बीर अपने समय में आधुनिक थे? यह कहने का फैशन-सा चल पड़ा है। इस कथन के पीछे जो विचार काम कर रहा है वह यह कि आधुनिकता कोई बहुत ही उम्दा और मानवीय मूल्य है जिसके बिना कोई भी मानवता का पक्षधर हो ही नहीं सकता। कबीर आधुनिक थे तो बु़द्ध और महावीर भी आधुनिक थे? इसमें कोई शक या गुंजाइश नहीं रहती है। इसके बरक्स कोई यह कहे कि इन्हें आधुनिक कहकर आप इनका अपमान कर रहे हैं तो वह प्रतिक्रियावादी घोषित कर दिया जायेगा। क्या हम कभी यह सवाल पूछते हैं कि कबीर, महावीर या बुद्ध इस बर्बर और अवमानवीकृत आधुनिकता का ठप्पा अपने ऊपर लगवाना भी चाहते हैं या नहीं? कबीर जैसा साधारण और सहज व्यक्ति आधुनिक बर्बरता और जटिल पूंजीवाद के दुष्चक्र में पिसते उपभोक्ता को देखकर भी यही कहता की ‘चलती चाकी देखकर दिया कबीरा रोए। दो पाटन के बीच में साबुत बचा न कोए’। दूसरा सवाल यह है कि क्या हम आधुनिक हैं? और क्या जैसे हम आधुनिक हैं? वैसे आधुनिक कबीर हो सकते थे? क्या उन्हें वैसा आधुनिक होना चाहिए था? आधुनिकता चाहे औपनिवेशक हो या देशज वह आधुनिकता ही रहेगी। क्या हम में देशज आधुनिकता का कोई लक्षण है? जिस आधुनिकता के अन्तर्विरोधों के कारण दो महायुद्धों की त्रासदी मानवता को झेलनी पड़ी हो, परमाणु बमों से हुई अनन्त पीड़ा को भोगना पड़ा हो? हजारों छोटे-मोटे युद्धों में करोड़ों इंसानों का रक्त बहा दिया गया हो, मानवता के अपमान और हृास की कहानी पूरी सदी में बिखरी पड़ी हो, मानवीय गौरव और गरिमा के अवमानना का महाकाव्य जिस विचारधारा ने लिखा हो? उस विचारधारा का ठप्पा कबीर जैसे मानवीय गायक पर लगाने का प्रयास उनका घोर अपमान ही माना जायेगा।
पं. हजारी प्रसाद द्विवेदी जी ने अपनी ‘कबीर’
नामक
पुस्तक में कबीर को वाणी का डिक्टेटर कहकर वास्तव में उन्हें आधुनिकता की पहली
पंक्ति में ही पधरादेने की जो परंपरा प्रारंभ की थी उसका ही विस्तार डॉ.
पुरुषोत्तम अग्रवाल ने अपनी पुस्तक ‘अकथ कहानी प्रेम की : कबीर की कविता और
उनका समय’ में किया है। देशज आधुनिकता का प्रारंभ कबीर से करने के प्रयास में
वे यह सोच ही नहीं सके की इसी आधुनिकता ने हिटलर जैसा डिक्टेटर पैदा किया था। और
अन्ततः हजारी प्रसाद द्विवेदी और पुरुषोत्तम अग्रवाल अलग-अलग तरह से उन्हें हिटलर
की श्रेणी में ही बिठा रहे हैं।
आधुनिकता पर बहस का प्रारंभ अक्सर यह
मानकर किया जाता है कि वह एक सुखद स्थिति है और उसने मानवीय मुक्ति की दिशा में
कोई बहुत मूल्यवान विचार और स्थिति पैदा की है। अतः येन केन प्रकारेण कबीर जैसे
व्यक्ति को भी आधुनिक होना ही चाहिए औपनिवेशिक न सही तो देशज ही सही। रिनेंसां का
प्रारंभ इटली में हुआ और कला के क्षेत्र में मध्यकालीन बोध से विचलन के प्राथमिक
लक्षण दिखाई दिए। पुनर्जागरण ने जो स्थितियाँ पैदा की थीं उनके परिणामस्वरूप कला
और साहित्य में परंपरागतता और धर्म के बरक्स वर्तमान जीवन और इहलौकिकता ने
प्रतिष्ठा पाने का प्रयास किया। इस प्रयास को आधुनिकता का पहला लक्षण माना गया।
इसी इटली ने मुसौलिनी जैसा अधिनायक पैदा किया। मुसौलिनी आधुनिकता से उपजा अधिनायक
था। यह भी ध्यान रखना चाहिए कि इटली इस समय कोई औपनिवेशिक देश नहीं था। वह तो
स्वयं में कई राज्यों में बंटा हुआ देश था। औपनिवेशिकता बहुत बाद की चीज है और वह
आधुनिकता का तात्कालिक परिणाम था न कि कारण।
ब्रिटेन, फ्रांस, स्पेन
और जर्मनी ने विश्व में जो उपनिवेश बसाये वे पूँजीवाद विकास और विस्तार के
अन्तर्विरोधों के परिणाम स्वरूप उपजी
परिस्थितियों की देन थे। कच्चे माल की आवश्यकता, और कारखाना
प्रणाली से उत्पादित माल के लिए बाजार की मांग ने उपनिवेश व्यवस्था को जन्म दिया।
आधुनिकता और औपनिवेशिकता का जो संबंध है वह अन्योन्याभावी न होकर कारण कार्य का
है। कबीर के संबंध में औपनिवेशिक आधुनिकता के बरक्स देशज आधुनिकता की जो बहस डॉ.
पुरुषोत्तम अग्रवाल ने की है, उसके मूल में जो अवधारणा है वह उपनिवेश
और आधुनिकता को अन्योन्याभावी मानकर चली है। जब आप कारण और कार्य को अन्योन्याभावी
मानकर चलेंगे तो उसके अन्तर्विरोधों को आप नहीं समझ सकेंगे। यही कारण है कि डॉ.
पुरुषोत्तम अग्रवाल की पुस्तक ‘अकथ कहानी प्रेम की’ में
वे न तो कबीर के साथ न्याय कर सके और आधुनिकता के साथ। हो सकता है कि अगले कुछ वर्षों
के शोध के बाद डॉ. अगवाल कबीर को उत्तर आधुनिक भी कह दें। फिलहाल उत्तर आधुनिकता
भारत में अपना विस्तार उस रूप में नहीं कर पाई जिससे वो सर चढ़कर बोलने लगे,
जैसे
की आधुनिकता। कहीं कहीं ‘उत्तर आधुनिक’ पद का इस्तेमाल
तो डॉ. अग्रवाल ने किया है पर उत्तर आधुनिकता का देशी संस्करण इसमें पैदा करने की
कोशिश उन्होंने नहीं की।
देशज आधुनिकता का मतलब क्या है?
आधुनिकता
कोई फसल है जो हर देश की अपनी-अपनी पैदा होगी- जैसे देशी आम, देशी
घी, देशी गेंहूँ, देशी मुर्गा, देशी गर्ल,
देशी
पिज्जा, देशी शराब, देशी भ्रष्टाचार इत्यादि। जिस समय कबीर
इस देशी दुनिया में अलख जगा रहे थे उस समय औपनिवेशिक दुनिया में न तो औपनिवेशिकता
ने जन्म लिया था और न आधुनिकता और न औपनिवेशिक अवधारणा ने। फिर क्यों हम कबीर जैसे
फक्कड़ को मॉल और उपभोक्ता संस्कृति पर आधारित आधुनिकता के दायरे में समेटने की
कोशिश कर रहे हैं? आधुनिकता का कोई भी मूल्य कबीर में हो ही नहीं
सकता क्योंकि वे जिस परिवेश की उपज थे उसमें व्यक्ति नहीं मानव अस्तित्व में थे,
पूँजीपति
नहीं सामंत थे, लोकतंत्र न होकर सामंतवाद था, इहलौकिकता
के स्थान पर ईश्वर, कर्म के स्थान पर कर्मकांड विराजमान थे और
उद्योगों के स्थान पर घरेलू उत्पादन स्वायत्त अर्थव्यवस्था केन्द्र में थी।
कोई भी विचारधारा अपने परिवेश और समय
की उत्पादन पद्धति की उपेक्षा करके नहीं पैदा हो सकती है। सामंतवादी विचारधारा
अपने समय की यथास्थितिवादी भूराजस्व केन्द्रित अर्थव्यवस्था की उपज थी और उसकी
पोषक भी। इसी तरह आधुनिकता भी पूँजीवादी उत्पादन पद्धति की उपज है और उसकी पोषक
भी। यह आवश्यक नहीं है कि आज के वे अधिकांश संत और चिंतक जो समाज कल्याण में लगे
हैं, सबके सब आधुनिक हों या आधुनिक युग में हैं तो भविष्य में वे
उत्तरआधुनिक कहे जाने लगेंगे। वे सब आधुनिक युग में रहकर भी मध्यकालीन और
पूर्वसामंतीय विचारधारा के हो सकते हैं - ‘‘आधुनिक के
निर्धारण में ‘काल’ बोध एक जटिलता तथा द्वंद्व है। दुनिया
में यह युग तो आधुनिक है; लेकिन कई समाज आधुनिक नहीं हैं तथा कई
आधुनिक समाजों के ढांचे लड़खड़ा रहे हैं।’’1
आधुनिक न होने का मतलब जड़ होना नहीं है और आधुनिक युग में होने का मतलब
गतिशील होना नहीं है। आधुनिकता एक प्रवृत्ति है, विचारधारा है,
एक
खास किस्म की उत्पादन प्रणाली और उत्पादन संबंधों को अभिव्यक्त करने की तकनीक है।
परंपरा में सुधार की नहीं परंपरा से विचलन की स्थिति का नाम आधुनिकता है। धर्म का
कर्मकांडी रूप सामंतवादी और आध्यात्मिक रूप आधुनिक नहीं हो सकता। धर्म जिस समय और
स्थितियों की देन है, वह उन्हीं स्थितियों में कुछ प्रगतिशील भूमिका
निभा सकता है, हर समय और स्थिति में नहीं। इसलिए हर अच्छे
विचार और विचारक का आधुनिक होना आवश्यक नहीं है। डॉ. अग्रवाल के देशज आधुनिकता के
आग्रह से तो ऐसा ही लगता है कि यदि कबीर को आधुनिक सिद्ध नहीं किया तो शायद कबीर
जिंदा ही नहीं रहेंगे।
आधुनिकता ने एक नए किस्म की जड़ता और
यथास्थितिवाद को जन्म दिया है। इसने मानवीय गरिमा को पूँजीवादी और समाजवादी
महाख्यानों की तानाशाही के हथियारों से क्षति पहुँचायी है। कबीर ने इसी मानवीय
गरिमा को प्रतिष्ठित करने के लिए सामंतीय ईश्वर और धर्म के खिलाफ संघर्ष किया था।
आधुनिकता के दोनों महाख्यानों - पूँजीवाद और समाजवाद - ने मानवीय गरिमा और गौरव को
जितना पृष्ठभूमि में धकेला है उतना इसके पहले के इतिहास में कभी नहीं धकेला गया।
तो क्या हम कबीर को देशज आधुनिक कहकर मानवीय गरिमा के पतन का भागीदार नहीं कह रहे
हैं।
कबीर जब यह कहते हैं कि -
सुखिया सब संसार है खावै अरु सौवे
दुखिया दास कबीर है जागे अरु रौवे।।
तो वे आधुनिक जीवन पद्धति पर ही तीखा
व्यंग्य कर रहे थे। आधुनिक जीवन में खाकर सोने की प्रवृत्ति आधुनिक कहे जाने वाले
वर्ग में जितनी अधिक है उतनी कबीर के समय में हो ही नहीं सकती थी, क्योंकि
वह श्रमशील वर्ग के बीच रहते थे और सामंती वर्ग ही बिना श्रम के खाकर सोने की
प्रवृत्ति वाला था, जो बहुत कम संख्या में था। आज का आधुनिक वर्ग
जो नगरों और महानगरों में जीवन यापन कर रहा है - उसके पास देश और आम आदमी को लेकर
कोई सांस्कृतिक चिंता या चेतना नहीं है। सुविधाओं का भोग और भोग के लिए सुविधाओं
को जुटाना ही एक मात्र लक्ष्य जिस वर्ग का हो उस पर कबीर का जागना और रोना उन्हें
सांस्कृतिक जागरण का अग्रदूत सिद्ध करता है न कि आधुनिक क्योंकि आधुनिकता ने इस
तरह की सांस्कृतिक चिंता का अस्तित्व ही समाप्त कर डाला है अब कोई ऐसा नहीं मिलेगा
जो इस तरह रातों की नींद और दिन का चैन खोकर मानवता की गरिमा को बनाये रखना चाहता
हो।
आधुनिकता की अवधारणा का जो सबसे
प्रतिगामी योगदान है, वह यही की उसने मानवीय सह अस्तित्व की
सांस्कृतिक चेतना और गरिमा पर सोचने विचारने की आवश्यकता और अवसर को समाप्त कर
दिया। मनुष्य से व्यक्ति, और व्यक्ति से उपभोक्ता में परिवर्तित
मानव नामक यह प्राणी अब व्यक्तिगत उपभोग की सामग्री जुटाने में इतना व्यस्त है कि
उसे दूसरे मानवीय प्राणियों के होने या न होने से कोई फर्क नहीं पड़ता।
व्यक्ति की सांस्कृतिक चेतना को
सुविधाओं और मनोरंजन के साधनों के अंबार से कुंद करने का कार्य आधुनिक विचारधारा
ने ही किया है। इसीलिए आज की पीढ़ी के पास कोई मानवीय कल्याण का सांस्कृतिक विजन
नहीं है। अंदर से रिक्त और बाहर से सुविधाओं के ढेर में दबे यह आधुनिक जीवन शैली
जीते लोग दरअसल जिंदा लाशें हैं। कबीर इसी तरह की जिंदा लाशों के लिए ‘सुखिया
सब संसार है खावे अरु सौवे’ पंक्ति लिखते हैं।
कबीर जिस मानवीय वर्ग का प्रतिनिधित्व
करते थे और करते हैं, क्या आज की देशज और औपनिवेशिक आधुनिकता में वह
वर्ग कहीं भी आधुनिकता के सांचे में समाहित है? क्या उस वर्ग के
जीवन में आधुनिकता ने कोई सकारात्मक योगदान दिया है? या फिर उसके सहज
जीवन को और अधिक दुष्कर बना दिया है? इसकी जांच परख किए बिना कबीर को आधुनिक
कहना उनका मानवीयता के प्रति किए गए योगदान को सिरे से नकारना होगा। आधुनिकता ने एक
ओर जिस मध्यवर्ग के उदय को संभव बनाया था उसी मध्यवर्ग को अपने मुनाफे के लिए
इस्तेमाल करने के उद्देश्य से मुक्त होने का भ्रम दिया और अन्ततः उसके श्रम का
शोषण करके अकूत मुनाफा कमाया और निम्नवर्ग को हाशिये से भी बदतर स्थिति में ला
पटका। कबीर के वर्ग को जीने की मूलभूत आवश्यकताओं से भी वंचित किया जा रहा है।
आधुनिकता के किसी भी संस्करण में सत्ता और संपत्ति के गठजोड़ को नकारा नहीं जा
सकता। सत्ता और संपत्ति के गठजोड़ ने आम आदमी को इंसानियत के दायरे से भी बाहर कर
दिया है। चाहे युद्ध हो या शांति दोनों स्थितियों में उसके अस्तित्व को स्वीकारा
भी नहीं जाता। लोकतंत्र हो या तानाशाही दोनों ही तंत्रों में आम आदमी दो ही काम
करता है वह वोट देता है, ताली बजाता है और मर जाता है। उसके लिए बनाये गए तमाम कानून और व्यस्थाएं
सत्ता और संपत्तिशाली वर्ग के हित में गुलांटे भरने लगती हैं।
कबीर ने जिस विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग
और उसके विशेषाधिकारों पर चोट की थी, वह वर्ग और वे अधिकार निरंतर बढ़े हैं।
जिस अनुपात में उनमें वृद्धि हुई है उसी अनुपात में आम आदमी के मूलभूत अधिकारों
में कमी आती गई है। ईश्वर और धर्म ने जिस संपत्तिशाली वर्ग को सत्ता और
विशेषाधिकार दिए थे कबीर ने उस धर्म और ईश्वर को ही नकार दिया था। क्या आधुनिकता
ने धर्म और ईश्वर के कार्य को आगे नहीं बढ़ाया है, लोकतंत्र और
राष्ट्र के विकास के नाम पर निरंतर आम आदमी के अधिकारों का हनन नहीं किया जा रहा
है? और क्या यही लोकतंत्र और राष्ट्र के विकास का महाख्यान विशिष्ट वर्ग
के अधिकारों में असीमित वृद्धि नहीं कर रहा है?
आधुनिकता की अवधारणा केन्द्रीकरण को
लेकर चली थी। इसके तहत एक व्यवस्था और नियम की सत्ता सर्वत्र विद्यमान थी। इस
केन्द्रीकरण की योजना में विज्ञान ने प्रकृति पर नियंत्रण करने का संघर्ष चलाया और
उसे नियंत्रित किया। प्रकृति पर नियंत्रण के दौरान ज्ञानोदय की योजना ने उस वर्ग
को सर्वाधिक उपेक्षित किया जो इस योजना के विकास में कोई महत्वपूर्ण भूमिका नहीं
निभा रहा था या जो वर्ग परंपरागत मूल्यों और जीवन पद्धति को नहीं छोड़ रहा था।
सामंत और मध्य वर्ग चालाकी से इस योजना में शामिल हो गया। वह अन्दर से तो परंपरागत
और मध्यकालीन ही रहा, परन्तु ऊपर से आधुनिकता का खोल ओड़ लिया। इस
चालाकी का फायदा यह रहा है कि वह धर्म और सत्ता की मलाई भी चांट रहा है और
पूँजीवाद की रसमलाई भी मजे से खा रहा है। कबीर ने इसी सुविधाजीवी वर्ग को अपनी
आलोचना का विषय बनाया था। क्या कबीर इस केन्द्रीकृत ज्ञानोदय की योजना को अपने समय
में लागू होने देते? और क्या वे धर्म और सत्ता की तरह इसकी भी तीखी
आलोचना नहीं करते? कबीर जैसा व्यक्ति ऐसी किसी भी विचारधारा और
अवधारणा को सहन नहीं कर सकता था जिसमें आम आदमी की उपेक्षा और अपमान हो, उसके
अस्तित्व को नकारा जाये और निरंतर शोषित किया जाये।
दरअसल कबीर किसी भी विचारधारा में
अंटने और फसंने वाले व्यक्ति नहीं थे। वे जानते थे कि आम आदमी का प्रतिनिधित्व कोई
भी विचारधारा नहीं करती है और प्रत्येक विचारधारा सत्ताधारी और शक्तिशाली वर्ग की
अनुचरी होती है। जो काम युद्ध और हथियार नहीं कर पाते वह काम सत्ताधारी वर्ग
विचारधारा के माध्यम से करा लेते हैं। सदियों से अनेक विचारधारायें पैदा होती रहीं
हैं, और इन सबने अन्ततः वर्चस्वशाली वर्ग की सुरक्षा ही की है। किले की
दीवारें तो तोडी़ जा सकती हैं, परन्तु विचारधारा जिन अमूर्त दीवारों
का निर्माण करती है उन्हें कोई नई और अधिक ताकतवर विचारधारा ही विस्थापित कर पाती
है। जैसा कि सामंतीय विचारधारा को पूँजीवादी विचारधारा ने विस्थापित किया। इस तरह
एक के स्थान पर दूसरी विचारधारा स्थापित हो जाती है, परन्तु वह काम
वही करती है जो पहले वाली विचारधारा करती रही थी।
सामंतीय व्यवस्था में विचारधारा ने
मनुष्य को यह बात समझाई की उसको ईश्वर ने बनाया है और धर्म उसको दुःखों से मुक्ति
दिला सकता है। जबकि सच्चाई यह है कि धर्म और ईश्वर दोनों को मनुष्य ने पैदा किया
था। सदियों से विचारधारा एक ही कार्य करती रही है और वह है मनुष्य को सच्चाई से वंचित
रखना और जीवन के भौतिक अंतर्विरोधों को छिपाना। उसके दुःखों और अभावों के कारण
पिछले भव में और उनसे मुक्ति अगले जन्म में मिलेगी यह बताना। जबकि हम सब जानते हैं
कि जीवन के तमाम सुख-दुख इसी जीवन में भौतिक कारणों से पैदा होते हैं और हमारी
व्यवस्था ही उनकी उत्तरदायी होती है। विचारधारा सत्ताधारी वर्ग के हित को सुरक्षित
रखने के लिए तथा भौतिक कारणों को छिपाने के लिए धर्म और ईश्वर को सामने रखती रही।
इस तरह विचारधारा जीवन के वास्तविक कारणों से मनुष्य का ध्यान हटाती है और यह
सत्ताधारी / वर्चस्वशाली
वर्ग के हित में होता है। कबीर ने इसी विचारधारा को प्रश्नांकित किया था। धर्म के
तमाम ठेकेदार पाखंड और कर्मकांड का प्रोपेगेण्डा करके इस विचारधारा को लादने का
काम करते हैं इसीलिए कबीर विचारधारा के वाहकों पर चोट करते हैं और जिन तरीकों से
विचारधारा आकार लेती है उन तरीकों को भी प्रश्नांकित करते हैं। कबीर के प्रश्नों
का कोई उत्तर विचारधारा के पास नहीं है और जैसा कि पश्चिम में मार्टिन लूथर किंग
ने चर्च के खिलाफ संघर्ष के साथ एक नई विचारधारा - आधुनिकता - को पेश किया था,
वैसा
कबीर ने नहीं किया उसके पीछे भी यही कारण है कि वे जानते थे कि किसी भी विचारधारा
को अन्ततः सत्ताधारी वर्ग के हितों के अनुकूल ढाला जा सकता है। मार्टिन लूथर किंग
की विचारधारा ने भी अन्ततः यही किया। नये सत्ताधारी वर्ग के वर्चस्व को स्थापित
करने में आधुनिकता की विचारधारा क्रियाशील हो गई और नए तरह की तानाशाही दुनिया में
पैदा हुई। मानवता के खिलाफ सबसे बड़े नरसंहार इसी नई विचाधारा के संरक्षण में किए
गए।
इसीलिए कबीर की लड़ाई हर तरह की
बंधी-बंधायी विचारधारा के खिलाफ थी। वे जानते थे कि आम आदमी अपनी दो जून की रोटी
जुटाने में जुटा रहता है उसे इन विचारधाराओं को समझने और अपने अनुसार ढालने के लिए
संघर्ष करने का समय नहीं है। अतः वे सहज समाधी और सहज जीवन का पक्ष लेते हैं -
‘हरिना समझ बूझ वन चरना’
हिरण जंगल का सबसे निरीह प्राणी होता
है और प्यारा भी। कबीर उसे सचेत करते हैं कि जंगल हिंस्र पशुओं से भरा है, तू
समझ बूझ कर चलना। यह समझना-बूझना क्या है? किससे सावधान रहने को कह रहे हैं कबीर।
यह कोई लड़ाई नहीं है, यह सावधानी है, विवेकशील होना
है, विवेकशीलता और समझदारी विचारधारात्मक संघर्ष के खिलाफ ही हो सकती है।
आम आदमी को समझदारी का पाठ पढ़ाने के पीछे कबीर का जो लक्ष्य है उसे समझना चाहिए।
विचारधाराओं के बरक्स समझदारी संघर्ष का सही रास्ता है, क्योंकि
विचारधारायें आम आदमी को जाल में फंसाती हैं, वे सीधे वार
नहीं करतीं, सदियों तक अधीन बनाये रखने का जंजाल रचती हैं।
इनसे बचने का तरीका प्रत्यक्ष संघर्ष न होकर विवेकपूर्ण समझदारी ही है।
किसी भी व्यवस्था का विरोध करने के लिए
उसके विचारधारात्मक मूल आधार पर चोट करना आवश्यक होता है और विचारधारात्मक मूल
आधार पर चोट करने के लिए उसे समझना और उसकी तर्क पद्धति को तोड़ना जरूरी है। कबीर
के पास सामंतीय व्यवस्था और यथास्थितिवादी विचारधारा धर्म और ईश्वर की विवेकपूर्ण
समझ और बौद्धिक तर्क योजना को तोड़ने के लिए ज्ञान और तर्क की योजना थी। उन्होंने
सामंतीय विचारधारा को तोड़ने के लिए उसके सबसे मजबूत गढ़ धर्म और ईश्वर पर चोट की।
बहुत आश्चर्य हुआ यह देखकर की डॉ. अग्रवाल ने धर्म के आध्यात्मिक रूप की वकालत की
और उसे कबीर के नाम से स्थापित किया। आध्यात्मिकता भी धर्म का एक अमूर्त रूप है जो
जीवन के भौतिक कारणों से ध्यान हटाता है और धर्म के उदात्तीकृत रूप को सामने रखता
है। यह भी विचारधारा को स्थापित करने का काम करता है। कबीर में तो आध्यात्मिकता है
ही नहीं। वह तो विशुद्ध भौतिक जीवन के प्रतीक और आधारों को प्रतिष्ठित करते हैं।
विचारधारा का एक काम यह भी कि वह सत्य
की विकृत या भ्रमपूर्ण प्रस्तुति करती है। सामंतीय विचारधारा ने धर्म और ईश्वर के
उन रूपों को कभी सामने नहीं रखा जो उसकी वास्तविक उत्पत्ति और भूमिका को जनता के
सामने प्रस्तुत करते। धर्म का उद्भव जादू-टोने से हुआ और प्रकृति के प्रति भय से
सुरक्षा के लिए ईश्वर का नाम अस्तित्व में आया। इतिहास में धर्म और ईश्वर का उदय
कब से हुआ? इसके प्रमाण प्रस्तुत करने का कार्य विचारधारा
कभी नहीं करेगी। वह तो उसके पौराणिक और कथात्मक रूपों को ही आम आदमी के सामने पेश
करती है जिससे भ्रम और भय बना रहे और सत्ताधारी वर्ग का हित सधता रहे। यही कारण है
कि कबीर ने धर्म के भ्रमपूर्ण और भयोत्पादक रूपों को खंडित किया।
विचारधारा चेतना को कुंद भी करती हैं
और उसके मानवीय विस्तार को सीमित करती हैं। वह हमें सोचे समझे समाधान और रास्ते
बताती है ताकि सामान्य मानवीय चेतना स्वंतत्र रास्ते न खोज सके। यदि आम आदमी की
चेतना जाग्रत और विवेकशील होकर अपने रास्ते और मंजिल खोजने लगेगी तो सत्ताधारी
वर्ग के किले और गढ़ ध्वस्त हो जायेंगे। विचारधारा के आरंभिक उदय से लेकर उत्तर आधुनिकता
तक के सफर को यदि आलोचित किया जाये तो हम पाते हैं कि वर्चस्वी विचारधाराओं ने जन
चेतना और उसकी विचारधारा को कभी भी आकार ग्रहण नहीं करने दिया। उसे अस्तित्व में
आने से पहले ही या तो कुचल दिया गया या अपने वर्ग में मिलाकर उसे डायवर्ट कर दिया
गया। कबीर जैसे कुछ फक्कड़ जो लाभ-लोभ और भय की तकनीक से बचे रहे आज भी विचारधारा
की जड़ों में मट्ठा डालने का काम कर रहे हैं। सामंतवाद ने सदियों तक मनुष्य को धर्म
और ईश्वर के माध्यम से भाग्यवाद का पाठ पढाया और उसकी चेतना को मानवीय समाधान
खोजने से रोका। आधुनिकता की विचारधारा ने भी व्यक्ति की चेतना को अपने स्वार्थ और
निजी मुनाफे तक सीमित करके कुंठित कर दिया। इस संदर्भ में मैं अल्बर्ट आइंस्टीन का
एक उद्धरण देना चाहूँगा - ‘‘मैं व्यक्तियों की सामाजिक चेतना के
कुंठित हो जाने को पूँजीवाद की सबसे खराब बुराई मानता हूँ। हमारी संपूर्ण शिक्षा
व्यवस्था इस दोष से ग्रस्त है। विद्यार्थी के अन्दर एक अतिरंजित प्रतिद्वंद्वता
पैदा कर दी जाती है और वह सफलता की पूजा करने लगता है यह मानकर कि यही उसके भावी
कैरियर की तैयारी है।’’2 कबीर को विचारधाराओं में समाहित करने की बहुत
कोशिशें प्रारंभ से ही होती रही हैं। भारतीय देशज चिन्तकों, की पंरपरा में
डॉ. अग्रवाल जैसे देशज आधुनिकता के पक्षधर भी शामिल हैं, ने उन्हें किसी
न किसी विचारधारा के अन्तर्गत ही व्याख्यायित करने की कोशिश है। किसी ने उन्हें
नाथपंथी, किसी ने बौद्ध, किसी ने इस्लाम, किसी ने
ब्राह्मण विचारधारा और अब देशज आधुनिक विचारधारा के सांचे में ढालने का प्रयास
किया। पर क्या कबीर को किसी विचारधारा में बांधा जा सकता है? वे
पहाड़ी झरने की तरह अपनी लय और उद्याम आवेग के साथ प्रवहमान हैं उन्हें नलों के
पानी की तरह अपने स्वार्थ के लिए इस्तेमाल नहीं किया जा सकता।
पूँजीवादी उत्पादन पद्धति की वित्तपोषक
विचारधारा आधुनिकता ने दो महाख्यानों को जन्म दिया। पूँजीवादी विचारधारा और
समाजवादी विचारधारा। ये दोनों ही आधुनिकता के गर्भ से पैदा हुईं थीं अतः इनमें
केन्द्रीकरण और व्यवस्था तंत्र की तानाशाही निहित थी। पूँजीवाद ने पूँजी के समक्ष
मनुष्य की गरिमा और अस्तित्व को नकारा और समाजवाद ने पार्टीतंत्र की तानाशाही के
बरक्स मनुष्य की गरिमा को नकारा -‘‘अक्टूबर क्रांति की त्रासदी थी कि उसने
कठोर क्रूर आदेशधर्मी समाजवाद को जन्म दिया। समाजवादी लोकतंत्र की यह त्रासदी थी
कि केयन्स का कल्याण राज्य पूँजीवादी भूमंडलीकरण के भयानक सैलाब को रोक न सका
(जैसा कि भारत में हो रहा है)’’3 दोनों ने ही अन्ततः मनुष्यत्व को ताक
पर रख दिया और ताकतवर को महत्व दिया। कबीर का विरोध इस तरह की दोनों ही
विचारधाराओं से है। कबीर से देशज आधुनिकता का प्रारंभ माननेवाले डॉ. पुरुषोत्तम
अग्रवाल ने उन्हें समाजवादी नहीं कहा यह सोचनेवाली बात है, क्योंकि
आधुनिकता में पूँजीवाद की गंध अधिक है और डॉ. अग्रवाल कम से कम घोषित माक्र्सवादी
तो हैं ही।
डॉ. अग्रवाल की आधुनिकता संबंधी कुछ टिप्पणियों को खोजने का प्रयत्न उनकी पुस्तक ‘अकथ कहानी प्रेम की : कबीर की कविता और उनका समय में’ करने पर हम उनकी आधुनिकता सबंधी सोच को समझने का प्रयत्न कर सकते हैं- इस पुस्तक की सबसे बड़ी समस्या यह है कि इसमें औपनिवेशिक आधुनिक विचारधारा से कबीर और भारतीय इतिहास को देखनेवाले विद्वानों की बात तो की है और खेद भी जताया है कि वे औपनिवेशिक मानसिकता के कारण भारतीय देशज आधुनिकता को नहीं देख सके, परन्तु उन विद्वानों के नाम या उनकी विचारधारा के उद्धरण संदर्भ सहित नहीं दिए गए।
विद्वान लेखक को पूँजीवाद के विकास के अंकुरण भारत में देखने की इतनी तीव्र इच्छा है कि वह पूँजीवाद की मूलभूत प्रवृत्ति और विचारधारा के बरक्स भारतीय विचारधारा के अन्तर्विरोधों को अनदेखा करता रहा है। भारत में कबीर ने धर्मसत्ता का विरोध किया और उस समय भारत का व्यापार भी विकसित था। इसमें कोई शक नहीं है, परन्तु दोनों तथ्य पूँजीवादी विकास के लिए आधारभूत कारण नहीं है। भारत में पूँजीवाद का विकास तो आज भूमंडलीकरण के जमाने में भी पश्चिम की तकनीक और विचारधारा के सहारे ही हो रहा है। भारत का कोई अपना पूँजीवादी मॉडल विकसित नहीं हो सका। यही भारतीय विकास का अन्तर्विरोध है जिसे समझना आवश्यक है। भारतीय समाज और राजनीति की संरचना के आधार में ही पूँजीवादी विकास के तत्व नहीं है।
पूँजीवाद के उद्भव और विकास के संबंध में दूसरी बात जो डॉ. अग्रवाल के असंबद्ध और असंगत विवरणों से स्पष्ट होती है, वह कि वे भारत में पूँजीवाद के अपने विकास के लिए बैचेन हैं। तमाम माक्र्सवादी भारत में समाजवाद के विकास के लिए बैचेन देखे जाते हैं, और डॉ. अग्रवाल पूँजीवाद के विकास के लिए। उनका उपर्युक्त पुस्तक में यही प्रयास है कि भारत में जो पूँजीवादी विकास हुआ है और आधुनिकता का आरंभ हुआ है उसे भारतीयों की ही देन सिद्ध किया जाए। हमारा पूँजीवादी विकास हुआ और हम आधुनिक हुए इसका श्रेय विदेशियों को क्यों दिया जाए। यह बात बहुत अच्छी प्रतीत हो सकती है, कुछ देशज टाइप के विद्धानों को, परन्तु इसमें जो जहर छिपा है उसे नजरअंदाज करना खतरनाक होगा। शरीर में कोई बीमारी पैदा हो जाये तो उसका कारण बाहरी विषाणुओं का होना बीमारी के ठीक होने के लिए अच्छा होता है। यदि वह बीमारी शरीर का स्वाभाविक लक्षण बन जाये तो उसका इलाज बहुत मुश्किल होता है। पूँजीवाद एक खतरनाक बीमारी है जिसने मानवीयता के न केवल जिस्म बल्कि चेतना को भी लकवाग्रस्त बना दिया है, क्या उसका भारत में स्वाभाविक विकास मानना ठीक है? पूँजीवाद बाहरी कारणों से और परिस्थितियों से विकसित हुआ है यह भारत के हित में है न कि अहित में। भारत अभी तक अपनी मानवीय चेतना और सांस्कृतिक चेतना को जितना संचित रख सका है उसके पीछे उसका पूर्णतः पूँजीवादी विकास न हो पाना ही है। भारत का आधुनिकीकरण और पूँजीवादीकरण अभी होना शेष है, वर्तमान में जो दिखाई दे रहा है, वह औपनिवेशिक आधुनिकता और पश्चिमी पूँजीवाद की नकल ही है। हमें इस बात का रोना नहीं रोना चाहिए की भारत का पूर्णतः आधुनिक नहीं हुआ या भारत का कोई अपना देशज पूँजीवादी मॉडल नहीं है। यह अच्छी बात है इस देश के लिए। क्योंकि यदि ऐसा नहीं होता तो भारत भी अमेरिका जैसी बर्बर और पतित संस्कृति का वाहक बन जाता।
एक बात और डॉ. अग्रवाल की आधुनिकता की देशज अवधारणा के संबंध में उन्हें याद दिलाना चाहूंगा कि यदि वे माक्र्स और उसकी विचारधारा के पक्षधर हों तो - एंगेल्स ने ‘डयूहरिंग मत खंडन’ में लिखा है कि ‘‘दास प्रथा न होती, तो यूनानी राज्य, कला और विज्ञान भी न होते। दास प्रथा न होती, तो रोमन साम्राज्य कभी अस्तित्व में न आता। और यदि यूनानी कला तथा रोमन साम्राज्य उसकी नींव न डालते, तो आधुनिक यूरोप भी न होता।’’ इसमें सीधे-सीधे आधुनिकता के उदय को दास प्रथा की अनिवार्यता से संबद्ध किया गया है। क्या भारत में ऐसी दास प्रथा थी इतिहास के किसी भी कालखंड में? शायद नहीं। तो क्या अब विद्धान आलोचक इतिहास में दास प्रथा के विकास पर शोध करके देशी दास प्रथा के इतिहास को सिद्ध करेंगे जिससे देशज आधुनिकता को जायज ठहराया जा सके।
डॉ. अग्रवाल ने कहीं भी यह बताने की कोशिश नहीं की है कि जिस देशज आधुनिकता और पूँजीवादी विकास की वे बात कर रहे हैं, उसका भारतीय संस्करण कैसा होता? यदि कबीर आधुनिकता के जनक होते और भारतीय सामंतीय उत्पादन पद्धति वाली अर्थव्यवस्था - व्यापार और नगरीकरण - के कारण भारत का आधुनिकीकरण और पूँजीवादी विकास हुआ होता तो क्या आपकी सीरत और सूरत ऐसी ही होती? जैसी आज है? यदि ऐसी ही होती तो देशज आधुनिकता और औपनिवेशिक आधुनिकता में फर्क कैसा? और यदि नहीं तो, बतायें की देशज आधुनिकता का रूप कैसा होता? सिर्फ यह कहने से कि कुछ विद्वानों को कबीर के समय के भारत में पूँजीवादी विकास के लक्षण दिखाई नहीं देते और कबीर में आधुनिकता के, आपका काम पूरा नहीं होता, उन विद्वानों की पहचान स्पष्ट कीजिए और जिन विद्वानों को आपके अनुसार यह दिखाई दिया। वे कौन हैं? आपने जितने भी प्रमाण दिए हैं उनमें कोई भी देशज नहीं है, सबके सब औपनिवेशिक मानसिकता वाले विद्वान ही हैं।
हमें सवाल यह भी उठाना चाहिए कि भारत का जैसा भी आधुनिकीकरण हुआ है क्या वैसा होना चाहिए था? क्या डॉ. अग्रवाल आज के आधुनिक भारतीय संस्करण से संतुष्ट हैं? शायद नहीं ही होंगे। क्यों? क्योंकि जो भी आधुनिकीकरण पिछली एक शताब्दी में हुआ है उसका 99 प्रतिशत पश्चिमी है। एक प्रतिशत आधुनिक भारत कबीर और निराला जैसे चिन्तकों में बचा हुआ है। क्या इस 99 प्रतिशत आधुनिकीकरण में देशज होने का कोई लक्षण है? यह देश यदि अपने देशज संस्करण में कहीं है तो उन प्रवृत्तियों और गतिविधियों में जो परंपरागत और धार्मिक संस्कारों में बची हुईं हैं।‘
डॉ. अग्रवाल ने अपनी उपर्युक्त पुस्तक में आधुनिकता के संबंध में जो असंबद्ध और बेतरतीव बहस खड़ी की है, उसको पढ़ते हुए जो बात समझ आती है वह यह की आधुनिकता और पूँजीवाद के विकास की कोई स्पष्ट समझ निर्मित नहीं हो पाती। लेखक की मूल सोच है कि भारत में औपनिवेशिक आघुनिकता के पहले देशज आधुनिकता का विकास हो चुका था। इसके साथ ही उनका मानना यह है कि आधुनिकता का संबंध व्यापार है से औद्योगिकीकरण से नहीं है - ‘‘आधुनिक विचारों और रुझानों का कारण कार्य संबंध औद्योगिकीकरण से नहीं व्यापार से है’’4 अपनी इस सोच को जायज ठहराने के लिए आपने जो प्रमाण और विवरण प्रस्तुत किए हैं, वे सब के सब अठारहवीं सदी के आसपास के हैं। इस समय के व्यापार के विकास और अन्तरराष्ट्रीय व्यापार के आंकड़े और लेखकों - देशज आधुनिकता और औपनिवेशिक आधुनिकता - के विवरणों से यह सिद्ध करने का प्रयास किया है कि भारत में व्यापार विकसित था और इसीलिए भारत में देशज आधुनिकता भी थी।
लेखक की समस्या यह है कि वह बात कर रहा है कबीर के समय की और कबीर को देशज आधुनिकता का जनक मानने की और उसके लिए व्यापार के विकास के प्रमाण दे रहा है अठारहवीं सदी के। इस तरह लेखक काल की संगतता को ठीक से नहीं बिठा पाया है। कबीर के समय पर बात करते समय कबीर के समय के भारत के व्यापारिक स्थिति के आंकड़े और विवरण उसके पास नहीं है। वे इतिहास में थोड़े और पीछे जाते पहली सदी के आसपास तो उन्हें व्यापार के विकास के और अधिक प्रमाणिक आंकड़े और विवरण मिल सकते थे। और आप वहाँ से आधुनिक रुझानों और विचारों का विकास मानसकते थे।
दूसरी समस्या इस पुस्तक की यह है कि इसमें इस बात को कई बार लिखा गया है कि आधुनिकता पूर्ववर्ती है और प्रबोधन (पुनर्जागरण) पश्चातवर्ती - देखिए (अकथ कहानी प्रेम की)पृ. 35 पर ‘‘ औपनिवेशिक ज्ञानकांड का जन्म यूरोपीय आधुनिकता से हुआ था।’’ आगे पृ. 67 पर दो बार लिखा है तीसरे पैरा की दूसरी पंक्ति में ‘‘आधुनिकता के बाद ही समाज प्रबोधन की दिशा में बढ़ता है।’’ चैथे पैरा के प्रारंभ में ‘‘इतिहास क्रम में प्रबोधन आधुनिकता के पीछे ही आता है।’’ वैसे में इस पूरे पैरा को उद्धरित करना चाहूँगा - ‘‘आधुनिकता और प्रबोधन में अंतर किया जाता है। इतिहास क्रम में प्रबोधन आधुनिकता के पीछे ही आता है। आधुनिक होने के पहले कोई समाज प्रबुद्ध नहीं हो सकता। कुछ व्यक्ति प्रबुद्ध हो सकते हैं, ऐसे लोग अपने वक्त से आगे निकले कहलाते हैं, लेकिन प्रबोधन के मूल्यों का व्यापक समाज में प्रचार तो आधुनिकता के बाद ही हो सकता है। यूरोप में आरंभिक काल शरू हुआ पंद्रहवीं सदी में। प्रबोधन (एनलाइटेनमेंट) का दौर शुरू हुआ सत्रहवीं सदी से। इसी अर्थ में यूरोपीय प्रबोधन से वंचित लोग - क्या अकबर क्या कबीर और क्या तुकाराम- अपने वक्त से आगे और आधुनिक (अर्थात् प्रबुद्ध) चित्त के निकट कहे जाते हैं। प्रबोधन के मूल्य हैं - व्यक्ति सत्ता की स्वीकृति, सहिष्णुता और विवेक। बोलचाल में आधुनिक और प्रबुद्ध घुल-मिल जाते हैं। आधुनिक का अर्थ हो जाता है विवेकपरक, व्यक्ति सत्ता स्वीकार करने वाला सहिष्णु चित्त; और मध्यकालीन का अर्थ व्यक्ति सत्ता को नकारने वाला। प्रेमी जोड़े को फाँसी चढ़ाने का आदेश देनेवाली पंचायत का व्यवहार मध्यकालीन और प्रेमी -पे्रमिका आधुनिक।’’5
इस पैरा में कई तरह की असंगतियाँ हैं। सबसे पहले आधुनिकता और प्रबोधन के कालक्रम की बात की जाये। यूरोप में रिनेसां, एनलाइटेनमेंट, नवजागरण, प्रबोधन शब्द एक परिघटना के लिए प्रयुक्त किए जाते हैं। इनके लिए डॉ. अग्रवाल ने अधिकांशतः औपनिवेशिक ज्ञानकांड और यूरोपीय ज्ञानकांड शब्दों का प्रयोग किया है। डॉ. अग्रवाल ने आधुनिकता को पहले माना है और नवजागरण को सत्रहवीं सदी से माना। यह अपने आप में गाड़ी को बैलों के आगे लगाने वाली बात है। हम सब यह जानते हैं कि ‘‘पश्चिमी (इटैलियन) रिनैसाँ 14-15 शती मूलतः प्राचीन संस्कृति का मानवीय धुरी पर पुनरुत्थान था। इसे ‘मानववाद’ (ह्यूमेनिज्म) कहा गया। मनुष्य के व्यक्तित्व की गहराइयों की छानबीन ने ‘व्यक्तिवाद’(इंडिजुअलिज्म) का उन्मेष किया। रिनंेसाँ आंदोलन-मध्ययुगों से स्पष्ट आंदोलन विच्छेद था। यह व्यक्तिवादी था। यह ईसाई रोमन साम्राज्य के विरुद्ध था। यह पोंगापंथ, पुराणपंथ के विरुद्ध था। इसमें नए मूल्यों तथा जीवन के नए दर्शन (इरास्मस के सुधारवाद, गेलीलियो का विज्ञानवाद, लियोनार्दो का शैक्षणिक सौंदर्यवाद आदि) का समावेश हुआ। यह उदारतावाद, बुद्धि की आलोचनात्मक एवं विवेकात्मक क्षमताओं के विकास, तथा दैवी एवं स्वर्गिक के स्थान पर इहलौकिक एवं मनुष्य-प्रकृति के आधुनिक विज्ञानों की ओर प्रयाण था।’’6 का फुटनोट यह उद्धरण सिर्फ इसलिए दिया है ताकि प्रबोधन और आधुनिकता का जो क्रम डॉ. अग्रवाल ने दिया है उसे सीधा करके समझा जा सके। आधुनिकता के संबंध में आगे प्रमाण प्रस्तुत करुंगा कि उसका प्रारंभ सत्रहवीं अठारहवीं सदी में होता है। आधुनिकता प्रबोधन का परिणाम थी न कि उसका कारण।
इसमें दूसरी असंगति है कि ‘प्रबोधन’ और ‘प्रबुद्ध’ को एक मान लिया गया है। प्रबोधन एक आंदोलन था जिसके लक्षण और विशेषतायें उपर्युक्त उद्धरण में दिखाई गईं हैं। लेकिन किसी समाज का प्रबुद्ध होना उसकी बौद्धिक क्षमता और मानवीय दृष्टिकोण का विकास होने से लगाया जाता है। हम इस सच्चाई से इंकार नहीं कर सकते की कोई समाज पूर्ण रूप से कभी प्रबुद्ध नहीं होता। समाज के कुछ व्यक्ति ही प्रबुद्ध होते हैं, शेष सब तो परंपरागत और रूढिवादी मानसिकता से बच नहीं पाते। आज की दुनिया में कोई समाज पूरी तरह से प्रबुद्ध होने का दावा नहीं कर सकता।
तीसरी विसंगति यह है कि आधुनिकता की जो विशेषतायें डॉ. अग्रवाल ने बताईं हैं वे दरअसल पुनर्जागरण के मूल्य हैं। आधुनिकता के मूल्य क्या हैं? यह डॉ. अग्रवाल ने ठीक से पूरी पुस्तक में कहीं भी नहीं बताये हैं। जिस देशज आधुनिकता की बात वे करते हैं उसकी पहचान और लक्षण क्या हैं, इसके संबंध में भी कहीं कुछ नहीं लिखा गया। जबकि इस पद का प्रयोग सैकड़ों बार किया गया है। चलिए हम रमेश कुंतलमेघ के शब्दों में भारतीय देशज आधुनिकता के लक्षण समझ लेते हैं - ‘हमारी स्वदेशी में जिन ऐतिहासिक आदर्शों तथा अभिवृत्तियों को स्वीकार किया गया है वे ‘नवजागरण’ की धुरी से भी उभरी हैं। उनमें शोषण और अन्याय का विरोध है तथा तथा उनका मानववाद कबीर-रैदास-तुलसी-जायसी की विरासत को लिए हुए है। इस नवजागरण वाली आधुनिकता ने हमारे आधुनिक भारत के लिए आधुनिकता की ऐसी कसौटियों दीं : आशावाद (तिलक) गरीबी और अज्ञानता से संघर्ष (विवेकानंद), इहलौकिकता और राष्ट्रीयता (तिलक और गाँधी), प्रकृतवाद और वैज्ञानिकता(दयानंद), व्यक्तिवाद और मानवतवाद (रवीन्द्रनाथ) सामाजिक सुधार और कुटीर आर्थिक जीविका (गाँधी)। इन्हें हम अपनी एशियाई आधुनिकता के तत्व या मूल्य कह कर संबोधित करें तो भी असंगत नहीं है। दैवी की जगह मानवीय का विकास, धार्मिक रूढियों के बजाय तर्क की वरीयता, सामूहिक भेड़ियाधसान के बजाय वैयक्तिकता की पहचान तथा गरिमा; सामंतीय व्यवस्था के बजाय जन सामाजिकता वाली व्यवस्था आदि ही परंपरा से आधुनिकता के अपने संक्रमण-पंथ हुए।’’7 उल्लेखनीय है कि उद्धरण का लेखक भारतीय नवजागरण का प्रारंभ डॉ. राममोहन राय से मानते हैं। ऐसा ही अधिकांश विद्वान भी मानते हैं।
डॉ. अग्रवाल के उपर्युक्त उद्धरण में एक अन्य असंगति यह है कि वे आधुनिक काल और आरंभिक काल का अंतर नहीं कर पाये -‘‘यूरोप में आरंभिक काल शरू हुआ पंद्रहवीं सदी में’’ इस वाक्य में आरंभिक नहीं आधुनिक कहना चाहते हैं। यह एक सामान्य भूल भी मानी जा सकती है, परन्तु ऐसी भूलें इस पुस्तक में कई स्थानों पर मिल जाती हैं, इसलिए इसे सामान्य असंगति नहीं माना जा सकता।
डॉ. अग्रवाल आधुनिकता और पूँजीवाद के अन्तर्संबंध को भी बहुत ही सतही ढंग से समझने की भूल कर रहे हैं। सामंतवाद से पूँजीवादी में संक्रमण के मूल तत्व जो हैं, वे ही मध्यकाल से आधुनिकता में संक्रमण की दशायें भी होंगी। व्यापार का होना और नगरीकरण का होना मात्र पूँजीवाद की स्थिति पैदा नहीं करतीं। जैसा कि डॉ. अग्रवाल मानकर चलते हैं। सामंतीय नगरीय व्यवस्था और व्यापार की अपनी अलग विशेषतायें हैं। उनमें पूँजीवाद के विकास की कोई संभावना नहीं होती। इसको में आगे स्पष्ट करूंगा। इसके अतिरिक्त डॉ. अग्रवाल ने कबीर के समय को जड़ और गतिहीन कहने वालों को भी औपनिवेशिक आधुनिक विचारधारा वाला माना है। उन्होंने कोशिश की है यह समझाने की कि कबीर का समय जड़ और गतिहीन नहीं था। दरअसल वे कबीर को जड़ और गतिहीन मानने का विरोध कर रहे हैं। लेकिन उनकी समस्या यह है कि वे जड़ और गतिहीन समाज और समय के लिए लागू करते हैं। यद्यपि न तो वे तत्कालीन समय की प्रगतिशीलता को विवेचित कर पाये हैं और न ‘जड़ता’ और ‘गतिहीनता’ को समझ पाये हैं। तत्कालीन अर्थव्यवस्था और समाज को जड़ और गतिहीन कहने का अपना एक खास अर्थसंदर्भ है। इसका अर्थ यह नहीं है कि कबीर के समय में समाज और अर्थव्यवस्था में कोई हलचल ही नहीं थी। और वह एकदम ठहरा और सड़ा हुआ जल था।
यह संदर्भों को न समझपाने की समस्या पूरी पुस्तक में प्रारंभ से अंत दिखाई देती है। इसके पीछे लेखक की जो सोच है वह यह कि वह मानकर चल रहा है कि जिस वर्ग में यह पुस्तक पढ़ी जानी है, उसके पास इन संदर्भों की न तो कोई स्पष्ट समझ है और न अध्ययन करने का अवकाश। यह बात इसलिए सच है कि जिस तरह से इस किताब की प्रशंसा हिंदी आलोचना जगत में हो रही है, वह चीजों को न समझने की प्रवृत्ति का ही परिणाम है।
इस पुस्तक का एक अंतर्विरोध यह है कि इसमें देशज आधुनिकता के पैदा होने की संभावना कबीर के समय में तलाशने की कोशिश की गई है पर लेखक ने कहीं भी सामंतीय समाज से पूँजीवादी समाज में संक्रमण की स्थितियों पर टिप्पणी नहीं की। जो सबसे आवश्यक तथ्य था देशज आधुनिकता के संबंध में। सामंतवाद पर कोई विचार लेखक नहीं करता। उसके विघटन के बिना क्या पूँजीवाद और उसकी अनुगामी आधुनिकता संभव है? क्या कबीर का समय सामंतीय समाज और अर्थव्यवस्था का समय नहीं था?
सबसे पहले मैं सामंतवाद से पूँजीवाद में संक्रमण की उन स्थितियों को संक्षेप में प्रस्तुत करूंगा जो यह स्पष्ट करेंगी की भारत के मध्यकाल में यानी कबीर के समय की अर्थव्यवस्था और राजनीतिक, सामाजिक स्थितियों में पूँजीवाद में रूपांतरित होने की कोई संभावना नहीं थी। और इसीलिए उनके समय और समाज को आधुनिक नहीं कहा जा सकता।
पूँजीवाद एक विशिष्ट तरह की उत्पादन संबंधों की संरचना को इंगित करता है, न कि पूँजी के संचय और भ्रमण को। मार्क्स ने पूँजीवाद की जो परिभाषा दी है, उसको समझे बिना पूँजीवाद पर कोई भी बहस बेमानी होगी। उनके अनुसार - ‘‘इसकी अनिवार्य विशेषता संपत्तिहीन मजदूरी कमाने वालों और पूँजी के मालिक उद्यमियों के बीच वर्गों का विभाजन है।’’ कोई भी पूर्वपूँजीवादी व्यवस्था पूँजीवाद में रूपांतरित हो इसके लिए उसमें कुछ सामान्य स्थितियों का होना आवश्यक है। इन स्थितियों को मार्क्स के विवरणों के द्वारा ही समझा जा सकता है।
मार्क्स सामंतवाद से पूँजीवाद में संक्रमण के लिए जो पहली स्थिति मानते हैं वह है ‘‘वे समांतवाद से पूँजीवाद समाज में संक्रमण की आत्मा, लघु उत्पादकों के प्राथमिक रूप से कृषक समाज, जिसके सर्वाधिक महत्वपूर्ण सामाजिक वर्ग भूस्वामी और उनके परतंत्र रैयत थे, से बाजार में विनिमय के लिए उत्पादन करने वाले समाज में रूपांतरण को मानते हैं, जिसके प्रमुख वर्ग पूँजी के स्वामित्व वाले उद्यमी और संपत्तिहीन उजरती मजदूर होते हैं।’’8 उनकी दूसरी मान्यता है, जो डॉ. अग्रवाल के व्यापार और नगरीकरण के जंजाल को छिन्न-भिन्न कर देती है, कि ‘‘उनका प्रमुख तर्क यह है कि मुद्रा या वस्तु के माध्यम से व्यापार चाहे कितना भी व्यापक रूप में फैला हो और मौद्रिक पूँजी के संचयन में कितनी भी उत्पादकता हो, वे अपने आपसे सामंतवादी समाज का रूपांतरण नहीं कर सकते। सामंती समाज के विघटन का स्वरूप और गति इसके विपरीत, ‘उत्पादन प्रणाली’ के रूप में इसकी मजबूती और आंतरिक अभिव्यक्ति’ पर निर्भर करता है। इसके पतन का प्राथमिक कारण इस पर पड़नेवाले (बाहर से) व्यापार के प्रभाव के बजाय समाज का आंतरिक अंतर्विरोध होता है।’’9
‘‘सिर्फ व्यापार का इतिहास हमें यह नहीं बता सकता कि सामंती संबंधों ने कब और क्यों पूँजीवाद को जगह दे दी, कैसे किसानी खेती और दस्तकारी उद्योग ने पूँजी के विशाल संकेन्द्रण और उजरती मूजदूरों को जगह दे दी, कैसे लगान से प्राप्त मुनाफे का स्थान मजदूरों द्वारा तैयार माल में निहित मूल्य के दोहन से प्राप्त मुनाफे ने ले लिया।’’10
कबीर के समय के भारत में सामंती समाज के आंतरिक अतंर्विरोध क्या थे? और क्या उस समय उजरती मजदूर वर्ग और पूँजी के स्वामित्व वाले उद्यमी थे? और क्या भारतीय समाज में इस तरह की कोई संभावना खोजने का प्रयास डॉ. अग्रवाल ने किया जिससे देशज आधुनिकता के पैदा होने की संभावना बनती।
मुख्य लक्षण जिसे मार्क्स ने इंगित किया है, सामंती समाज, समाज के आंतरिक अंतर्विरोधों से ही विघटित होता है, इस तथ्य का विश्लेषण किए बिना किसी भी सामंती समाज के पूँजीवाद में रूपांतरित होने की व्याख्या बेमानी होगी।
मार्क्स के विचारों को आगे बढाया जाये ताकि पूँजीवाद में भारतीय समाज के संक्रमण की संभावनाओं का सच सामने आ सके। माक्र्स इस बात पर जोर देते हैं कि सामंती समाज में जो पूँजी संचित होती है, वह दो लोगों के पास होती है - एक तो व्यापारी और दूसरा महाजन। ये दोनों वर्ग जिस तरह से पूँजी संचित करते हैं, वह उत्पादन और उसके साधनों पर नियंत्रण से नहीं होती और न उजरती मजूदर वर्ग के श्रम से उत्पादित अतिक्ति मूल्य से। बल्कि वह कम दाम में खरीदना और अधिक में बेचने के कार्य व्यापार से होती है। दर असल व्यापारी के मुनाफा और उद्योगपति के मुनाफा कमाने के चरित्र में अंतर है। यह अंतर ही एक को पूँजीपति और दूसरे को व्यापारी सिद्ध करता है। डॉ. अग्रवाल इस अंतर को समझने में नाकाम रहे हैं। इसीलिए वे व्यापार से आधुनिकता और पूँजीवाद के उदय का संबंध स्थापित कर सके।
व्यापारी का मुनाफा वस्तुओं के मूल्य में अंतर का उपयोग करके कमाया जाता है और महाजन का मुनाफा ब्याज बसूल करके। यह दोनों ही लक्षण सामंतीय अर्थव्यस्था के हैं। इनसे पूँजीवाद का उदय संभव नहीं है। इनके चरित्र में मूलभूत अंतर यह है कि इनके द्वारा संचित पूँजी उत्पादन की पूरी प्रक्रिया पर इनका कोई नियंत्रण नहीं होता। यही कारण है मध्यकाल तक के भारत में किसान और दस्तकार अपनी उत्पादन प्रक्रिया और उसके साधनों का स्वामी स्वयं होता था। लेकिन अंग्रेजी राज की स्थापना के बाद जैसे ही विदेशी औद्योगिक क्रांति संभव हुई भारत में उत्पादन के साधनों जमीन और तकनीक पर से उसका स्वामित्व समाप्त होने लगा और परिणामतः वह उजरती मजूदर में बदलने लगा। डॉ. अग्रवाल ने कई स्थलों पर इस बात पर भी आपत्ति जताई है कि अंग्रेजी राज के आने से ही भारत का औद्योगिकीकरण मानने वाले औपनिवेशिक मानसिकता के हैं। वे उत्पादन के इस चरित्र को नहीं समझ सके इसलिए इस तरह की स्थापनायें देते रहे।
मार्क्स ने तीसरा तथ्य जो पूँजीवाद के
विकास के लिए अनिवार्य बताया है, वह है, लगान का
नकदीकरण। वे यह मानते हैं कि नकद लगान के उदय का सामंती संबंधों के विघटन से सीधा
संबंध है - ‘‘उन्होंने सामंती लगान से पूँजीवादी लगान को उसी
सावधानी के साथ अलग किया जिस सावधानी से सौदागरी पूँजी को औद्योगिक पूँजी से।
किसानों द्वारा भूस्वामी को अदा की गई सामंती लगान चाहे वह श्रम के रूप में हो
अथवा जिन्स के रूप में या नकद उस ‘अधिशेष मूल्य’ के समरूप हो जो
पूँजीपति मजदूरों से उगाहता है।’’11. क्या कबीर के समय के भारत में नकद लगान
लिया जाता था? लगान के नकदीकरण का प्रारंभ अंग्रेजी राज के
समय से ही हुआ है। इसके लिए इरफान हबीब के मध्यकालीन इतिहास का अध्ययन आवश्यक है
जिसे डॉ. अग्रवाल ने सिरे से नकार दिया है।
मार्क्स पूँजीवादी उद्योग के विकास के लिए नकद संपत्ति का संचयन भी आवश्यक मानते हैं। नकद लगान से भूमि और किसानों के संबंधों में परिवर्तन हुआ। इससे सबसे महत्वपूर्ण परिवर्तन जो परवर्ती भारत में दिखाई देता है, वह यह कि भूमि अब विक्रय की वस्तु बन गई। दूसरा परिवर्तन यह हुआ कि समृद्ध व्यक्ति अधिशेष को संचय करने की स्थिति में आ गए और छोटे किसान भूमिहीन होकर मजूदर बनते गए। प्रेमचंद ने गोदान में किसान के मजदूर बनते जाने की महागाथा प्रस्तुत की है और इस अर्थ में वह आधुनिकता का महाकाव्य भी कहा जा सकता है।
मार्क्स को मानने-जानने वाले यह बात जानते हैं कि किसी भी समूह का राजनीतिक और सामाजिक ढांचा उस समूह की उत्पादन प्रणाली के अनुरूप निर्धारित होता है। इसलिए तत्कालीन समाज के आर्थिक और राजनीतिक अंतर्संबंधों और अंतर्विरोधों का अध्ययन भी किया जाना चाहिए।
पूँजीवाद के उदय और विजय के संबंध में मार्क्स की विचारधारा को प्रस्तुत करते हुए एरिक हॉब्सबाम अपने लेख ‘सामंतवाद से पूँजीवाद तक’ में लिखते हैं कि - ‘‘पंद्रहवी सदी के मध्य से सत्रहवीं सदी के बीच विस्तारवाद का पुनरागमन जिसकी विशिष्टता सामंती समाज के आधार पर ऊपरी ढांचे में दरारों के पहले चिह्नों का उभरना है। (रिफार्मेशन और नीदरलैंड में बुर्जुआ क्रांति के तत्वों का उदय) इसी काल में यूरोपीय व्यापारियों और विजेताओं का पहला स्पष्ट प्रवेश अमरीका, और हिंद महासागर में हुआ। इसी काल में मार्क्स पूँजीवादी युग की शुरुआत की निशानी मानते हैं।.....................करीब करीब एक ही साथ ब्रिटेन की औद्योगिक क्रांति, अमरीकी क्रांति और फ्रांसीसी क्रांति, जो सभी अठारहवीं सदी के अंतिम चैथाई में घटित हुईं, के पूर्ण होने से पूँजीवादी समाज की जीत सुनिश्चित हो गई।’’12 सामंती व्यवस्था अनिवार्य रूप से गतिहीन और जड़ ही नहीं होती, परन्तु उस व्यवस्था में स्वयं को रूपांतरित करने की कोई गतिशीलता या प्रवृत्ति नहीं पाई जाती। इसलिए उसे जड़ और यथास्थितिवादी कहा जाता है। डॉ. अग्रवाल ने इस ‘जड़’ और ‘गतिहीन’ पर आपत्ति की है, खासतौर से कबीर के समय और समाज के संदर्भ में। वे यह नहीं समझ पा रहे हैं कि सामंती व्यापार और सौदागरी पूँजी का मुनाफा यथास्थिति और गतिहीनता में ही निहित होता है। सामंती व्यापार और उत्पादन प्रणाली का मूल चरित्र होता है ‘उपभोग के लिए उत्पादन’ यह मूलतः गतिहीन होती हैं। जबकि पूँजीवादी उत्पादन प्रणाली मुनाफा कमाने के लिए निरंतर स्वयं को बदलती रहती है। नई तकनीक और नए बाजारों की खोज और नए उपभोक्ता का निर्माण। इस अर्थ में सामंती समाज और समय गतिहीन और जड़ होता है। सामंती समाज और समय में उत्पादन के साधन सीधे उत्पादकों के हाथों में केन्द्रित होते थे और इसीलिए वे सिर्फ उपभोग के लिए उत्पादन तक सीमित रहते हैं। उनमें अधिशेष को पूँजी में बदलने की प्रवृत्ति नहीं होती। उनका मुनाफा नए उत्पादन क्षेत्रों में विनियोजित नहीं होता। वह वस्तुओं के मूल्य के अंतर से और सूदखोरी से ही निश्चित मुनाफा कमाता है। मुनाफा उत्पादक पूँजी में नहीं बदलता जिससे और अधिक मुनाफा कमाया जा सके। इन अर्थों में कबीर का समय और समाज गतिहीन और जड़ था।
पूंजीवाद की विशेषता ही यह है कि वह निरंतर उत्पादन की तकनीक और मुनाफा कमाने के तरीकों में परिवर्तन करती है और इस तरह स्वयं के होने का तर्क खोजती रहती है। बिना स्वयं को परिवर्तित किए पूँजीवाद जिंदा नहीं रह सकता। सामंतवाद ने स्वयं को यथास्थिति में बनाये रखने की कोशिश में अपनी पूरी ताकत लगा रखी थी, परन्तु जैसे ही उसका सामना इस नई प्रणाली से हुआ वह स्वयं को बचा नहीं सकी। इस तरह बाहरी प्रभाव के बल से और आंतरिक अंतर्विरोधों के कारण सामंतवादी पद्धति विघटित हो गई।
मार्क्स ने प्रसिद्ध कम्युनिस्ट घोषणा पत्र में पूँजीवाद के इस चरित्र को स्पष्ट किया है - ‘‘पूँजीपति वर्ग जीवित ही नहीं रह सकता अगर वह लगातार उत्पादन के औजारों में और इसके फलस्वरूप उत्पादन के संबंधों में, और इन दोनों के साथ-साथ समाज के सारे संबंधों में क्रांतिकारी परिवर्तन न करता रहे। इसके विपरीत, उत्पादन की पुरानी पद्धति को अपरिवर्तित रूप में बनाये रखना पहले के सभी औद्योगिक वर्गों के अस्तित्व की शर्त थी। पहले के सभी युगों से पूँजीवाद को अलग करने वाले पहलू हैं : उत्पादन में निरंतर क्रांतिकारी विकास, सभी सामाजिक स्थितियों की अबाधिक उथल-पुथल, हमेशा बनी रहने वाली निश्चितत और हलचल। सभी स्थिर, जड़ीभूत संबंध मिटा दि जाते हैं, जिनके साथ पुरातन और श्रद्धामूलक पूर्वग्रहों और विश्वासों की पूरी श्रृंखला थी, और सभी नवनिर्मित संबंध जड़ीभूत होने के पहले ही पुराने पड़ जाते हैं। वह सब जो ठोस है, हवा में उड़ जाता है, वह सब जो पवित्र है, भ्रष्ट हो जाता है, और आखिरकार पुरुष और स्त्रियाँ मजबूर हो जाती हैं कि अपने जीवन की वास्तविक परिस्थितियों को तथा अपने जैसों के साथ अपने संबंध का पूरे होशो-हवास से सामना करें।’’13 मार्क्स का यह कथन सबसे महत्वपूर्ण है, उनके सभी विचारों के बरक्स। इससे बहुत सी बातें जो डॉ. अग्रवाल ने कहीं हैं, उनकी सच्चाई सामने आ जाती है। जड़ता और स्थिरता का अर्थ भी स्पष्ट हो जाता है कि क्यों सामंतवाद को जड़ या गतिहान कहा जाता है। भारतीय सांमतवाद में स्वयं को बलने के लक्षण नहीं थे और उसकी सारी ताकत स्वयं को यथास्थिति में बनाये रखने में लगी थी। कबीर के तमाम विचारों को भी हम यदि बिना किसी पूर्वग्रह के देखें तो पायेंगे कि उनमें भी इस तरह की गतिशीलता नहीं थी जो युग और समाज को आमूल-चूल बदल दे। यद्यपि उनकी सदाश्यता इसे बदलने के लिए ही प्रयत्नशील थी तथापि उसमें स्वयं को बदलने की क्षमता और प्रवृत्ति नहीं थी। यही कारण है कि वे अपनी तमाम मानवीयता और सद्भावना के कोई विशिष्ट परिवर्तन नहीं कर सके। यह भक्ति युग के सामंतीय चरित्र का वैशिष्ट्य है, जिसे हमें कोरी भावुकता से नहीं वैज्ञानिकता और विवेक से समझना चाहिए। इससे कबीर का योगदान कम नहीं हो जाता। उन्होंने ठहरे हुए पानी में सतह पर ही सही हलचल तो पैदा की ही थी। कबीर की मूल्यवत्ता इस बात में निहित है कि वे तत्कालीन सामंतवाद की पोषक विचारधारा के झांसे में नहीं फंसे, क्योंकि मार्क्स ने यह भी कहा है कि ‘जिस वर्ग के पास भौतिक उत्पादन के साधन हैं उसका मानसिक उत्पादन के साधनों पर भी नियंत्रण होता है। जिसके पास मानसिक उत्पादन के साधन नहीं हैं उनके विचारों को दोयम श्रेणी का माना जाता।’’14 उत्पादन के साधनों पर नियंत्रणवाले वर्ग के नियंत्रण में कबीर नहीं थे, इसीलिए वे अपने समय से आगे थे। यही उनका मानवीय योगदान था।
व्यापार का होना मात्र पूँजीवाद का संकेतक नहीं है। हम यह नहीं कह सकते की किसी समय और समाज में व्यापार और नगर थे इसलिए वहाँ पूँजीवादी विकास के लक्षण थे। यहाँ मार्क्स के विचारों को देखना होगा -‘पुराने की जगह कौन सी नई उत्पादन पद्धति लेगी यह व्यापार पर निर्भर नहीं करता, बल्कि पुरानी उत्पादन पद्धति के चरित्र पर निर्भर करता है।’’15 जब तक हम भारतीय सामंतीय उत्पादन पद्धति के चरित्र का विश्लेषण नहीं करेंगे तब यह नहीं कह सकते कि उसमें पूँजीवादी विकास की संभावनायें मौजूद थीं। सिर्फ फतवेवाजी करके और भावनात्मक राष्ट्रीयता का उपयोग करके तथ्यों को नकारने की प्रवत्ति ठीक नहीं है।
सामंतीय समाज के नगर भी पूँजीवाद के विकास के सूचक नहीं थे। उनका चरित्र और विकास भी उत्पादन के साधनों और तकनीकों पर आधिपत्य के कारण नहीं बल्कि सामंतीय शासकों की उपभोक्तावादी जीवन शैली के कारण हुआ था। यही कारण है कि जब पूँजीवादी संबंधों का विकास भारत में 19वीं और बीसवीं सदी में हुआ तो पुराने नगरों का विनाश होने लगा और नगद लगान और भूमिपर स्वामित्व के परिवर्तन, तथा अधिशेष उत्पादन पर नियंत्रण के लक्षण वालें नए नगरों का विकास हुआ। ‘‘पूँजी और बाजार जिस पर सामंती शहरी विकास आधारित था, किसी भी अर्थ में पूँजीवादी विश्वबाजार के सीधे पूर्वज नहीं थे।’’16 सामंतीय व्यापार और बाजार का चरित्र कुछ मालों तक सीमित होता है और उसमें मजदूरी भी जिंस के रूप में दी जाती है और विनिमय भी जिन्स और मुद्रा दोनों माध्यमों से होता है। अतः उसका मूल चरित्र विकासशील न होकर यथास्थितिवादी होता है।
एक तथ्य और इस संबंध में ध्यान रखना चाहिए कि सामंतीय ग्रामीण अर्थव्यवस्था अपने आप में स्वायत्त चरित्र वाली और मिश्रित अर्थव्यवस्था होती है। पूँजीवाद के विकास ने ग्रामों का ग्रामीणीकरण किया। इसका अर्थ यह है कि पूँजीवादी व्यवस्था में ग्राम सिर्फ कृषि उत्पादक व्यवस्था बन गई। अब ग्राम अन्य आवश्यकताओं के लिए नगरों पर आश्रित होने लगे। इसके अतिरिक्त कृषि उत्पादों का व्यवसायीकरण और वाणिज्यीकरण भी पूँजीवादी व्यवस्था की देन है। इसमें ग्राम अर्थव्यवस्था के मूल चरित्र को विघटित कर दिया। क्या इस विघटन के सूत्र कबीर के समय के ग्राम में दिखाई देते हैं? शायद नहीं क्योंकि यह परिवर्तन 18वीं और 19वीं सदी में पहली बार दिखाई दिए हैं।
कबीर आधुनिक थे या नहीं यह इस संक्षिप्त विश्लेषण के संदर्भ में समझना चाहिए। कोई भी व्यक्ति अपने समय से कितना भी आगे हो - विचार और चिंतन में, अपने समय की उत्पादन व्यवस्था को मूलतः परिवर्तित किए बिना आधुनिक नहीं हो सकता। कबीर में तत्कालीन स्वायत्त ग्राम्य व्यवस्था के चरित्र को बदलने की बैचेनी दिखाई नहीं देती। वे जागरण गीत गाते हैं, धर्म और ईश्वर के खोल को तोड़कर बाहर निकलने का प्रयत्न करते हैं, पाखंड़ों और अंधविश्वासों के शोषण से आम आदमी को सावधान करते हैं और उनकी तर्क पद्धति को कटघरे में खड़ा करते हैं। पर उनके समय के जो अन्तर्विरोध थे उनसे सीधे-सीधे टकराने का बीड़ा वे नहीं उठा सके यह उनके समय की सीमा थी।
अब तक मैंने कबीर को उस अर्थ में आधुनिक नहीं माना जिस अर्थ में डॉ. अग्रवाल ने उन्हें आधुनिक सिद्ध करने का प्रयास किया था। डॉ. अग्रवाल के विवेचन में आधुनिकता की कोई सुसंबद्ध संकल्पना ही नहीं जिससे किसी तरह की वैचारिकी पैदा हो सके।
आधुनिकता को व्यापक अर्थों और संदर्भों में विवेचित किए बिना किसी युग या व्यक्ति को आधुनिक सिद्ध नहीं किया जा सकता। ‘आधुनिकता’, आधुनिकीकरण और आधुनिक बोध एक ही लाठी से नहीं हांके जा सकते। ‘‘जब जब पवित्र चेतना की आस्था को तार्किक चेतना के विवेक ने अपदस्थ किया है तब तब आधुनिकता की झिलमिलाहट हुई है।’’17 इस अर्थ में हम बुद्ध, महावीर और कबीर को आधुनिक बोध का व्यक्ति कह सकते हैं। यहाँ आधुनिकता देशज और औपनिवेशिक के प्रपंच की बोधक नहीं है। जब हम आधुनिक को एक विशेषण मानकर चलें तो कह सकते हैं की कबीर का बोध आधुनिक था और इसलिए कबीर आधुनिक व्यक्ति थे। कबीर ने मनुष्य को अपने समय में प्रतिष्ठित करने का प्रयास किया था। भूत और भविष्य के भतिव्य से निकालकर वर्तमान में मनुष्य की अर्थवत्ता को पहचानना उनके आधुनिक बोध का सबूत है। जिस युग में आस्था के स्थान पर तर्क की प्रधानता हो, आध्यात्मिकता के स्थान पर भौतिकता, धर्म और ईश्वर के स्थान पर मनुष्य की प्रतिष्ठा हो, वह युग आधुनिक कहा जा सकता है। इस अर्थ में कबीर का युग आधुनिक नहीं था। सामाजिक और राजनीतिक आधुनिकीकरण उत्पादन के साधनों में परिवर्तन और उसके चरित्र में बदलाव की अपेक्षा रखते हैं। इस संदर्भ में भारत में आधुनिकीकरण का युग राममोहन राय से प्रारंभ माना जा सकता है। आर्थिक आधुनिकीकरण का प्रारंभ नियोजित अर्थ व्यवस्था के प्रारंभ से माना जाना चाहिए और इस अर्थ में भारत अपने लक्ष्य से भटक गया है।
संदर्भ ग्रंथ सूची -
1. आधुनिकता और
आधुनिकीकरण, आधुनिक बोध, रमेश कुंतल मेघ,
पृ.
56
2. समाजवाद का सपना,
पृ.
7
3. समाजवाद का सपना,
पृ.
55
4. अकथ कहानी प्रेम
की : कबीर का समय और कविता, डॉ. पुरुषोत्तम अग्रवाल पृ. 105
5. पृ.वही 67-68
6. मिथक से आधुनिकता
तक, ले. रमेश कुंतल मेघ पृ. 70
7. वही पृ. 72
8. सामंतवाद से
पूँजीवाद में संक्रमण, संपा. रोडली हिल्टन, पृ. 158
9. वही पृ. 158
10 वही पृ. 162
11.वही पृ. 159
12 वही पृ. 172
13.समाजवाद का सपना,
पृ.
30
14. वही, पृ.
64
15. सामंतवाद से
पूँजीवाद में संक्रमण, संपा. रोडली हिल्टन, पृ. 187
16 वही पृ. 187
17. रमेश कुंतल मेघ,
आधुनिकता,
आधुनिकीकरण
और आधुनिकबोध, पृ. 56
डॉ. संजीव कुमार जैन
522 - आधारशिला,
ईस्ट
ब्लॉक एक्सटेंशन
बरखेड़ा, भोपाल, म.प्र. 462021
मो. 09826458553
[ सहायक प्राध्यापक
हिन्दी
शासकीय संजय
गाँधी स्मृति स्नात्कोत्तर महाविद्यालय,
गंज बासौदा, म.प्र. ]
( साभार )
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