ज बाज़ारवाद पर जो लोग अच्छी चर्चा कर रहे हैं वे स्त्रीवादी विमर्श के लोग हैं. बाजार का सबसे बड़ा असर व्यक्तिगत और पारिवारिक जीवन पर पड़ा है. इसने व्यक्तिगत भावनाओं, धार्मिक आस्थाओं और परम्परागत समाज के स्त्रियोचित-पुरुषोचित व्यवहार को लाभ के लिए भुनाया है. औरत की देह के सवाल को नग्नता, वासना, उत्पाद से जोड़ा है और यह सब बाजार की लाभ नीतियों के तहत बड़ी कुशलता से किया गया है. मिडिल क्लास जो दैनंदिन दिनचर्या और रूचियों तक सीमित है वस्तुतः उपभोक्तावादी है. उसके लिए सभी प्रश्न इच्छा-अनिच्छा के प्रश्न हैं. सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक रूप में वे गौण हैं. वामपंथ ने बाजार के खतरों और नीतियों को पहले-पहले भांपा लेकिन मजदूर से किसान के संघर्ष तक ही अपनी पहुँच बना सके. नामवर सिंह ने एक साक्षात्कार में कहा था -‘‘हमलोगों ने स्त्रियों पर होनेवाले अत्याचारों पर उतना ध्यान नहीं दिया जितना देना चाहिए था.’’ (स्वाधीनता, पत्रिका, शारदीय विशेषांक, 2000, पृ0 - 28) यह एक ऐसी कमजोरी थी, जिसे यूरोपियन देशों और खासतौर से अमेरिका के वामपंथी दलों ने सबसे पहले पकड़ा.
अपने एक लेख ‘स्त्री-दृष्टि और रामविलास शर्मा’ में डॉ0 अर्चना वर्मा ने स्त्री के सवालों को उत्पादन संबंधों के परिप्रेक्ष्य में देखते वामपंथ के संदर्भ में लिखा - ‘‘पुराने क्लासिक वाम से उसका रिश्ता अगर विरोध का नहीं है तो प्रगाढ़ असहमति का अवश्य है.’’ (रामविलास शर्मा का ऐतिहासिक योगदान, संपा0 प्रदीप सक्सेना, पृ0-692) प्रगाढ़ असहमति की तमाम वजहों और उदाहरणों के बाद भी यह देखना और समझना नए रास्तों की ओर ले जा सकता है कि क्या हिंदी आलोचना के महत्वपूर्ण मार्क्सवादी आलोचक डॉ0 रामविलास शर्मा की आलोचना में स्त्री-मुक्ति के ध्येय को कोई स्थान मिला है या उनकी इतिहास-दृष्टि यहाँ चूक जाती है.
रामविलास शर्मा अपनी तरह के अकेले साहित्यिक समालोचक हैं जो लगभग 60 वर्षों तक योजनाबद्ध तरीके से साहित्य, दर्शन, इतिहास, भाषा, समाज और मार्क्सवाद से जुड़े रहकर निरंतर साधना करते रहे. उनकी साहित्यिक चिंताएँ निश्चित ही बड़ी और विस्तृत फलक तक जाने वाली है. नामवर सिंह ने 1983 मई में मध्यप्रदेश प्रगतिशील लेखक संघ द्वारा भोपाल में आयोजित विशेष व्याख्यानमाला ‘डॉ॰ रामविलास शर्मा’ के उद्घाटन सत्र में जो व्याख्यान दिया (प्रलेस के मुखपत्र में प्रकाशित, 1984 मार्च) उसका मूल स्वर था ‘हिन्दी के हित का अभिमान वह, दान वह’ में वह कहते हैं.‘‘जहाँ तक मेरी जानकारी है समूचे भारतीय इतिहास में ऐसा कोई साहित्यिक समालोचक नहीं है जो इतिहासकारों से संवाद की स्थिति में हो. जो इनकी खोज से प्राप्त तथ्यों को साहित्य की कसौटी पर जाँच सकता हो.’’
रामविलास शर्मा के विशुद्ध विपुल योजनाबद्ध 60 वर्षीय निरंतर सक्रिय लेखन के सिलसिले में यह सवाल किया जाना असंगत और निरर्थक नहीं होगा कि लेखन की प्रौढ़ावस्था में भारतीय साहित्यिक, सामाजिक स्तर पर तमाम अस्मितामूलक विमर्शों को लेकर उनकी क्या प्रतिक्रिया थी. क्या उनके लेखन में स्त्री-अस्मिता या स्त्री-संदर्भ का कोई स्थान मिला है. ऋग्वेद से सबाल्टर्न इतिहासकारों तक जाने वाले रामविलास शर्मा जब जातीय जागरण और एकता की बात करते हैं, भारतीयता के विशेष संदर्भ में, साहित्य, इतिहास, भाषा और समाज का मूल्याँकन करते हैं. साम्राज्यवादी ताकतों के षडयंत्रों की पहचान कर भारतीय राजनीति और इतिहास को उनके प्रति सचेत रहने की सलाह देते हैं, तब क्या 1979 में संयुक्त राष्ट्रसंघ की आम सभा में स्त्री अधिकारों को लेकर लिए गए निर्णयों से अभी -अभी जागे भारतीय समाज की ओर उनकी दृष्टि गई. स्त्री अधिकारों और मुक्ति के स्वप्न की इस विश्व व्यापी वैधता को क्या उनके लेखकीय सरोकारों में कोई स्थान मिला. गाँधी, अम्बेडकर, लोहिया पर लिखने की जरूरत महसूस करने वाले रामविलास शर्मा को क्या स्त्री-मुक्ति के स्वप्न बेचैन करते हैं. जिन महाकाव्यों, रामायण और महाभारत को भारतीय साहित्य के आदि स्रोत के रूप में वह देखते हैं ,उनमें स्त्री-पात्र और प्रश्नों की निर्णायक भूमिका से टकराने और वर्तमान में स्त्री-मुक्ति तथा अधिकारों की माँग के सामूहिक स्वरों के बीच कोई महत्वपूर्ण हस्तक्षेपकारी टिप्पणी वे करते हैं या उनके साहित्यिक मूल्य इसमें बाधा बनते हैं. व्यक्तिगत स्तर पर पारिवारिक आदर्श और स्त्री समानता को स्वीकार करने वाले मार्क्सवादी आलोचक स्त्री के स्वाधीन अस्तित्व के सवालों, समस्याओं को किस प्रकार देखते हैं यह जानना आज के संदर्भ में महत्वपूर्ण होगा.
एक मानववादी दर्शन होने के नाते मार्क्सवाद मूलतः स्वतंत्रता का दर्शन है, विवशता के खिलाफ मानव-मुक्ति का दर्शन. स्वतंत्रता के लिए उन परिस्थितियों का निराकरण करना बहुत जरूरी है जो व्यक्ति को अमानुषिक जीवन जीने को विवश करती है और इस प्रक्रिया में व्यक्ति के भीतर कुंठित यौन इच्छाओं, परायेपन, आत्मनिर्वासन आदि को जन्म देती है. पूंजीवादी समाज की मुख्य पहचान यही घुटन, संत्रस और कुंठा है, स्वतंत्रता नहीं. वैचारिक संदर्भों से जुड़कर स्वतंत्रता अपना अर्थ पाती हैं. जिन परिस्थितियों और नियमों के आगे हम विवश है, उनकी वैज्ञानिक तर्कसंगत जानकारी प्राप्त करके, उन्हें निश्चित उद्देश्यों की पूर्ति का साधन बना सके. वैज्ञानिक ज्ञान की सहायता से हम विवशता से मुक्त होकर स्वतंत्रता का साक्षात्कार कर सकते हैं. यह बात बाह्य प्रकृति और आंतरिक प्रकृति दोनों पर लागू होती है.
स्वतंत्रता
का यह प्रश्न एक ओर ऐतिहासिक दृष्टि से सृजित मानवीय संभावनाओं की
ओर ले जाने वाले अस्मितामूलक विमर्शों की भूमि तैयार करता है दूसरी ओर सृजनशीलता
और स्वतंत्रता की मानवीय क्षमता के अभाव में आत्मनिर्वासन की स्थिति को जन्म भी
देता है. 50-60 के दशक
में हिन्दी साहित्य में जिस प्रयोगवादी, अस्तित्ववादी प्रवृत्ति की झलक दिखाई देती है वह
दरअसल स्वतंत्रता और सृजनशीलता की इसी मानवीय क्षमता के अभाव का परिणाम है. डॉ॰
रामविलास शर्मा की आलोचना में
स्वतंत्रता को तो मूल्य के रूप में खोजा-देखा जा सकता है लेकिन सीधे-सीधे वहाँ
स्त्री-विमर्श के सवालों की खोज ठीक उसी तरह का निरर्थक श्रम होगा, जैसे
कलावादी आलोचकों में हिन्दी जाति के सांस्कृतिक इतिहास को खोजना और उनसे जनवादी
मूल्यों की मांग करना. यह
सवाल सीधे-सीधे एक बहुत बड़े
वैचारिक मतभेद से टकराते हुए लौट आता अगर मार्क्सवाद जीवन और कला के मूल्यों को अलग- स्वतंत्रता
का यह प्रश्न एक ओर ऐतिहासिक दृष्टि से सृजित मानवीय संभावनाओं की
ओर ले जाने वाले अस्मितामूलक विमर्शों की भूमि तैयार करता है दूसरी ओर सृजनशीलता
और स्वतंत्रता की मानवीय क्षमता के अभाव में आत्मनिर्वासन की स्थिति को जन्म भी
देता है. 50-60 के दशक
में हिन्दी साहित्य में जिस प्रयोगवादी, अस्तित्ववादी प्रवृत्ति की झलक दिखाई देती है वह
दरअसल स्वतंत्रता और सृजनशीलता की इसी मानवीय क्षमता के अभाव का परिणाम है. डॉ॰
रामविलास शर्मा की आलोचना में
स्वतंत्रता को तो मूल्य के रूप में खोजा-देखा जा सकता है लेकिन सीधे-सीधे वहाँ
स्त्री-विमर्श के सवालों की खोज ठीक उसी तरह का निरर्थक श्रम होगा, जैसे
कलावादी आलोचकों में हिन्दी जाति के सांस्कृतिक इतिहास को खोजना और उनसे जनवादी
मूल्यों की मांग करना. यह
सवाल सीधे-सीधे एक बहुत बड़े
वैचारिक मतभेद से टकराते हुए लौट आता अगर मार्क्सवाद जीवन और कला के मूल्यों को अलग-अलग मानते हुए उसके सामाजिक सरोकारों की अवहेलना करता. संस्कृति, परम्परा
और समाज के कई अहम सवालों के साथ स्त्री संबंधी प्रश्न भी डॉ॰ रामविलास शर्मा की
आलोचना में ऐतिहासिक परम्परा के भीतर ही जन्म लेते हैं. वे बराबर इस बात पर बल
देते हें कि परम्परा में जो उपयोगी और सार्थक है, उसे भी बिना मूल्यांकन के
न अपनाना चाहिए. इस तरह वे ऐतिहासिक भौतिकवाद की वैज्ञानिक प्रणाली से समाज में
व्यापक परिवर्तन की ओर ध्यान केन्द्रित करते हैं, जिनमें स्त्री की स्थिति
पर विचार भी महत्त्वपूर्ण और उल्लेखनीय है. परम्परा का उत्तराधिकारी होने के कारण
वे उन मूल्यों के स्वीकार को प्रमुखता से रेखांकित करते हैं जिनमें समस्त मानव
समुदाय को एक जाति के रूप में संगठित करने की क्षमता हो. इतिहास और संस्कृति के
आधार पर निर्मित यह अस्मिता बोध ही उनके आलोचना कर्म का लक्ष्य है. अस्मिता-बोध का
यह प्रश्न उनके यहाँ वर्ग चेतना से जुड़ा है जो पचास-साठ के दशक में पश्चिमी
आधुनिकतावाद के प्रभाव से आए, महायुद्धों
की विभीषिका में जन्मे विधवस्त जीवन, फासीवाद और उपभोक्तावादी संस्कृति के
अस्तित्ववादी रूप से एकदम जुदा है. प्रगतिवाद की प्रतिक्रियास्वरूप जन्मे
प्रयोगवाद की आधारभूमि भी यही आधुनिकतावाद है जिसमें मूल स्वर निराशा, अवसाद, घुटन, यौन
कुंठाएँ और उपभोक्तावादी-समझौतावादी प्रवृत्ति हैं.
प्रयोगवाद में दर्शन और ठोस वैचारिक भूमि का अभाव था. प्रयोग पर बल देने के कारण ये रचनाकार अपने ढंग से व्यक्तिगत प्रयोगशीलता और वैचारिक शून्यता की ओर बह निकलते हैं. जिसका परिणाम अंततः आत्मग्रस्तता के रूप में दिखाई देता है. विचारधारा के स्थान पर रहस्यवाद, दर्शन और अस्तित्व की पहचान बन जाता है. इसके विपरीत रामविलास शर्मा 50-60 के दशक में अपनी ठोस वैचारिक भूमि पर खड़े रहकर साहित्यिक समीक्षा से भाषा, इतिहास और संस्कृति के सवालों की ओर बढ़ जाते हैं. इस यात्र में जो सबसे रक्षणीय है, वह है भारत की सांस्कृतिक परम्परा और जीवन से जूझकर विकसित होती सामूहिकता की भावना. एक ओर जहाँ प्रयोगवादी आधुनिकतावादी कला की सामाजिक प्रासंगिकता का अस्वीकार कर समाज से व्यक्ति के रूप में भी विच्छिन्न होते जाते हैं वहीं रामविलास शर्मा कला के अपेक्षाकृत स्थायी मूल्यों की खोज करते हैं. उन्होंने लिखा, ‘‘साहित्य मनुष्य के सम्पूर्ण जीवन से सम्बद्ध है. आर्थिक जीवन के अलावा मनुष्य एक प्राणी के रूप में भी अपना जीवन बिताता है. साहित्य में उसकी बहुत सी आदिम भावनाएँ प्रतिफलित होती है जो उसे प्राणीमात्र से जोड़ती है. इस बात को बार-बार कहने में कोई हानि नहीं है कि साहित्य विचारधारा मात्र नहीं है. उसमें मनुष्य का इन्द्रिय बोध, उसकी भावनाएँ, आन्तरिक प्रेरणाएँ भी व्यंजित होती है. साहित्य का यह रूप अपेक्षाकृत अधिक स्थायी होता है.’’ (परम्परा का मूल्याँकन, पृ0-11)
विचारधारा वृहत्त साहित्यिक सामाजिक मूल्यों का निर्माण तो करती है लेकिन मात्र वैज्ञानिक विश्लेषण ही प्रस्तुत करना उसकी सार्थकता नहीं है. मनुष्य की आंतरिक प्रकृति के अनुकूलन का कार्य भी वह कुशलता से करती है. इन्द्रियबोध और आंतरिक प्रेरणा के अभाव में एक तरह की यांत्रिकता, वैचारिकता पर दबाव बनाने लगती है. यही कारण है कि किसी विचारधारा में मनुष्यों और सामाजिक सांस्कृतिक अभिव्यक्तियों के द्वन्द्वात्मक सम्बन्धों को ऐतिहासिक संदर्भों में समझने में असंगतियाँ और दोष दिखाई देने लगते हैं. अज्ञेय ने ‘भारतीय परम्परा-संघर्ष का उपयोग’ शीर्षक से एक निबंध लिखा, जिसमें उन्होंने कहा-‘‘वास्तव में कला की कोई सामाजिक प्रासंगिकता नहीं है क्योंकि इसका सच अपने आपमें है, स्वायत्त और आत्मतुष्ट है और जिसकी अहमियत उसके निज के अस्तित्व की शर्तों पर ही आंकी जा सकती है.’’ (नित्यानंद तिवारी, सृजनशीलता का संकट, पृ0-57)
एक ओर अज्ञेय कला भी सामाजिक प्रासंगिकता का अस्वीकार कर रहे हैं दूसरी ओर रामविलास शर्मा कला को मानवीय जीवन के अपेक्षाकृत स्थायी सामाजिक मूल्य के रूप में देखते हैं. तो यह बड़ा वैचारिक अंतर अस्तित्ववादी प्रश्नों से भी बड़े अलग-अलग रूपों में टकराता है. 1950-60 की साहित्यिक अभिव्यक्ति में व्यक्ति-समाज के संबंध ही नहीं, व्यक्ति के आपसी संबंध भी अभिव्यक्ति के संकटों के रूप में उठ खड़े होते हैं. इन्हीं आवाजों में स्त्री-मुक्ति के स्वर भी सुनाई देने लगते हैं. ऐसा नहीं है कि स्त्री की दशा और पुरुष द्वारा एक विशेष सामाजिक व्यवस्था के भीतर सदियों से हो रहे शोषण का विरोध साहित्य के फलक पर पहली बार हो रहा था. लेकिन यह पहली बार हो रहा था कि एक व्यक्ति के रूप में अपने अस्तित्व के प्रश्नों को लेकर स्त्री उठ खड़ी होती है. सामाजिक संबंधों के बीच स्त्री-अस्मिता के प्रश्नों पर तो बात रामविलास शर्मा की आलोचना में आरम्भ से ही मिलती है लेकिन एक अस्तित्ववादी संघर्ष के रूप में वह उनके चिंतन में नहीं आती. रामविलास शर्मा की इतिहास-दृष्टि, स्त्री को उसी तरह उतना ही सामाजिक व्यवस्था का शिकार मानती हैं जितना, जिस तरह श्रमिक, दलित को. सुसंगठित रूप में स्त्री अधिकारों की मांग उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध से ही दिखने लगती है. उससे पहले, बहुत पहले पंडिता रमाबाई सन् 1870 के नागरिक समाज में एक बड़े विस्फोट के रूप में मौजूद रही. ‘हिंदू स्त्री का जीवन’पुस्तक की भूमिका में अनुवादक शंभु जोशी यह प्रश्न उठाते हैं कि आखिर क्यों पंडिता रमाबाई इतिहासकारों की नजर में नहीं आ पाईं? इसका कारण यह हो सकता है कि इतिहास लिखने का कार्य उस दृष्टिकोण से हो सकता है कि जिसमें स्त्रियाँ एक सक्रिय कार्यकर्ता के रूप में कहीं भी नहीं थी.(हिंदू स्त्री का जीवन, पं॰ रमाबाई, अनु॰ शंभू जोशी, सम्वाद प्रकाशन, मेरठ, पहला संस्करण-2006)
एक ओर हिंदी साहित्य में कलावादी, प्रयोगवादी विचारकों का धड़ा सक्रिय हो रहा था तो दूसरी ओर उसी समय रामविलास शर्मा भाषा और समाज के सवालों से टकराते हुए, उस क्षेत्र में व्यापक स्तर पर शोध कार्य करने का विचार कर चुके थे. इस समय वे अपने आलोचक जीवन के शिखर पर थे. निराला की साहित्य साधना के लिए उन्हें अकादमी पुरस्कार मिल चुका था. द्विवेदी युगीन हिंदी नवजागरण पर एक गम्भीर पुस्तक अभी-अभी लिखी ही थी. इस समय तक हिन्दी जाति और नवजागरण की आधार भूमि के रूप में भाषा की भूमिका वे पहचान चुके थे. इसीलिए इस क्षेत्र में गंभीर शोध कार्य करना चाहते थे. ऐसे शोध कार्य का अर्थ था साहित्यिक समीक्षा को तिलांजलि. लगभग 10 वर्षों के शोध के बाद ‘भारत के प्राचीन भाषा परिवार और हिन्दी भाषा’ के रूप में तेरह सौ पृष्ठों का ग्रंथ तीन खंडों में (1979-81 में) प्रकाशित हुआ. डॉ॰ शर्मा भाषा और साहित्य के माध्यम से समाज निर्माण की व्यापक समस्या का हल करना चाहते थे. इस परिप्रेक्ष्य से जुड़कर सांस्कृतिक इतिहास और राष्ट्रीय अस्मिता के प्रश्नों को भी हल करने के उपाय ढूंढे जा सकते हैं. वे कहते हैं.‘‘शोषण पर आधारित वर्ग विभक्त समाज में स्त्री-पुरुष दोनों का शोषण होता है और उसको बदलने के लिए सामाजिक सम्बन्धों को बदलना जरूरी है.’’ (परंपरा का मूल्यांकन, पृ॰-31) अब तक रामविलास शर्मा की आलोचना और इतिहास-दृष्टि को आधार मानकर जिन भी पक्षों पर विचार-विमर्श हुए उनमें स्त्री संदर्भों और समस्याओं पर सबसे कम विचार हुआ. इस संदर्भ में कुछ ही लेख प्राप्त हुए. पहला लेख, फरवरी 2011 में ‘साम्य’ पत्रिका के अंक-26 में जगदीश्वर चतुर्वेदी द्वारा लिखित है, जिसका शीर्षक है ‘रामविलास शर्मा की इतिहास दृष्टि के कुछ पहलू’. इस लेख में रामविलास शर्मा की इतिहास-दृष्टि के नियामक तत्वों की चर्चा के साथ साहित्येतिहास सम्बन्धी उनकी अवधारणाओं की गंभीर, विशद चर्चा की गई है. लेख के अंतिम हिस्से में ‘स्त्री विमर्श और स्त्री संदर्भ’ उपशीर्षक के अन्तर्गत रामविलास शर्मा के लेखन के उन हिस्सों पर संक्षेप में चर्चा की गई है जो स्त्री-सम्बन्धी विवेचन से जुड़े हैं. यह विश्लेषण मोटेतौर पर भारतीय समाज में महिलाओं की स्थिति और वैचारिकी के(वामपंथी विचारधारा के) तहत उसका ऐतिहासिक क्रम में दर्शाता है.
एक ओर हिंदी साहित्य में कलावादी, प्रयोगवादी विचारकों का धड़ा सक्रिय हो रहा था तो दूसरी ओर उसी समय रामविलास शर्मा भाषा और समाज के सवालों से टकराते हुए, उस क्षेत्र में व्यापक स्तर पर शोध कार्य करने का विचार कर चुके थे. इस समय वे अपने आलोचक जीवन के शिखर पर थे. निराला की साहित्य साधना के लिए उन्हें अकादमी पुरस्कार मिल चुका था. द्विवेदी युगीन हिंदी नवजागरण पर एक गम्भीर पुस्तक अभी-अभी लिखी ही थी. इस समय तक हिन्दी जाति और नवजागरण की आधार भूमि के रूप में भाषा की भूमिका वे पहचान चुके थे. इसीलिए इस क्षेत्र में गंभीर शोध कार्य करना चाहते थे. ऐसे शोध कार्य का अर्थ था साहित्यिक समीक्षा को तिलांजलि. लगभग 10 वर्षों के शोध के बाद ‘भारत के प्राचीन भाषा परिवार और हिन्दी भाषा’ के रूप में तेरह सौ पृष्ठों का ग्रंथ तीन खंडों में (1979-81 में) प्रकाशित हुआ. डॉ॰ शर्मा भाषा और साहित्य के माध्यम से समाज निर्माण की व्यापक समस्या का हल करना चाहते थे. इस परिप्रेक्ष्य से जुड़कर सांस्कृतिक इतिहास और राष्ट्रीय अस्मिता के प्रश्नों को भी हल करने के उपाय ढूंढे जा सकते हैं. वे कहते हैं.‘‘शोषण पर आधारित वर्ग विभक्त समाज में स्त्री-पुरुष दोनों का शोषण होता है और उसको बदलने के लिए सामाजिक सम्बन्धों को बदलना जरूरी है.’’ (परंपरा का मूल्यांकन, पृ॰-31) अब तक रामविलास शर्मा की आलोचना और इतिहास-दृष्टि को आधार मानकर जिन भी पक्षों पर विचार-विमर्श हुए उनमें स्त्री संदर्भों और समस्याओं पर सबसे कम विचार हुआ. इस संदर्भ में कुछ ही लेख प्राप्त हुए. पहला लेख, फरवरी 2011 में ‘साम्य’ पत्रिका के अंक-26 में जगदीश्वर चतुर्वेदी द्वारा लिखित है, जिसका शीर्षक है ‘रामविलास शर्मा की इतिहास दृष्टि के कुछ पहलू’. इस लेख में रामविलास शर्मा की इतिहास-दृष्टि के नियामक तत्वों की चर्चा के साथ साहित्येतिहास सम्बन्धी उनकी अवधारणाओं की गंभीर, विशद चर्चा की गई है. लेख के अंतिम हिस्से में ‘स्त्री विमर्श और स्त्री संदर्भ’ उपशीर्षक के अन्तर्गत रामविलास शर्मा के लेखन के उन हिस्सों पर संक्षेप में चर्चा की गई है जो स्त्री-सम्बन्धी विवेचन से जुड़े हैं. यह विश्लेषण मोटेतौर पर भारतीय समाज में महिलाओं की स्थिति और वैचारिकी के(वामपंथी विचारधारा के) तहत उसका ऐतिहासिक क्रम में दर्शाता है.
जगदीश्वर चतुर्वेदी स्वयं भी मार्क्सवादी आलोचक हैं इसलिए वर्ग-संघर्ष और उत्पादन सम्बन्धों की पृष्ठभूमि में ही वह भी इन संदर्भों की पुनर्व्याख्या करते हैं. उन्होंने लेख में यह स्थापित किया कि‘‘रामविलास शर्मा ने स्त्री के सवाल को उत्पादन संबंधों के परिप्रेक्ष्य में रखकर विश्लेषित किया, साथ ही स्त्री की आज की स्थिति को आधुनिक भारत के परिप्रेक्ष्य में रखकर विश्लेषित किया, स्त्री की पराधीनता को देश की पराधीनता से जोड़कर देखा. स्त्री की पराधीनता का मुख्य स्रोत आर्थिक पराधीनता को माना.’’(साम्य-26, प्रलेस, अम्बिकापुर, छत्तीसगढ़, फरवरी-2011, पृ॰-71) रामविलास शर्मा स्वयं बदलते हुए सामाजिक परिवेश और विभिन्न क्रांतियों के कारण राजनीतिक-सांस्कृतिक बदलावों के संदर्भ में नारी की परिवर्तित स्थिति पर विचार करने की आवश्यकता महसूस करते रहे थे. (निराला की साहित्य साधना, खंड-2, पृ॰-41) दूसरा और महत्त्वपूर्ण लेख ‘स्त्री-दृष्टि और रामविलास शर्मा’ शीर्षक से डॉ0 अर्चना वर्मा का, प्रदीप सक्सेना के संपादन में तैयार पुस्तक ‘रामविलास शर्मा का ऐतिहासिक योगदान’ में मिलता है. यह लेख इसलिए भी अधिक महत्त्वपूर्ण है क्योंकि जिस परिवर्तन और क्रांति का जिक्र रामविलास शर्मा बदलते हुए सामाजिक परिप्रेक्ष्य में कर रहे हैं, अर्चना वर्मा स्वयं उसकी सशक्त हस्ताक्षर हैं. स्त्री-मुक्ति के प्रश्नों का उन्होंने स्वयं एक स्त्री विमर्शकार के रूप में उठाया और सुलझाया है. दूसरा कारण जो इस लेख को महत्त्वपूर्ण बनाता है वह है वैचारिक भिन्न अर्चना वर्मा स्त्री-मुक्ति के प्रश्नों को ‘पुरुष-मात्र के विरुद्ध नहीं, समाज की पितृसत्तात्मक संरचना के विरुद्ध’ देखती हैं. उनका मत है कि स्त्री-पुरुष दोनों ही उसकी उपज है और अपने-अपने कठघरों के बंदी रहे हैं. बेशक यह सामाजिक समस्या ही है, स्त्री-पुरुष का घरेलू झगड़ा नहीं. (रामविलास शर्मा का ऐतिहासिक योगदान, सपा॰ प्रदीप सक्सेना, अनुराग प्रकाशन, दिल्ली प्र॰ सं॰-2013, पृ॰-706) अपने लेख में वे साहित्य संसार और आलोचना जगत में डॉ॰ रामविलास शर्मा को पुराने क्लासिकल वाम के प्रमुख वक्ता के रूप में देख रही हैं, -‘‘जिस नये वाम के विविधवर्णी, बहुमुखी, बहुजातीय, उत्पीड़न विरोधी, भिन्नतापोषी, उदारतावादी वैचारिक समुच्चय से स्त्री ने ‘अपनी दृष्टि’ पाई और ‘अपना विमर्श’ रचा पुराने क्लासिकल वाम से उसका रिश्ता अगर विरोध का नहीं तो प्रगाढ़ असहमति का अवश्य है.’’ (वही, पृ0 692) प्रगाढ़ असहमतियों को दर्ज कराने हेतु जिन लिखित संदर्भों का सहारा इस लेख में लिया गया है वह अधिकांशतः ‘घर की बात’ से लिए गए हैं. कहा जा सकता है कि वे संदर्भ नितांत व्यक्तिगत व्यवहार का हिस्सा रहे हैं. उन्होंने लिखा‘‘घर की बात के साक्ष्य के आधार पर देखा जा सकता है कि ब्रह्मचर्य, एकनिष्ठ, दाम्पत्य, सदाचार, कथनी-करनी के अभेद आदर्श का वास्तविक व्यवहार, परिवार में बेटे-बेटी-बहू के समता का संस्कार, डॉ॰ शर्मा के व्यक्तित्व में आचरण की शुद्धता का परम्परागत और लगभग आर्य समाजी आदर्श बोलता है.’’ (वही, पृ0-699)
वे एक वामपंथी आलोचक की दृष्टि से भिन्न वैचारिक आलोचना मूल्यों का साक्ष्य प्रस्तुत कर डॉ॰ शर्मा को सिरे से खारिज नहीं करतीं बल्कि उनकी सैद्धान्तिक सीमाओं की ओर इस महत्त्वपूर्ण और छूटे हुए विषय के संदर्भ में ध्यान ले जाती हैं और लिखती हैं.‘‘उनकी वैचारिक प्रतिबद्धता भी उनके एकनिष्ठ व्यक्तित्व की ऐसी ही प्रतिश्रुति है. ऐसी आदर्शनिष्ठा और वैचारिक आस्था अपने आपमें एक निहित पवित्रता से मूल्य-मंडित हो जाती है. तथ्य सम्मत वैज्ञानिक प्रामाणिकता, बुद्धि सम्मत तर्कसंगति और यथार्थनिष्ठा के बावजूद अपने स्वभाव में वह लगभग भक्ति जैसी निश्शंकता के समकक्ष होती है. उनकी वैचारिक प्रतिबद्धता उन्हें परिवर्तन और गतिशीलता में विश्वास तो देती है लेकिन.’’ (वही, पृ0-699) निश्चय ही इस लेकिन के साथ तमाम वैचारिक साहित्यिक असहमतियों की तार्किक विवेचना संलग्न है.ऐेतिहासिक प्रक्रिया में कोई समस्या उभरती है तो उसके हल की सम्भावना भी कहीं उसमें निहित होती है. मार्क्सवाद समानता की धारणा के परिप्रेक्ष्य में स्त्री-पुरुष संबंधों पर विचार करता है और दोनों को समाज के महत्त्वपूर्ण अंग के रूप में देखता है. वहाँ वर्ग-भेद, स्त्री-पुरुष-भेद नहीं है. वर्ग-मुक्ति समाज की कल्पना, दोनों (स्त्री-पुरुष) के लिए शोषण-मुक्त (व्यक्तिगत-सामाजिक स्तर पर) समाज की कल्पना है. लेकिन सामाजिक बदलाव की प्रक्रिया से लिंगवादी प्रभुत्व का गहरा संबंध है. मार्क्सवादी स्त्रीविमर्श की लेखिका ‘मिशेल बरेट’ ने लिंग की धारणा के भीतर स्त्री-परम्परा को समाज व्यवस्था से जोड़कर देखा. रामविलास शर्मा ने भी ‘स्त्रीवादी मार्क्सवादियों की तरह लिंग भेद को ऐतिहासिक प्रक्रिया में रखकर विश्लेषित किया है.’ (साम्य-26, पृ0-74)
रामविलास शर्मा ने चाहे भाषा, समाज, इतिहास, संस्कृति या साहित्य के किसी भी पक्ष पर विचार किया हो, उसको स्त्री संदर्भ किसी न किसी रूप में जुड़ते रहे. भले ही उन्होंने स्त्री संबंधी प्रश्नों पर अलग से, विस्तार से ना लिखा हो लेकिन यथोचित यथास्थान जिस भी विषय पर लिखते रहे उसमें इन प्रश्नों पर ठहर का विचार किया. ‘घर की बात’ कैसे व्यक्तिगत प्रसंग रहे हों या ‘निराला की साहित्य साधना’ जैसा वृहत्त साहित्यिक संदर्भ. ऋग्वेद के मूल्यांकन और ‘भारतीय संस्कृति और हिंदी प्रदेश’ के पहले खंड के पहले अध्याय ‘श्रम और संस्कृति’ में वे ‘गृह निर्माण, परिवार और नारी’ विषय पर लिखते हैं. श्रम और संस्कृति की परम्परा में सबसे पहला ध्यान उनका मातृसत्ता से पितृसत्ता के हस्तांतरण की ओर ही जाता है. इसी खंड में वे योग और धर्म द्वारा स्त्री को माया के रूप में प्रतिष्ठित करने के षड्यंत्रों की पड़ताल करते हैं. उन्होंने ‘भिक्षुनारी और संसार’ शीर्षक के अंतर्गत योग, वैराग्य और गौतम बुद्ध के सामंती समाज की स्त्री के प्रति सोच को स्पष्ट करते हुए कहा- ‘‘बुद्ध की सबसे बड़ी समस्या, रोग, मृत्यु, दुख नहीं थी, उनकी सबसे बड़ी समस्या थी काम-वासना. स्त्री के प्रतिबद्ध का दृष्टिकोण सामंती व्यवस्था के बैरागियों जैसा है. उसकी तरफ देखो भी मत, हमेशा उससे दूर रहो.’’ (भारतीय संस्कृति और हिंदी प्रदेश, प्रथम भाग, पृ0-575)
बुद्ध की दृष्टि में नारी पुरुष से हीन है इसलिए पुरुष साधना द्वारा जो कुछ पा सकता है उसे नारी के लिए प्राप्त करना असंभव है. डॉ॰ रामविलास शर्मा सामंती समाज की इस व्यवस्था पर विस्तार से लिखते हैं. वे योग-धर्म और पुरोहितों की बनाई इस स्त्री विरोधी और वर्ण समर्थक व्यवस्था के विरोध में लिखते हैं लेकिन वहाँ लिखते हैं जहाँ लिखा जा सकता था.
जब तुलसीदास को एक बड़ा बुद्धिजीवी वर्ग नारी-विरोधी और वर्ण-समर्थक घोषित करने लगता है तो वह तार्किक असहमतियों से यह सिद्ध करते हैं कि किस प्रकार एक सामंती व्यवस्था में रहते हुए वे वर्णजाति आदि को चुनौती देते हैं और नारी समाज की समस्याओं का हल धर्म और कर्मकाण्ड के प्रभुत्व पर टिकी इस सामंती व्यवस्था के खंडित हो जाने में देखते हैं. उन्होंने लिखा ‘‘हिन्दी में अनेक ऐसे पुरातनपंथी लेखक हैं जो योग के उद्धार में भारतीय संस्कृति का प्रसार देखते हैं. उन्हें याद रखना चाहिए कि कुण्डलिनी जगाने की कितनी ही कोशिशें करें, यह अर्धसामंती समाज व्यवस्था अब कुछ ही दिनों की मेहमान है.’’(परम्परा का मूल्यांकन, पृ0-83)
गण समाजों का उल्लेख करते हुए उन्होंने ऐसे गण समाजों का विशेष उल्लेख किया जिनमें नारी की प्रधानता थी. गांधी, अंबेडकर, लोहिया जैसे आधुनिक राजनीति के धुर विशेष पुरुषों पर लिखते हुए भी वे ‘वर्णविहीन समाज में नारी’ विषय पर लिखते हैं और स्त्रियों की स्वाधीनता पर जोर देते हैं.‘‘जहाँ ये आदिम साम्यवादी समाज थे, वहाँ स्त्रियाँ स्वाधीन थीं और जितनी दीर्घ अवधि इन साम्यवादी समाजों की थी उतनी ही अवधि स्त्रियों की स्वाधीनता की भी थी.’’ (गांधी, अंबेडकर, लोहिया और भारतीय इतिहास की समस्याएँ, पृ॰-650) इसी प्रसंग में वह लिखते हैं कि ‘‘आदि पर्व में उद्दालक की एक कथा है. इस कथा के अनुसार एक पुरुष-एक स्त्री की विवाह-प्रथा बल पूर्वक स्थापित की गई.’’ (वही, पृ0-650)
उनके स्त्री संबंधी लेखन को पढ़े बिना यह कहना आसान है कि ‘‘डॉ॰ रामविलास शर्मा के संस्कार और विचार का संयुक्त आदर्श, दाम्पत्य को ही प्रेम का वैध पर्याप्त मानता है. द्विवेदीयुगीन नैतिकतावाद इस संदर्भ में उनका आदर्श है. साहित्य में भी वे इसी प्रेम का चित्रण होते हुए देखना चाहते हैं.’’ (रामविालस शर्मा का ऐतिहास योगदान, संपा0-प्रदीप सक्सेना, पृ0-703 यदि यह पूर्णतः सत्य होता तो वे ऐसे उल्लेख और प्रसंगों को कभी नहीं छूते जहाँ इस निष्कर्ष से सामना करना पड़ा कि ‘‘एक स्त्री -एक पुरुष की विवाह-प्रथा चालू होने पर भी स्त्री की स्वतंत्रता पूरी तरह समाप्त नहीं हुई. श्वेतकेतु ने विवाह का नियम बनाया. उसके बहुत दिन बाद तक भी स्त्रियां अपनी सापेक्ष स्वाधीनता का उपयोग करती रहीं.’’(गांधी, अंबेडकर, लोहिया और भारतीय इतिहास की समस्याएँ, पृ॰-651)
वे ऐसे तमाम उदाहरण जुटाते हैं जहाँ सामंती समाज के पहले और उसके खत्म होने के बाद स्त्रियों के लिए सापेक्ष स्वाधीनता, समानता का व्यवहार संभव हो. उन्होंने लिखा वर्णविहीन समाज में ‘‘स्त्रियाँ शस्त्र धारण करती थीं. युद्ध करती थीं, शास्त्र चर्चा में भाग लेती थीं. स्वयं शास्त्रों का निर्माण करती थीं. इसके उदाहरण वैदिक परंपरा में है.’’(वही,पृ॰-651) वे इतिहासकारों द्वारा जुटाए उन साक्ष्यों को भी अपने लेखन में शामिल करते हैं जो स्त्री स्वाधीनता के प्रमाण और आम जन के बीच उसकी समझ को विकसित करने में सहायक हो सके. ‘‘महाभारत में स्त्रियों की यौन-स्वच्छंदता के बारे में जो बातें कही गई हैं, वे बहुत कुछ भारत की जनजातियों में प्रचलित रही हैं. डी॰एन॰ मजूमदार कहते हैं. जनजातीय समाज में विवाह पूर्व यौन स्वच्छंदता स्वीकार की जाती हैं.’’ (वही, पृ0-652) सामंती समाज में पुरोहिता, शासकों यानि धर्म और राजनीति के ठेकेदारों ने जो व्यवहार अलग-अलग वर्णों के लोगों के साथ किया था वही व्यवहार स्त्री के साथ भी किया.
डॉ॰ रामविलास शर्मा इतिहास और संस्कृति के इस पक्ष पर लगातार लिखते रहे हैं. उनकी इतिहास-दृष्टि स्त्रियों के लिए समान अधिकारों वाली सामाजिक व्यवस्था के पक्ष में बराबर प्रमाण जुटाती रही और आज के समय में उसे पाने का मार्ग प्रशस्त करती रही. ‘‘वर्तमान अर्द्धसामंती व्यवस्था में मनुष्य की प्रेम और सौंदर्य की कोमल भावनाएँ बुरी तरह कुचली जाती हैं. विवाह का आधार है सम्पत्ति और कुलीनता, प्रेम करने के लिए प्रेयसी अलग होती है बच्चे पैदा करने के लिए पत्नी अलग. सामंती बन्धनों के खत्म होने पर सौंदर्य और प्रेम की भावनाएँ अपने सहज रूप में पल्लवित होंगी और नारी, कवियों की नायिका मात्र न रह जायेगी. वह श्रम करने वाली, समान अधिकारवाली नागरिक भी होगी.’’ (परम्परा का मूल्यांकन, पृ0-82) ‘समान अधिकारवाली नागरिक’ के जिस रूप में वह स्त्री समाज का भविष्य देखते हैं क्या वह स्त्री का सबसे प्रबल समर्थन नहीं करता. व्यक्तित्व की जिस सार्थकता और सारतत्व की माँग स्त्री-विमर्श की लेखिकाओं ने उठाई है उसमें राजनीतिक रूप से सशक्त (नागरिक होना, राजनीतिक मौलिक अधिकारों से लैस) होना ही तो है.
सौंदर्य और प्रेम की सहज भावनाएं इस समानता के अधिकार वाले संबंध से ही पल्लवित होंगी.गैर परम्परागत और अति-आधुनिक होते हुए जिस वातावरण का निर्माण अस्मितामूलक विमर्श करते हैं, उसमें विद्रोह और क्रांतिकारी अंतर्वस्तु कम और एक ठोस परिस्थिति में संबंधों की टकराहट से निर्मित यातना और अकेलापन अधिक है. प्रेम जीवन की सारवस्तु है, वह स्वाधीनता से पोषित होता है और पारस्परिकता में निखरता है. हिंदी के मार्क्सवादी आलोचक और स्त्रीवादी आलोचक दोनों रामविलास शर्मा की स्त्री-संबंधी वैचारिकता को नहीं समझ पाए हैं.
महादेवी के कवि मन को जब सारा साहित्यिक समाज ‘मैं नीर भरी दुूःख की बदली’ के रूप में देख रहा था तब डॉ॰ रामविलास शर्मा लिखते हैं, ‘‘महादेवी जी का और उनकी कविता का परिचय केवल ‘नीर भरी दुख भी दुख की बदली’ या ‘एकाकिनी बरसात’ कहकर नहीं दिया जा सकता. उन्हीं के शब्दों में उनका परिचय देना हो तो मैं यह पंक्ति उद्धत करूँगा. ‘रात के उर में दिवस की चाह का शर हूँ’.’’(परंपरा का मूल्यांकन, पृ॰-182)
मानवीय प्रेम, मानवीय-सौंदर्य स्त्री-पुरुष के प्राकृतिक सहज-संबंध के विकास में महत्त्वपूर्ण है. जिस तरह सामंती-व्यवस्था के पहरेदारों, पुराहितों ने सदियों तक उस व्यवस्था को कायम रखा कला कला के लिए या सामाजिक उत्तरदायित्व से मुक्त होकर प्रयोग करने की स्वाधीनता की गुहार मचानेवाले साहित्यकारों ने भी उसकी पराधीनता को पीड़ावाद का रूप दिया. ‘‘ये लोग फॉर्म की रट लगाकर साहित्य में उच्च कोटि के विचारों के महत्त्व को अस्वीकारते हैं. इनकी मति सीप के समान नहीं है जिससे मोती निकले, वह घोंघे की तरह है जो सेक्स के लिए मुँह फैलाकर अपने अंदर सिमट जाता है. जन-संस्कृति, ग्राम-गीतों, प्राचीन साहित्य से इनकी सरस्वती नहीं जागृत होती, न विदेश के जनवादी लेखक इन्हें अच्छे लगते हैं, इनकी प्रेरणा का स्रोत एजरा पाउंड, टी॰एस॰ इलियट, स्पेण्डर आदि लेखक हैं जो जन शिविर के विरोधी हैं.’’ (वही, पृ0-87)
डॉ॰ रामविलास शर्मा की विशेषता यह है कि वे ऐतिहासिक परम्परा से अलग होकर किसी बड़े सामाजिक बदलाव को सहजता में विकसित होता नहीं देखते, साथ ही इस बात पर भी जोर देते हैं कि परंपरा में जो उपयोगी और सार्थक है, उसका मूल्यांकन किए बिना नहीं अपनाना चाहिए.वह जानते हैं ‘‘स्त्री की परतंत्रता का कारण सामंती सम्बंधों के अवशेष और समाज-संचालकों के सामंती संस्कार हैं. नारी की पराधीनता को यदि पीड़ावाद का रूप दे दिया जाए तो इससे सामंती बंधनों और सामंती संस्कारों की रक्षा होती है. नारी की दासता और परवशता के सहारे जिस आध्यात्मवाद की रचना हुई है वह ढह पड़े अगर नारी इन सामन्ती बंधनों को तोड़ने के लिए कटिबद्ध हो जाए.’’ (वही, पृ0-185)
रामविलास शर्मा जिस-जिस प्रसंग में भी स्त्री के संदर्भ में विचार करते हैं वह उनकी इतिहास दृष्टि का सबसे प्रासंगिक हिस्सा हो जाता है. इसलिए साम्राज्यवादी हितों और सामन्ती अवशेषों को समाप्त कर जातीय एकता की स्थापना करने की दृढ़ प्रतिज्ञा के साथ-साथ स्त्री की स्वाधीनता का प्रश्न भी वे भारतीय जनसाधारण की स्वाधीनता की समस्या के एक अंग के रूप में उनकी आलोचना में उपस्थित है.
जो साहित्यिक विचारक सेक्स में क्रांति की बात करते हैं वे दरअसल इस समस्या को और उलझाते हैं तथा सामंती हितों को पुष्ट करते हैं. ‘‘सामंती संबंधों की परिधि में पुरुष का एक अपना निहित स्वार्थ होता है. मजदूर वर्ग से बाहर अन्य वर्गों का पुरुष जिनमें नारी स्वतंत्र श्रमिक नहीं है सामंती साम्राज्यवादी बंधनों से पीडि़त होते हुए भी, स्वयं नारी का स्वामी बनकर उसके श्रम का फल आत्मसात कर लेता है.इसलिए ऐसे लेखक जो सामंतविरोधी सामाजिक सांस्कृतिक आंदोलनों से दूर हैं, स्वभावतः पीड़ा वाद के समर्थक बन जाते हैं.’’ (वही, पृ0-186)
सामंतवाद और साम्राज्यवाद के समान ध्येय हैं - धर्म और राजनीति के एकीकरण से जनता को पथभ्रष्ट करना. अब जब जमाना बदल रहा है उदार अर्थव्यवस्था में राजनीति और संस्कृति संकीर्ण हो रही है, नागरिक हितों से अधिक उपभोक्तावादी मानसिकता को प्रश्रय दिया जा रहा है ऐसे समय में साहित्य को भी उसकी परम्परा के संदर्भों से काटकर साम्प्रदायिक, सामंती परम्पराएं गढ़ी जा रही हों, तब रामविलास शर्मा जैसे आलोचक को बार-बार पढ़ा जाना और भी जरूरी हो जाता है.
सामंतवाद जितना कमजोर होगा, उन्मुक्त वातावरण में सांस्कृतिक सामाजिक विकास उतना ही जोर पकड़ता जाएगा. दलितवादियों, नारीवादियों और उत्तर आधुनिकतावादियों से उनका मतभेद संभवतः इसी कारण है कि वे पृथकतावादी दृष्टिकोण से नहीं, असमानताओं को अन्तःसूत्रित दृष्टि से देखते थे. जो लोग फॉर्म की बात करते हुए उनसे वैचारिक मतभेद रखते हैं वे प्रेम, सौंदर्य, जीवन और विद्रोह की उपस्थिति एक ही साथ एक ही जीवन में समझने की सामर्थ्य ही नहीं रखते. इसका कारण संभवतः ऐसी विचारधाराओं का प्रभाव है, जो सामन्तवाद और साम्राज्यवादी हितों से समझौता करना सिखाती है.
तारसप्तक के अनेक कवियों ने आरंभ में खुद को कम्युनिस्ट घोषित किया और अगले संस्करण में साम्यवाद से मोहभंग की घोषणा भी कर दी. वैचारिक दुर्बलता अकेलेपन और यातना का परिणाम साथ लेकर आई.व्यक्तिगत अस्मिता के संकटों से जूझते हुए बहुत से भूतपूर्व मार्क्सवादी, नई पीढ़ी के दलित, स्त्री और उत्तर आधुनिक चिंतकों के बीच डॉ॰ रामविलास शर्मा तब भी मार्क्सवादी बने रहे.
वे शेष बुद्धिजीवियों को भी द्वन्द्व से निकलने का एक ही मार्ग सुझाते हैं.‘भारत में सामन्ती अवशेषों और साम्राज्यवादी हितों को समाप्त करना.’ साथ ही स्त्री-मुक्ति और उसकी समस्याओं के निराकरण के संदर्भ को भी इस अभियान का हिस्सा बना लेना चाहते हैं और कहते हैं,‘‘भारतीय नारी सदियों की सामंतीदास्तान से तभी मुक्त हो सकेगी जब वह शेष जनता के साथ साम्राज्यवाद विरोधी, सामंतविरोधी स्वाधीनता आंदोलन में आगे बढ़कर हिस्सा लेगी.’’ (वही, पृ0-186)
----------------------------------------------------------------------------------------------------------------------- अपराजिता शर्मा
सहायक प्रोफ़ेसर, (हिंदी विभाग), मिरांडा हाउस, दिल्ली विश्वविद्यालय.
संपर्क: aparajitasharmamh@gmail.com
(साभार )
11 comments
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