को महत्व देती हैं।तत्कालीन दौर में जबकि पूरा सामन्ती रवैया ऐसो आराम और अय्यासी भरा हुआ है मीरा का यह आग्रह एक पूरी सांस्कृतिक संरचना को चुनौती देने वाला स्वर बन जाता है।छप्पन भोग, मोती माणिक, दखिनी चीर, आभूषण और पाट पटम्बर सब को छोड़कर मीरा को चैन मिलता है, पियाजी की रूखी बिना नमक तक की रोटी साग खाने में, गुदड़ी में सोने में और प्रिय के प्रेम को ही अपनी साज सज्जा बनाने में ।

मीरा का प्रतिरोध धीरे धीरे बढ़ते हुए सामाजिक दबाव और क्रूर रवैये के सामने चुकती जाती है और एक स्त्री की विवशता बढ़ती जाती है। मीरा दिन प्रतिदिन कृष्ण पर आश्रित होती जाती है।बार बार वह कृष्ण को ऐसे तमाम अत्याचारों से उबारने के लिये पुकारती सी दिखते हैं जो असहनीय हो गये हैं।मीरा के ऊपर अत्याचारों की पराकाष्ठा यह है कि उसे न केवल ननद खिजाती है, सास लड़ती है, राणा रिस्याता है बल्कि पहरे ताले के बिठाये जाते हैं, पति द्वारा त्यागा जाता है, फिर देश निकाला दिया जाता है, बाद में हत्या के प्रयास में साँप भेजना, जहर देना, शूल सेज बिछाना) किये जाते हैं। पितृसत्ता का ही एक हिस्सा वह गिरधर साबित होता है मीरा ने लिखा है कि गिरधर तुम हमारे ऊपर क्यों नाराज हो जो बात करने तक के लिये राजी नहीं हो, आखिर मैंने ऐसा क्या अपराध किया है। मेरे अवगुणों को दिखाओ, मैं अपने कान से सुनना चाहती हूँ।) और मीरा के लिये यह बड़ी त्रास जनक हालत होती है।एक स्त्री की इससे अधिक विवश हालत क्या हो सकती है। मध्ययुगीन स्त्री के संघर्ष के इस रूप पुरुष में अपने दु:खों का समाधान खोजना-भौतिक जगत में वह प्रेमी है और आध्यात्मिक जगत में ईश्वर) की यही सीमा है।

मीरा की कविता में बनने वाली स्त्री की कहानी एक कुचले हुए स्वप्न वाली स्त्री की कहानी है। इस स्त्री ने प्रेम में पड़कर और अपने मजबूत आत्म के सहारे कोई स्वप्न देखा जो कि जीवन की खुली हुई ऑंखों से देखा गया। इस स्वप्न में उसने जीवन के प्रत्येक खुशनुमा क्षण को इसमें जगह दी, लेकिन यह स्वप्न पूरी समाज यान्त्रिकी को निष्फल साबित कर देने वाला था। परिणामत: मजबूत हाथों ने इसे कुचल डाला। कुचले हुये मन ने ईश्वर में अपना आश्रय खोजा और अपने स्वप्न को ईश्वर को समर्पित कर दिया। उसका हर राग ईश्वर का राग बन गया जिससे न तो सामाजिक ढ़ाँचे को ही उतनी क्षति हो सकती थी और न इसकी ज़मी न ही ऐसी उर्वर थी कि बाद में चलकर कोई अच्छी फसल पैदा कर पाता। मध्ययुगीन स्त्री के स्वप्न में कहीं भी बड़े-बड़े राज्यों को पाने की आकाँक्षा नहीं है। भारतीय जनमानस में उपजी लोक कथाओं को अगर ध्यान से देखा जाय तो पता चलता है कि अधिकाँश में स्त्री का एक ही तरह का स्वप्न है अपने प्रेमी के साथ जीवन बिताने का और उसे पूरा करने की प्रक्रिया बड़ी जटिल है, शायद ही यह दैवीय हस्तक्षेप के बिना पूरा हो पाता है। मीरा की कविता की नायिका का स्वप्न भी इससे अलग नहीं है पर उसके स्वप्न में दैवीय हस्तक्षेप का अभाव ही उसे दैव के रूपक के साथ जुड़ने तक ले जाता है। लोक में स्वप्न के रास्ते में रहस्यमय और भयकारी रुकावटें आती हैं पर मीरा की स्त्री की रुकावटें दैनिक जीवन की और छोटी छोटी होकर भी मरणान्तक प्रभावकारी हैं। अधिकांशत: आलोचना के रवैये ने यह किया है कि एक स्त्री के स्वप्न को नजरंदाज करके उसके स्त्री होने को उपेक्षित कर दिया है और भक्ति-दैविय प्रकरण) पर ही सारा जोर दे दिया है। मीरा की नायिका अपने चरित्र में भक्ति प्रसंगों को छोड़ भी दिया जाय तो भी) ऐसे मूल्यों को लेकर आती है जो कि अपने समय में निश्चित रूप से स्त्री के दायरे को तोड़ने वाले थे, हालांकि उसकी सीमायें थी। मूलत: इनका आधार व्यक्तिगत होने के कारण जैसा कि  भक्ति के सभी प्रमुख परिवर्तनकारी स्वरों के साथ भी था) ‘इच्छाशक्ति’ उतनी ऊर्जा नहीं पाती थी कि अपनी विवशता के कारकों से छुटकारा पा सके और अपने स्वयं के रास्ते बनाकर उनपर सरपट दौड़ सके।

मीरा की कविता की भाषा की अपनी कुछ खास विशेषताएँ हैं जो उसके स्त्री होने के अपने अर्थों को कहती है और भक्तों की भाषा से उसे अलग करती है। यह माना जाता है कि लोकगीतों की रचयिता स्त्री ही रही हैं, उनका काव्यशास्त्रीय ढ़ाँचा स्त्री दुनियाँ के घुमावदार गलियों से बनता है। स्त्री की जुबान सीधी-सपाट नहीं होती, उसकी जिन्दगी की जटिलतायें उनमें उसी रूप में भरी होती है जिस रूप में उसे जीवन जीना पड़ता है। देखने में सरल, जीने में जटिलताओं से भरा हुआ) मीरा की कविता लोक की इसी भावभूमि पर खड़ी है। मीरा की कविता के लोक में व्याप्त पाठ भी पाये जाते हैं। जैसे लोकगीत की धुनें चलती हैं, मीरा की कविता भी वैसे ही अपने अर्थ को कहने में अधिक समर्थ दिखायी देती है।मीरा की कवितायें देखने में सीधी और सपाट दिखाई देती है, डॉ0 विश्वनाथ त्रिपाठी ने तो इन्हें ‘सपाटबयानी’ करार दिया है, पर ये बड़ी जटिल हैं। निराला ने कविता में भाषा और भाव की सरलता की बात उठायी है। मीरा की कविता में भी यह बात भाव की जटिलता से उत्पन्न भाषा की जटिलता तक जाती है। मीरा की कविता की जटिलता अलंकारों से नहीं पैदा होती, उसमें स्त्री जीवन की जटिलता उसे ऐसा बना देती है और यही उनके काव्यानुभव की गम्भीरता भी है। मीरा की कविता है सिसुण्यारी म्हारे हरि आवाँगा आज।/म्हैला चढ़ चढ़ जोवाँ सजणी कब आवाँ महाराज।/दादुर मोर पपीहा बोल्याँ काइल मधुरा साज।/उमग्याँ इन्द्र चहुँ दिसि बरस्या दामण छोड़या जाज।/धरती रूप नवाँ नवाँ धरया इन्द्र मिलण रे काज।पि देखने में सीधी सा बात है गिरधर आने वाला है और मीरा इन्तजार कर रही है। पर बात इतनी ही नहीं है।’सुण्या’शब्द पर ध्यान दें तो ध्वनि कुछ इस तरह की होती है कि अलौकिकता के मायाजाल को भेदती हुई परवश स्त्री के झीने से सूचनातन्त्र से किसी के आने के संकेत का पता भर चलता है और चारों ओर का परिवेश (धरती तक) गतिशील हो उठता है। यदि ‘महाराज’ पर गौर किया जाय तो आने वाला कोई भी निश्चित रूप से ऐसा जन ठहरता है जो कि मात्र यादों में नहीं है।स्त्री जीवन पर के तमाम तरह के दबाव उसे छत पर बिठा देते हैं कि तमाम संघर्षों को झेलते हुए भी अधिक से अधिक आने वाले को तुम यहाँ से देख भर सकती हो। मीरा की हर कविता में स्त्री जीवन की जटिलता से जुड़े भाषा के ऐसे आयाम उपस्थित हैं।

मीरा की कविता में कहने और छुपा लेने की बीच गहरा तनाव है। स्त्री जीवन में ढ़ेरों प्रसंग ऐसे हैं कि वह अपनी जुबान को लगाम देकर रखने के लिये प्रतिबद्ध रहती है। यह बन्धन अलग-अलग स्थितियों में अलग-अलग तरह का होता है, मसलन कम बोलना, धीरे बोलना, मीठा बोलना आदि। कई बार यह बन्धन अपने भावों को अन्य सन्दर्भों पर आरोपित करने तक चला जाता है। वह कहना कुछ चाहती है, कहना कुछ और पड़ता है। मीरा की कविता की भाषा पर भी ये बन्धन लागू हैं। मीरा की कविता में रहस्यवादी शब्दावली का प्रयोग वहीं-वहीं मिलती जहाँ वे संयोग के सन्दर्भों को कहना चाहती हैं। यह शब्दविधान निर्गुण परम्परा से जुड़ा होकर भी अपने भीतर स्त्री की भावाभिव्यक्ति का ही हिस्सा अधिक है, वह रहस्य अपनी खास मनोसंरचना के कारण ही पैदा होता है जो कि स्त्री के जटिल संसार के कारण पैदा होती है।

मीरा की कविता में रसपूर्ण अनुभवाें में भाषा का गठन परम्परागत ढाँचे के पुरुष का उल्लंघन कर अपना अलग रूप खड़ा करने का उपक्रम करती है। लुभावनी ऑंखें मीरा के यहाँ नैतिकता और कामवासना के दायरे को पारकर प्रेम के ऐसे आलोक से भरकर दृष्टि का ही रूप ले लेती हैं, जो कि मीरा की जीवन दृष्टि ही बन जाती है। मीरा इसी जीवन दृष्टि को आधार बनाकर चलती हैं तो उनका अनुभव संसार कुछ इस तरह का होता है कि मीरा तजि सरवर ज्यों मकर मिलन धायी। पिमकर और जल का प्रेम शास्त्राीय प्रेम का महत्वपूर्ण उपमान है, वहीं मीरा के अनुभव का रास्ता सरवर को छोड़कर मिटने की ओर जाता है। ध्यान देने योग्य है कि मछली जल में रहकर जल से प्रेम नहीं करेगी तो क्या करेगी? न तो इस प्रेम के स्वीकार में पितृसत्ता को कोई परेद्दाानी है और न ही मछली के लिये ही कोई खतरा है। मीरा इस शास्त्रीय ढ़ाँचे से इत्तिफाक कैसे कर सकती है। मीरा की भाषा में करुणा का सागर भाषाई गठन के भीतर से ही उभरता है। सिहरि बिन ना सरे री माई, हरि बिन ना सरे री माई पिय त्रास पुरुषों की भाषा के बीच से नहीं उभर सकता। यह विलाप की भाषा समाजीकरण की प्रक्रिया में स्त्री के ही हिस्से आती है, पुरुष से बचकर अपना रास्ता बनाता है वह गहनतम स्थितियों में भी सिभावित नयनों से सजल गिरे दो मुक्तादलपि12 से अधिक अनुभव नहीं करता। मीरा की भाषा अपना सारा कारोबार घर की चाहरदीवारी में कैद जिन्दगी की सीमाओं के भीतर ही करती है। चूनरी, लहँगा, नथुनी, बाजूबन्द, महल, अटारी आदि में ही मीरा वह सन्दर्भ पैदा करने का प्रयास करती है कि स्त्री की सारी कथा-व्यथा उभर आये। कबीर की भाषा को कहा जाता है कि वह दरेरा झेलकर अपनी बात कह लेती है, मीरा की भाषा के बारे में यह कहा जा सकता है कि वह करुणा का ऐसा बोझ सहकर भी कहीं बिखरती नहीं और सघन, धारदार और मुखर होती चलती हैi

स्त्री के रचना संसार पर आमतौर पर लोग विवरणात्मक होने का ठप्पा लगा देते हैं, यह एक ऐसा मिथ है जो स्त्री के व्यक्तित्व पर ‘बड़बोली होने या बाचाल होने’ के आरोपों से ही निकलकर आता है। इस ठप्पे का प्रतिकार करना स्त्री के संसार की महत्वपूर्ण जरूरत है। मीरा की कविता पर भी आसानी से लोग यह बात थोपते चलते हैं कि यह कविता वर्णनात्मक है। मीरा की कविता में पुनरावृत्ति तो है पर वर्णन बड़े ही सीमित हैं। आदिकाल से ही हिन्दी कविता पर ध्यान दिया जाय तो कबीर से भी कम वर्णन मीरा के यहाँ हैं। मीरा के यहाँ वर्णनों पर ध्यान दें तो जहाँ भक्ति के ‘शास्त्रीय प्रसंग’ हैं वहीं पर मिलते हैं। सबसे अधिक ये कृष्ण के ‘अधम उधारण’ प्रसंग में ही आये हैं। मीरा की भाषा की शब्दावली तक बड़ी सीमित है,  मुहावरे, कहावतों के सहारे वे काम चलाती हैं।अस्तु! सीमित संसार के गहन और जटिल अनुभवों में रचे गये स्त्री काव्य पर पुन: नये सिरे से विचार करने की दरकार कायम है। न केवल मीरा को बल्कि और तमाम स्त्री साहित्य को फिर से पढ़ा जाना अभी बाकी है।


--- अनुराधा 

एम. एस. जे. कॉलेज, भरतपुर
(साभार)

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