छले वर्ष फ़िल्मी गीतों की दुनिया में एक अभूतपूर्व विवाद
जुड़ा जब ‘डी.के. बोस’ नाम के एक सज्जन को एक टीवी चैनल पर उनकी प्रतिक्रिया के लिए
बैठा पाया | वे उस समय के एक प्रसिद्ध फिल्मी गीत ‘भाग-भाग डी के बोस’ से इतने
प्रताड़ित हो चुके थे कि सीधे खबर का हिस्सा ही बना दिए गए | पत्रकार उनकी भावनाओं
को अपने दर्शकों के सामने लाने के लिए बहुत प्रयत्नशील दिख रहे थे और वे अपनी बारी
आने पर केवल अपने दुःख को व्यक्त कर देते थे या फिर बहुत धैर्य के साथ विशेषज्ञों
की टिप्पणियों को सुनने समझने का प्रयास करते हुए शायद यह समझ पा रहे थे कि उस
पूरे कार्यक्रम में वे खुद एक उत्पाद में
परिवर्तित होते चले जा रहे थे | इस गीत के लेखक हैं
अमिताभ भट्टाचार्य और इसे हमारे सेंसर बोर्ड की स्वीकृति भी प्राप्त थी लेकिन इसकी
सामाजिक जवाबदेही के नाम पर सबसे बड़ा तर्क यही था कि इसे अपार लोकप्रियता मिली है
और इसका आधार भी दिल्ली का वही युवा समाज है जो मुहावरीय आँधी आने पर एक विशेष
गाली का उपयोग करता है और उसे हास्य के एक चलताऊ साधन के रूप में अपनाता है | इस
तरह यह गीत जनता से ही पैदा हुआ और जनता में ही व्याप्त हुआ लेकिन इसे फिल्मी रूप
देने वाले मास मीडिया ने डी.के. बोस नाम के लोगों को जैसे ‘जनता’ मानने से इनकार
किया और फिर विवाद का एक दौर थम गया | यही नहीं, डी.के. बोस के साथ ‘शीला की
जवानी’ और ‘मुन्नी बदनाम हुयी डार्लिंग तेरे लिए’ की मुन्नी और शीला की फिल्मी
अमरता ने कुछ जीवित शीलाओं और मुन्नियों को भी इसी तरह प्रताड़ित किया और वे भी
अखबारी मजा लेने के माध्यम भर की पहचान लिए सिमट गयीं | शीला वाले गीत का राजनीतिक
उपयोग भी हुआ हो या निकट भविष्य में होगा इसके भी प्रबल आसार हैं | इसके बाद तो
अभी तक ये सिलसिला जारी है जो कि ‘बबली’ को बदमाश बताता है और फिल्म के बाहर के
पाण्डेय जी लोगों के चरित्र को इस नायकत्व के साथ प्रस्तुत कर रहा है कि वे ऑन
ड्यूटी सीटी बजाने के लिए तो प्रसिद्ध हैं ही, लेकिन उनकी ख़ास बात यह है कि ‘फँसते
नहीं हैं कोई काण्ड करके !’
अभी
बीते पिछले दशक में फिल्मों और उनके गीतों का विकास या कहें कि व्यक्तित्व एक ऐसे
सांस्कृतिक उत्पाद सरीखा लगता था जो मास संस्कृति के लाभ कमाने वाली वस्तु का
चरित्र अपनाए हुए था | गीतों को लेकर सिनेमा
जगत से यह खबरें आती थीं कि फलाँ गीत की लागत करोड़ों में हैं और उसमें सरप्राइज़
देने के लिए अमुक स्टार दिखेंगे | लेकिन अब बात उतनी ही व्यावसायिक नहीं रह गयी है
क्योंकि फिल्म के गीत से निर्माता पूरी फिल्म की लागत ही कमाने का सोचने लगा है |
इसलिए वह अब उत्पाद कि श्रेणी से कहीं अधिक उद्योग की दरकार रखता है | बोल से अधिक
सांस्कृतिक-सामाजिक-राजनीतिक सुगबुगाहट पैदा करने की हिम्मत करता है और जब विवाद
सामने आते हैं तो वह ‘इतिहास’ बनाने और बदलने के माध्यम के रूप में अपनी सेवायें
प्रदान करना चाहता है या फिर एक नई भूमिका निभाना चाहता है | सब मिलाकर यह कि
फिल्म गीत अपनी ताकत को फिल्म से बाहर भी आजमाने के प्रयोग करता है | पहले यह भजन और देशभक्ति के गीतों तक सीमित था लेकिन आज तो
वह संस्कृतियों को निर्मित करने के कारकों में से एक हो गए हैं |
‘इतिहास’ निर्मित करने से इतर इधर जो
एक अन्य विशेष परिघटना सिनेमा और फिल्मी गीतों के साथ हुयी है वह यह कि अब उन्हें
स्नातक स्तर के सामान्य पाठ्यक्रमों में भी स्थान मिलने लगा है | इससे यह तो
प्रस्तावित होता ही है कि सांस्कृतिक-अध्ययन की दृष्टि से वे समाज को डीकोड करने
के माध्यम बने हैं या बन सकते हैं लेकिन इसके साथ जो समझ बनती है वह यह दर्शाती है
कि सिनेमा का अध्ययन भी अब शिक्षित करने की महत्वपूर्ण सामग्री है | जब फिल्मी
गीतों की भाषा या हिन्दी की ही समीक्षा या पाठ्यक्रम में अध्ययन के लिए निर्धारित की
गयी फिल्मों के गीतों पर छात्रों से प्रश्नपत्र में पूछे जाने की संभावना बनती हो
तो निश्चित ही यह गीतों की अकादमिक सत्ता में हिस्सेदारी की ऐसी सूचना है जो कोर्स
में काफ़ी तनाव के बाद अपनी जगह बनाती हुयी दिखती है | बल्कि सिनेमा या फिल्मी गीत
ही उस चिह्न के रूप में परिवर्तित होते दिखते हैं जिनसे पाठ्यक्रम की नवीनता और
शिक्षा की समकालीनता की प्रतीति होती है | दूसरे शब्दों में फिल्मी गीतों ने
सांस्कृतिक उत्पाद की सीमा का ध्वंस कर दिया है और यह सन्देश दिया है कि वह
मनोरंजन, कला और बौद्धिकता से अतिरिक्त भूमिका निभाने को तैयार है और उसके पास हर
वर्ग की ताकत और लोकप्रियता की संख्या की सत्ता है | इस आधार पर सिनेमा के गीत न
केवल बाज़ार से अन्य कला और सांस्कृतिक उत्पादों को अपदस्थ कर रहें हैं बल्कि
शिक्षा और राजनीति में भी उन्हें चुनौती देने की स्थिति में आ गए हैं | स्वयं
बॉलीवुड के भीतर भी यह स्थापित हो चुका है कि कम से कम समय में यदि ‘स्टार वैल्यू’
बनानी है तो बिना गीतों के यह संभव नहीं है |
फिल्मी
गीतों की समकालीन प्रवृत्तियों को समझने के लिए एक अन्य आधार माध्यम-सापेक्षता का
बनता है जो आज पहले की तुलना में बहुत अधिक व्यापकता के साथ हमारे बीच विकसित हुआ
है | सर्वप्रथम फिल्मी गीतों को लोकप्रिय बनाने और प्रसारित करने में रेडियो की
ऐतिहासिक भूमिका रही जिसने इन गीतों के लिए अपने स्तर से श्रवण-आस्वादन की भूमिका
बनायी थी | इसके बाद दूरदर्शन के दौर ने भी फिल्मी गीतों को नहीं नकारा और उसमें किसी
प्रकार की आरम्भिक अनैतिकता न देखते हुए बकायदा उन्हें ‘चित्रहार’ जैसा अत्यंत
लोकप्रिय कार्यक्रम देते हुए अपनी नीति में शामिल किया | इन माध्यमों के साथ याद
दिलाने की आवश्यकता नहीं है कि रेकॉर्ड्स, कैसेट्स, सी.डी. , डी.वी.डी. का बाज़ार
लगातार अपनी जगह विस्तृत करता रहा | लेकिन इन्टरनेट के दौर ने तो गीतों के उपभोग
को असीमित करके दिखा दिया | सैकड़ों वेबसाइट्स ने एक ही समय में इन सभी माध्यमों के
विलायीकरण को संभव कर दिखाया जिससे अब गीत का ऐसा उपभोक्ता तैयार हो चुका है और
लगातार हो रहा है जिसे माध्यम के अंतरों को पहचानने की ज़रूरत नहीं है | इसे
अंतर्माध्यमिक उपभोक्ता कहना अधिक समीचीन होगा क्योंकि वह दो इंच के ड्राइव्स की
तकनीक का इस्तेमाल अपनी ज़रूरत पूरी करने के लिए करता है या फिर अपने मोबाईल या
आई-पौड इत्यादि उपकरणों से सैकड़ों-हज़ारों की संख्या में अपने गीत का आनंद लेता है
| विशेष बात यह है कि इन उपकरणों ने उसे स्वयं एक ऐसे कम्पोज़र में परिवर्तित कर
देने की सुविधा प्रदान कर दी है जिसके द्वारा वह संगीत को अपनी रूचि के अनुसार
पुनर्निर्मित कर सकता है अपना खुद का स्टाईल बना सकता है | इसके अतिरिक्त आज फिल्म
गीतों की उपस्थिति में दो और ख़ास बातें जुड़ती हैं | एक तो यह कि एक अच्छे-खासे समय
से ये गीत यात्रा को सुविधाजनक बनाने के उत्पाद के रूप में सामने आये हैं और उस पर
इतने अधिक हावी हो गयें हैं कि कई बार महानगरों में या हाईवे पर दुर्घटनाओं या
रंजिश पैदा करने के कारक बनते हैं | इससे यह स्थापित होता है कि अन्य विधाओं की
अपेक्षा आम जीवन में गीतों ने पर्याप्त दखल दिया है और लोगों के फोन रिंग का स्थान
तक उसने बड़ी आसानी से ले लिया है | दूसरी ख़ास रीडिंग जो इन फिल्म-गीतों की व्याप्ति
और संस्कृति में जुड़ती है वह यह है कि आज के युवाओं के जश्न का हिस्सा ये बेहद
व्यवस्थित रूप से बने हैं | शादी, ब्याह और पार्टी में डीजे का उपयोग तो बना ही है
लेकिन महाविद्यालयों के ‘कल्चरल फेस्टिवल’ का अवलोकन यदि किया जाए तो पता चलता है
कि आज भी वहाँ पर हिरोइज़्म, फ्रेंडशिप या कामुकता को साहयता देने में वह प्रबल
भूमिका निभाता है | यहाँ तक कि जो इन गीतों पर नाचता थिरकता या कुछ क्रियेट नहीं
कर सकता वह दब्बू या फिर पिछड़े की श्रेणी में बिना किसी प्रयास के देखा जा सकता है
| एक प्रकार से देखें तो यह सांस्कृतिक बदलाव का नहीं बल्कि सांस्कृतिक
साम्राज्यवाद का विषय है |
फिल्मी गीतों की
समकालीनता में व्यापार के दृष्टिकोण में मौलिक बदलाव आ चुका है | जब सिनेमा थियेटर
और वीडियो पर पूरी तरह से निर्भर था तब फिल्म गीत कहानी की मांग पर निर्भर होते थे
और फिल्म का भीतरी हिस्सा बनकर दर्शकों का मनोरंजन करने का कार्य करते थे | बदलते
समय और फिल्म निर्माण की दृष्टि में आये ऐतिहासिक बदलावों ने फिल्म गीतों को
फॉर्मूलाबद्ध कथानकों की सुरक्षा से मुक्त किया और उन्हें मुक्त व्यापार के
सिद्धांतों के प्रयोगों के हवाले कर दिया जिसका सबसे बड़ा परिणाम यह है कि अब
फिल्मी गीत फिल्म की हद से आगे निकलकर अन्य सांकृतिक-सामाजिक–सूचना उत्पादों को
प्रोत्साहित करने का प्रकार्य भी निभाने लगे हैं | अवसर कैसा भी हो, परिस्थिति कोई
भी हो, ये गीत अपनी लोकप्रियता, पहुँच और टार्गेट ऑडिएंस की विशेषज्ञता के कारण
निर्माता और उपभोक्ताओं को विशेष भाव व्यक्त करने तथा ध्यान आकर्षित करने में
बेजोड़ साबित होते हैं | उदाहरण के लिए करन जौहर के धर्मा प्रोडक्शन की सन दो हज़ार
ग्यारह की एक फिल्म ‘एक मैं और एक तू’ के एक गीत ‘गुब्बारे’ को देखा जा सकता है |
इस फिल्म के संगीतकार अमित त्रिवेदी हैं तथा इसके गायक स्वयं अमित त्रिवेदी,शिल्पा
राव और निखिल डिसूज़ा हैं | यह गीत इमरान खान और करीना कपूर पर विदेश में फिल्माया
गया है जिसके मुखड़े के बोल हैं –
“ आसमां से बरसे
भर भर के
नीले पीले हर
कलर के
तू खेल जी भर
के
ऐ दिल तुझे पता
है
ऐ दिल तुझे पता है
ये लम्हें और
क्या हैं
किसिम किसिम के
हैं गुब्बारे “
गीतकार अमिताभ
भट्टाचार्य के इन बोलों से साफ़ झलकता है कि इस गीत में जीवन के विभिन्न भावों की
तुलना कई रंगों के गुब्बारों से की गयी है | रंग और जीवन के भावों की तुलना
साहित्य तथा अन्य कला रूपों के लिए कोई नई बात नहीं है और इसलिए अपने संगीत की
मस्ती में यह गीत एक लम्बा प्रभाव अपनी स्टारकास्ट के साथ छोड़ सकता है | बल्कि पता
भी नहीं चलता कि कब अंग्रेज़ी का कलर शब्द बहुत ही स्वाभाविकता के साथ हमारी
स्वीकृति प्राप्त कर लेता है | अपने रिलीज़ के समय इस फिल्म के संगीत के अधिकार
इसके संगीतकार ने टी-सिरीज़ कम्पनी को छह करोड़ रूपये में उस वक्त बेचे थे | यह राशि
आज भी लगभग एक मिलीयन डॉलर के आस पास बैठती है | ध्यान देने की बात यह है कि अब यह
गीत पौंड्स कम्पनी के एक उत्पाद ‘रिवर्स टैन’ के विज्ञापन में बैकग्राउंड संगीत की
तरह इन्हीं बोलों के साथ दिखता है | यह गीत फिल्म के नायक-नायिका के आंतरिक
संबंधों में विभिन्न प्रकार के भावों को खुलकर स्वीकार करने को दर्शाता है लेकिन
विज्ञापन में यही गीत उपभोक्ता के मन को सौन्दर्य के उत्पाद के प्रति आकर्षित करने
का काम करता है जिससे उसकी दूसरी भूमिका हमारे सामने आती है | यह भूमिका सीधे-सीधे
व्यापारिक सम्बन्ध की पैरवी करती है | इस प्रवृत्ति के अन्य उदाहरण भी बड़ी आसानी के
साथ देखे जा सकते हैं | फिल्म ‘लव आजकल’ का गीत ‘ये दूरियाँ’ मारुती गाड़ी बेचने के
लिए, एप्पी ब्रांड का सेब का जूस बेचने के लिए ‘मैं खिलाड़ी तू अनाड़ी’ का इसी नाम
का गीत तथा फिल्म ‘बचना ऐ हसीनों’ का गीत ‘खुदा जाने’ भी एक ब्रांड को बेचने में
अभी हाल ही में उपयोग में लाये गए हैं | इससे स्पष्ट होता है कि बॉलीवुड फिल्म
उद्योग से जुड़े तमाम सिनेमाकर्मियों को इसी प्रकार की प्रतिभागिता का अवसर मिला है
जिसमें उनके प्रयास ये होंगे ही कि उनकी फिल्म का निर्मित गीत फिल्म के बाहर भी
अपनी अलग बाज़ारवादी पहचान बनाए और किसी उत्पाद या ब्रांड को प्रोत्साहित और
विज्ञापित कर आर्थिक अर्जन करे |
फिल्म
गीतों की यह प्रवृत्ति विज्ञापन जगत में अपनी पैठ बनाने के आलावा भी अपने व्यापार
को सशक्त करने के लिए अपने बोल का उपयोग कर बाज़ार को मजबूत करने और नए इलाकों में
अपनी जगह बनाने के प्रयास करती हुयी देखी जा सकती है| अपने शब्दों से बाज़ार के
उत्पादों के प्रति आकर्षण रचने का यह खेल अक्सर अति-लोकप्रिय होते गीतों में
देखने-सुनने को मिल जाता है | इसका एक अनन्य उदाहरण अभी ‘राऊडी राथोड़’ फिल्म के
आइटम गीत में सुनने को मिला है | यह फिल्म चालीस करोड़ की लागत से बनी थी और बॉक्स
ऑफिस रिपोर्ट के अनुसार इसने दो सौ एक करोड़ रूपये बनाये थे | इस फिल्म की
लोकप्रियता में ‘प्रीतम प्यारे’ गीत की भूमिका को नकारा नहीं जा सकता क्योंकि यह
धड़ल्ले से लोकप्रिय हुआ था और तमाम हिटलिस्ट में अपनी पहचान बना रहा था | इस गीत
के लेखक थे समीर अनजान और साजिद-वाजिद ने
इसे अपना संगीत दिया था | इस गीत को गाया है ममता शर्मा और सरोश सामी ने | यह गीत
आइटम के तौर पर फिल्म में रखा गया है और ज़ाहिर है कि इसकी यूएसपी में सेक्स अपील
केन्द्रीय तत्व था | लेकिन इस गीत में मार्के की बात यह दिखती है कि सेक्स अपील को
इसमें उत्पाद के साथ जोड़ा गया था जिससे मास कल्चर की इस विशेषता में दर्शक का मन
लगातार उपभोक्तावाद की ओर संचालित किया जाता है | इस गीत के दूसरे अंतरे के बोल इस
प्रकार हैं –
“ मैं तो हूँ जंगल की नाज़ुक हिरनिया रे,
खूँखार ज़ालिम शिकारी है तू
अरे काटे सुपारी बना के मुझे जो वो , आरी रे
आरी है तू
आरी आरी आरी आरी आरी है तू
उन न गड्डी दिखा, उन न बॉडी दिखा ”
गीत के इन बोल से यह स्पष्ट होता है कि
शिकारी जिन हथियारों से हिरणी का शिकार करेगा उनमें उसकी ‘गाड़ी’ और ‘बॉडी’ दोनों
शामिल हैं | गाड़ी तो सीधे बाज़ार की देन है ही लेकिन जिस बॉडी की मांग यहाँ की जा
रही है वह इसी संरचना के अनुसार कोई सिक्स-पैक-एब्स वाली ही होनी चाहिए | कहने की
आवश्यकता नहीं की गीत का बाज़ार यहाँ दर्शक को उस बाज़ार की ओर पहुँचाने की भूमिका
बना रहा है जिसे मार्केट की भाषा में ऑटोमोबाइल सेक्टर और स्पोर्ट्स प्रोडक्ट या
हेल्थ सेक्टर कहा जाता है | संभवतः चौमस्की की भाषा में यही माइंड को कंडीशन करना
है | विज्ञापन और बाज़ार के साथ ही आज के टीवी समाचारों में भी इन फिल्मी गीतों के
प्रयोग-उपयोग रोज़ देखे जा सकते हैं जब ख़ास तौर पर खबर किसी सेलेब्रिटी की हो | यहाँ
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के लिए ‘सिंह इज़ किंग’ फिल्म के टाइटल गीत का उपयोग देखा
जा सकता है |
फिल्म
गीतों की समकालीन प्रवृत्ति में पॉपुलर भाषा का उपयोग बहुत तेजी से बढ़ा है | यहाँ
पॉपुलर भाषा से अभिप्राय उस भाषिक प्रयोग से है जो शब्दों और कभी-कभी व्याकरणिक
प्रयोग की संरचनात्मकता को तोड़ती है | इसमें गीत का वाक्य विन्यास तो एक भाषा का रहता
है लेकिन शब्दों के प्रयोग में ग्लोबल विलेज वाली स्थिति हावी होती दिखती है |
बल्कि यदि गीत के बोल को उनके दृश्यों और दृश्यांकन प्रविधि से जोड़कर देखा जाए तो
पता लगता है कि ‘कलात्मकता’ जैसे स्थगित ही कर दी गयी हो | इसका प्रमुख कारण तो
रीमेक की प्रवृत्ति है जिससे फिल्म बनाने और दृश्यांकन के तरीकों में विविधता का
लगातार लुप्त होते चले जाना है | इसका भी आंतरिक कारण अत्यधिक लाभ कमा कर अगले
‘प्रोजेक्ट’ में लग जाना है | इस कारण फिल्म और उनके गीत थोड़े अन्तर से रीमेक भी
नहीं लगते बल्कि छायाप्रति ही प्रतीत होते हैं | लेकिन कहने की आवश्यकता नहीं की
पूंजी के अपने तर्क होते हैं इसलिए उसकी अपनी संस्कृति होती है | हाल में
प्रदर्शित कोई भी ब्लॉकब्लस्टर इस प्रवृत्ति का उदाहरण हो सकती है जिसे दक्षिण में
अपार सफलता के कारण हिन्दी में दोहराया गया है और यहाँ पर भी वे सुपरहिट की श्रेणी
में रखी जा सकती हैं | बम्बईया टपोरी की मस्ती भरी भाषा, पंजाबी-हरियाणवी मुंडे की
कड़क देसीभाषा या फिर कॉस्मोपॉलिटन में रहने वाले युवा की मेट्रोसेक्सुअल स्लैंग्स
के गीतों के भीतर के प्रयोग बॉलीवुड की भोगौलिकता में आने वाले क्षेत्रों को
एकभाषी साम्राज्य में परिवर्तित करता चलता है जिसमें आधुनिक भाषिक संस्कार, नियम
और प्रयोग थिरकन में बहुत पीछे छूटने लग जाते हैं | यहाँ सन 2006 की सुपरहिट ‘लगे
रहो मुन्नाभाई’ का टाइटल गीत देखा जा सकता है | इसका संगीत शांतनु मोइत्रा ने दिया
है और गाया है विनोद राठोड़ ने | इस गीत के लेखक स्वानन्द किरकिरे हैं | टपोरी भाषा
में इस अत्यंत पॉपुलर गीत के अंतरे के बोल हमें एक नई भाषिक उपस्थिति दर्ज करने पर
मजबूर करते हैं –
“ख़्वाबों में वो
अपुन के रोज रोज आये
खोपड़ी के खोपचे में खलबली मचाये
खाली पीली भेजा
साला यों ही फडफडाये”
इन
शब्दों से यह साफ़ पता चल रहा है कि रोमांस को कॉमेडी के आवरण में प्रस्तुत किया जा
रहा है और फिल्म का आरम्भिक गीत होने के नाते यह चरित्र की कोमलता की सूचना पॉपुलर
भाषा के प्रयोग के साथ दे रहा है | मुन्ना ‘भाई’ ज़रूर है जिसे फिल्म किसी अपराधी
या खूनी की सच्चाई के साथ नहीं पेश करती लेकिन उसके रोमांटिक पक्ष को लगभग गाली
जैसी सुनायी देने वाली भाषा में प्रस्तुत कर रही है | यदि इस भाषा का अवलोकन भाषा
के सैद्धांतिक पक्ष से किया जाए जिसे हम स्कूल-कॉलेजों में पढ़ते हैं तो समझ आ जाता
है कि इस गीत की लोकप्रियता उन्हें याद रख पाने में हमें अक्षम ही साबित करेगी |
यह मस्ती का ऐसा नशा पैदा करेगी जिसके माहौल में अनुशासित होने के लिए अतिरिक्त
सतर्कता की आवश्यकता होगी | इस प्रकार के सैकड़ों गीत इधर की फिल्मों में देखने को
मिलते हैं जिसमें ‘चांदनी चौक टू चाइना’ का ‘छत्ता मदन गोपाल’ जैसे कई गीत और योयो
हनी सिंह के प्रयोग भी शामिल होते हैं |
यदि भाषा की दृष्टि से देखें
तो एक अन्य मुखर बदलाव आज के फिल्मी गीतों में दिखता है वह है अंग्रेज़ी की लगातार
अनिवार्य होती स्थिति | आज के अधिकतर गानों में जब फ़्यूजन का प्रचलन बढ़ रहा है तो
ऐसे में यह स्थिति दिखती है कि अंग्रेज़ी के उपयोग से हिन्दी का युवा चरित्र
ग्लैमराइज़ होता दिखता है | अंग्रेज़ी के ये बोल बीच में जैसे गाने को पिछड़ा होने से
बचाते हैं और उसे मेट्रो कल्चर का संरक्षण प्राप्त होता है | अभी हाल में आयी ‘रेस
2’ के एक गीत पार्टी ऑन माई माइंड’ का मुखड़ा है –
“ मैंने पहने पार्टी शूज़, गोना लेट माई बॉडी लूज़
कर ली है थोड़ी बूज़, देयर्स पार्टी ऑन माई माइंड ”
यह गीत
लिखा है प्रशांत इंगोले और हनी सिंह ने और इसके गायक हैं केके, हनी सिंह और शेफ़ाली
अल्वरीज़ | यह गीत किसी भी प्रकार से हिन्दी का नहीं कहा जा सकता क्योंकि इसमें
शब्दों का संघटन अंग्रेज़ी वाक्य विन्यास में हिन्दी गाने को ढोने जैसा है | यह
हिन्दी गाने को फ़्यूजन के अवतार में ढाल रहा है और सच कहें तो यह हिन्दी पट्टी के
परम्परावादी श्रोता-दर्शक को गीत समझने और गुनगुनाने की चुनौती भी दे रहा है |
जैसे जो लोग इसमें बॉडी लूज़ करने और बूजिंग के अर्थ और उच्चारण को समझ कर थिरक
सकते हैं वे ही मास कल्चर के इस मनोरंजन के न केवल उपभोक्ता बनने की क्षमता रखते
हैं बल्कि नव्य-सांस्कृतिक क्षेत्र के प्रामाणिक
नागरिक भी होंगे | जो इसका आस्वादन पूरी शिद्दत के साथ नहीं कर सकते वे
अपनी जगह ‘देसी’ कम्पार्टमेंट में तलाशें या फिर अपनी झेंप को संभालें | कहना न
होगा कि अन्य उदाहरणों की तरह यह भी साल के बड़े सुपरहिट गाने में से है और तमाम
महफ़िलों और टीवी-रेडियो-इन्टरनेट-यात्रा-फेस्टिवल आदि पर इसने अपनी उपस्थिति
लगातार दर्ज कराई थी | संभवतः अगर गीत के क्लासिकल रूप को छोड़ दिया जाय तो यह
प्रवृत्ति लगभग हर बड़ी हिट फिल्म का हिस्सा रही है जिसके और सैकड़ों प्रमाण बड़ी
आसानी से मिल जायेंगे | इसकी एक अन्य मिसाल इसी वर्ष की एक फिल्म ‘स्टूडेंट ऑफ़ द
ईयर’ के अत्यंत लोकप्रिय गीत ‘राधा’ में देखी जाती है जहाँ अंग्रेज़ी फ़्यूजन की
बदौलत श्रोता को यह याद कराया जाता है कि ‘राधा’ को पार्टी करना पसंद है और उसकी
सेक्सी बॉडी पार्टी फ़्लोर पर थिरक रही है| देखा जाए तो उपभोग के समय ये श्रोताओं
के लिए अपने निजी बिम्ब का निर्माण करते हैं और अपने आस पास नृत्य करने वालों में
इसी गाने में व्यक्त हुयी ‘राधा’ को प्रस्तावित करते हैं |
फिल्मी गीतों की
भाषा में एक अन्य प्रवृत्ति जो गाने को देसी रंग देने के लिए उपयोग में लाई जा रही
है वह है ‘रैप’ का बढ़ता प्रचलन | गीत के बीच एक अतिरिक्त ताल की तरह यह लगभग
विमर्श जैसा है | इस प्रवृत्ति की खासियत रही है कि इसका प्रचलन समय-समय पर
घटता-बढ़ता रहा है | लेकिन हनी सिंह जैसे रैप आर्टिस्ट की मौजूदगी और अत्यंत तेजी
के साथ बढ़ती लोकप्रियता के कारण इसकी स्थिति मजबूत होती चली जा रही है | यहाँ तक
कि पंजाब सरकार को हनी सिंह की कुछ निर्मितियों पर रोक लगानी पड़ी और इसकी प्रतिक्रिया
भी एमटीवी पर उन्होंने दी थी | उनके एक गीत का टाइटल ही है ‘मैं हूँ बलात्कारी’
जिसके बोल गालियों से पटे पड़े हैं और उसमें लड़कियों की छवि का निरूपण बर्बर रूप
में किया गया है | यहाँ तक कि बलात्कारियों द्वारा क़ानून के खरीदे जाने के तर्क को
भी मान्यता देने का प्रयास किया गया है | इन्हीं हनी सिंह का भरपूर उपयोग अब गायन और
रैप का प्रभाव जमाने के लिए अब बॉलीवुड बेझिझक कर रहा है | अभी हाल ही में
प्रदर्शित ‘खिलाड़ी 786’ के गीत ‘लोनली’ में उनके रैप का उपयोग हिमेश रेशमिया ने
कराया और यह भी बहुत लोकप्रिय साबित हुआ |
हिन्दी
फिल्मों के रीमेक या पुनर्निर्माण की बढ़ती प्रवृत्ति से भी समकालीन हिन्दी गीत
प्रभावित हो रहें हैं | आज के अभिनेताओं के साथ इनका पुनर्फिल्मांकन अतीत की
लोकप्रियता को वर्तमान समय में भुना कर लाभ कमाने का साधन बनता जा रहा है | ऐसे
में एक सवाल यह बनता है कि नए गीतकारों के लिए व्यापार और रोज़गार की जगह के कुछ हद
तक सिमटने का खतरा बन रहा है | इसका फायदा यह है कि गाने की लागत कम होती है और
पहले के दौर में उस गीत के हिट होने की
वजह से उसकी सफलता भी सुरक्षित मानी जा सकती है | इन फिल्मों के चुनाव का आधार भी आज की मार्केट वैल्यू करती है | इसका अर्थ यह
है कि अतीत की जिस फिल्म में आज का मसाला देने की क्षमता होगी उसके चुने जाने की
उतनी अधिक संभावना होगी | हाल में ऐसी ही एक फिल्म आयी ‘हिम्मतवाला’ जिसे
निर्देशित किया साजिद खान ने | यह जीतेंद्र और श्रीदेवी द्वारा सन तिरासी में अभिनीत ‘हिम्मतवाला’ की रीमेक है
जिसमें अजय देवगन और दक्षिण की अभिनेत्री तमन्ना ने अभिनय किया है | कहानी तो वही
थी, स्क्रीनप्ले की सहूलियत भी इसे निर्मित करने में मिली| लेकिन ख़ास बात यह थी कि
इसके गीत भी वही थे | नई हिम्मतवाला में गीतकार के नाम में मूल लेखक इन्दीवर के
साथ समीर अनजान का नाम दिया है तथा संगीतकारों में बप्पी लहरी के साथ साजिद-वाजिद
का नाम मौजूद है | इस फिल्म के दो गीत ‘नैनों में सपना’ और ‘ताकि’ अपने समय के बड़े
हिट थे जिसकी धुन अभी भी भारतीय दर्शक नहीं भूला | ‘नैनों में सपना’ गीत में तो
नृत्य भी वही प्रस्तुत किये गए हैं जो जीतेन्द्र और श्रीदेवी पर फिल्माये गए थे |
ये दोनों ही गीत आज भी उसी धुन के साथ बहुत पसंद किये गए और महीनों उनका प्रसारण
हर म्यूज़िक चैनल करता रहा | इसके गायक जहाँ पहले किशोर कुमार थे वहीँ अब उनके
सुपुत्र अमित कुमार ने इस बार अपनी आवाज़ अजय देवगन को दी है | इस प्रकार के और भी
प्रयोग इधर बॉलीवुड में देखने को मिले हैं | ‘नौटंकी साला’ नाम की अभी आयी फिल्म
में अनिल कपूर की दो अलग फिल्मों के गानों का प्रयोग देखने को मिला है | माधुरी
दीक्षित और अनिल कपूर पर फिल्माया ‘बेटा’ फिल्म और अपने समय का लोकप्रिय गीत ‘धक
धक करने लगा’ तथा ‘तेज़ाब’ फिल्म का गीत ‘सो गया ये जहां’ का रीमेक इस फिल्म में
आकाश खुराना, कुणाल रॉय कपूर, इवलीन लक्ष्मी शर्मा इत्यादि पर किया गया है | ख़ास
बात यह है कि इस फिल्म में आकर दोनों गीत अपने पुराने अर्थ खो बैठते हैं भले ही
उनके लक्ष्य में कोई अंतर नहीं आया | जो नयी पीढ़ी का दर्शक इन फिल्मों और उनके
गीतों को मेलोद्रमाटिक, पिछड़ा और डाउनटाउन या घटिया मानता था, इस फिल्म में आते ही
वही उन्हें मेट्रोसेक्सुएलिटी और सेक्स सिम्बल के अद्यतन चिह्न की तरह स्वीकार
करने लगा | अब इसमें माधुरी दीक्षित और अनिल कपूर की तरह कोई बड़ी स्टारकास्ट नहीं
है, लेकिन कम बजट की नई और अधुनातन कहानी प्रस्तुत करने वाली फिल्म में भी यह
बिकने और लोकप्रियता के मामले में लगातार अपनी जगह बनाये हुए है |
फिल्मों में इस
प्रवृत्ति की बढ़ती स्वीकृति और गंभीरता का एहसास तो तब होता है जब ‘पानसिंह तोमर’
जैसी ऑफबीट और दुर्लभ फिल्म में भी यह देखने को मिलता है | पारम्परिक रूप से कला
फिल्मों के नायक इरफ़ान खान अभीनीत यह फिल्म चम्बल के मशहूर धावक और राष्ट्रीय
चैम्पियन पानसिंह तोमर की कहानी है जिनके बागी कृत्यों और समर्पण न करने की वजह से
पुलिस से हुयी मूठभेड़ में उनकी मृत्यु हो गयी थी | उनके जोश, विद्रोह और साहस को व्यक्त करने के लिए सन 1985 की
फिल्म ‘अर्जुन’ का ‘केड़ो मामा’ गीत इसमें दिया गया है | इसके लेखक जावेद अख्तर हैं
और इसका संगीत आर.डी. बर्मन ने दिया था | लेकिन इस फिल्म में इस गीत के प्रयोग की
ख़ास बात यह है कि यह अब भी जब सुनने को मिलता है तो इसमें पानसिंह के संवाद भी बीच
में सुनायी देते हैं जिससे इसके विद्रोही तेवर के संदर्भ प्राप्त होते हैं | मसलन
अधिक गति में बजती धुनों और बोलों के बीच एक संवाद सुनायी पड़ता है जो इस तरह है कि
–
“ बीहड़ में बागी होते हैं, डकैत
बनते हैं पार्लियामेंट में ”
यह संवाद पानसिंह के विद्रोह को जानने के लिए आधार का काम करता है क्योंकि
इससे यह पता चलता है कि उसका लक्ष्य किसी वैचारिक आपत्ति और लोकतंत्र के
प्रतिनिधियों में भरोसा न होने से है | इस पर गीत के बोल यह घोषणा करते हैं कि
“दुश्मन को ये बता दो दुश्मनी है क्या” | इस प्रकार देखें तो यह समझ बनती है कि
रीमिक्स या रीमेक का उपयोग आज के दौर में भी ‘ऑर्गेनिक’ संरचना दे सकता है, लेकिन
फिलहाल इस प्रवृत्ति में भी यह स्वाभाविक रूप से दुर्लभ ही है |
समकालीन फिल्म गीतों
में इधर एक नया प्रयोग यह देखने को भी मिल रहा है कि उदारवादी नीति के समर्थन में
भी नई जनसांख्यिकीयता के निर्माण में अपना योगदान वह दे रही है | इन जनसांख्यकीय
बदलावों को लाने का कारण भी बाज़ार को मजबूत करना होता है जिससे टार्गेट ऑडियंस के
अतिरिक्त नए उपभोक्ता-वर्ग की निर्मिती और पहचान होती है| ये प्रयोग हमेशा तो नहीं
चलते लेकिन समय-समय पर इस दृष्टि से फिल्म निर्माण या गीतों की रचना होती है और
देखने को मिलती है | फिलहाल कहा जा सकता है कि इधर सेक्स अपील और वृद्ध या अधेड़
उम्र के सम्बन्ध को बॉलीवुड ने स्थान दिया है और वह भी बिलकुल नए पैमानों के आधार
पर | इसी लेख में जिस फिल्म ‘एक मैं हूँ और एक तू’ के गीत की चर्चा की थी, उसी
फिल्म का एक गीत ‘आंटी जी’ इस प्रवृत्ति का बेजोड़ उदाहरण है | इसे अमिताभ भटाचार्य
ने ही लिखा है जिसे संगीत दिया है अमित त्रिवेदी ने और ऐश किंग ने आवाज़ दी है | इसमें
आंटी जी से डांस करने की अपील की गयी है और उन्हें यह भरोसा दिलाया गया है कि काफी
उम्र बीत जाने के बावजूद वे अब भी आकर्षित करने में पूरी तरह सक्षम हैं | इस गीत
का एक अन्तरा है –
“ पतली
नहीं जो कमर तेरी तेरी तो क्या, अब भी लगे है गदर बड़ी बड़ी बेबी
स्माइल अभी भी है मिलियन डॉलर आंटी
है न
जो तेरा वो हबी हबी हबी हबी , लगने लगा है तेरा डैडी डैडी डैडी
बिटिया जो तेरी वो बहन लगे है आंटी ”
इन शब्दों को गीत में बहुत तेज गति की धुन
में सुनने के बाद फिल्मी ‘आंटी’ की छवि ही बदल जाती है और लगता है कि अब भी वो
पूंजी की संरचना में अपनी सकर्मक भूमिका निभा सकती है | यह प्रवृत्ति टीवी सीरियल
की अधेड़ स्त्री से काफी मिलती जुलती है जो जेल में भी फैशन आइकॉन की छवि देती है
और ग्लैमर के नए अंदाज़ प्रस्तुत करती है | यह मास मीडिया द्वारा रचा गया चारित्रिक
बदलाव है जिसकी भाषा अधेड़ उम्र के लोगों को नई पहचान चुनने के अवसर देती है | वह
मिलियन डॉलर की मुस्कान को अन्य आकर्षणों से वरीयता दे रही है और मास में यह सन्देश
देने का प्रयास कर रही है कि धीरे-धीरे वयमुक्ति की ओर बढ़ कर सेक्स अपील को पाया
जा सकता है | इसके लिए वह अन्य संबंधों का उपयोग भी बड़ी चालाकी के साथ चापलूसी की
भाषा में कर रही है | इससे यही प्रतीत होता ही कि मास मीडिया ने सेक्स अपील और
उसकी भाषा को सांस्कृतिक सत्ता का मूल
मन्त्र बना दिया है | ऐसे ही अन्य प्रयोग अमिताभ बच्चन को लेकर बॉलीवुड में इधर
किये गए हैं जिनमें ‘बुड्ढा होगा तेरा बाप’ इसी दृष्टि से उल्लेखनीय है | इस फिल्म
के टाइटल गीत को स्वयं अमिताभ बच्चन ने ही अपनी आवाज़ दी है और इसके संगीतकार विशाल-शेखर
हैं | विशाल ददलानी ने इस गीत को बोल दिए हैं | इसमें वयोवृद्ध नायक एक अंतरे में
धमकाते हुए कहते हैं
“ सोच समझ
कर जरा सामने तू आ, सोच समझ कर जरा तेवर दिखा
सोच समझ
कर जरा जरा क्वेश्चन पूछ, दे दूँ न मुट्ठी से जवाब
बुड्ढा
होगा तेरा बाप ”
यह समझने
में बहुत परिश्रम की आवश्यकता नहीं है कि यहाँ पर बुढापे के नायकत्व और फिल्मी
पौरुष को वैधता और स्वीकृति देने का प्रयास किया जा रहा है जिससे एक नया उपभोक्ता
वर्ग पैदा किया जा सके और जनसांख्यकीयता में कुछ नया खेल निर्मित किया जा सके |
इसका उद्देश्य यह है कि बुढ़ापा कोई कमजोरी की निशानी नहीं है, उसके वय को जीने
वाला व्यक्ति युवाओं द्वारा किया जाने वाले हर कार्य को निभा देगा | सवाल यह है कि
क्या सच में इस धारणा के पीछे और इस जनसांख्यकीय बदलाव को लाने में अमिताभ बच्चन
की उपलब्धता एक बहुत बड़ा कारण नहीं है ? मास मीडिया यही सन्देश देना चाहता है कि
बुढ़ापा हो तो अमिताभ बच्चन जैसा जिन्हें आज भी कई युवाओं से भी बेहतर अवसर और
कलात्मक वरीयता प्राप्त हो जाती है | वे वाकई कई युवाओं की तुलना में आज भी नए
तरीके से स्टाईल निर्मित करना जानते हैं और इसीलिये इस उम्र में भी आकर्षण का
केंद्र बने हुए हैं | इसीलिए यह गीत बुढ़ापे का आधार लेते हुए फिल्म के बाहर भी
अपनी एक समझ बनाता है और मार्केट के आंतरिक संघर्ष की सूचना देता है |
बॉलीवुड
का गीततंत्र मूलतः भावनाओं और मस्ती का
ऐसा आउटलेट है जो साधारण व्यापार तक सीमित नहीं रहता बल्कि संस्कृति
निर्मित करता है और इस कार्य को अंजाम देने में यदि परम्परा और लोक की मांग उसे
मिलती है तो वह उसे भी एक कमाऊ माल की तरह अपने उपयोग में लाता है | यही कारण है
कि आज उसके सम्बन्ध सूफी, भजन और ग़ज़ल जैसी क्लासिकल विधाओं से और अधिक सशक्त जान
पड़ते हैं | अभी 2013 में ही रिलीज़ हुयी
फिल्म ‘कॉकटेल’ के एक गीत ‘तुम ही हो बन्धु’ ने धूम मचा दी थी जिसका संगीत प्रीतम
ने दिया था और इसे इरशाद कामिल ने लिखा है |
इसे गाया था नीरज श्रीधर और कविता सेठ ने | सन 1962 की एक फिल्म ‘मैं चुप
रहूंगी’ में एक भजन प्रस्तुत किया गया था जो बहुत लोकप्रिय हुआ | इस भजन को ‘तुम
ही हो माता पिता तुम्हीं हो’ के शब्दों से अपनी एक ठोस पहचान मिली थी और वह भी
त्वमेव माता च पिता त्वमेव जैसी संस्कृत की प्रार्थना से प्रेरित था | लेकिन
कॉकटेल का यह गीत इस भजन से प्रेरित होते हुए इसे फिल्मी प्रेम की अभिव्यक्ति के
रूप में प्रस्तुत करता है | इस गीत के बोल में लिखा है-
“ तुम ही दिन चढ़े, तुम ही दिन ढले
तुम ही हो बंधू, सखा तुम्ही हो
एवरी टाइम एवरी मिनट ऑफ़ द
डे, तुम्ही हो बंधू,सखा तुम्ही हो ”
एक
पुराने फिल्मी भजन के आधार पर रचा गया ये गीत उतना ही लोकप्रिय हुआ जितना कि साल
का कोई भी आइटम गीत | ‘मैं चुप रहूंगी’ वाले गीत को राजिंदर क्रिशन ने लिखा था और
उसे चित्रगुप्त ने संगीत दिया था जिसे लता मंगेशकर ने गाया था | यह आगे के अध्ययन
का विषय बनता है कि क्या धुन विशेष या संगीत के लोकप्रिय फॉर्मेट की वजह से कोई
गीत इतने साल बाद भी इतना बड़ा हिट होता है या फिर स्टारकास्ट और गीत के फिल्मांकन
ने इस प्रवृत्ति को पनपाया है | यह विदेशी माहौल में फिल्माया गया गीत है जिसे
बहुत ही फ्री मानसिकता के आधार से वैधता और लोकप्रियता मिली है | लेकिन इस गीत से
ध्यान इस तरफ आकर्षित होता है कि एक लोकप्रिय भजन के आधार को नकार कर कैसे श्रोता
ने इतने बड़े परिवर्तन को स्वीकार किया है| इसी प्रकार इधर की फिल्मों में सूफी
गीतों की बाढ़ आयी सी दिखती है जैसे वह फिल्म के माहौल को गंभीरता प्रदान करने का
एक निश्चित फ़ॉर्मूला बन गया है | इसकी संख्या बहुत है जैसे कि जोधा अकबर में
ख्वाजा मेरे ख्वाजा, वान्स अपोन अ टाइम इन मुंबई में इश्क सूफियाना, तनु वेड्स मनु
में रंगरेज़, रॉकस्टार में नादाँ परिंदे और काया फून | यह लिस्ट बहुत बड़ी बन सकती
है लेकिन वह इस प्रवृत्ति को साबित करती है कि हिट फ़ॉर्मूला के कारण आज की फिल्मों
में क्लासिकल प्रारूपों का उपयोग एक बहुत बड़ी प्रवृत्ति के रूप में लगातार बढ़ रहा
है | कई बार तो इसमें मध्यकालीन और स्थापित साहित्य तथा लोकसंस्कृति का उपयोग भी साफ़-साफ़ दिखता है |
उदाहरण के लिए इरशाद कामिल द्वारा लिखित
रॉकस्टार का गीत नादाँ परिंदे के अंतरे के इन बोलों को देखा जा सकता है –
“ कागा
रे कागा रे मोरी इतनी अरज तोसे चुन चुन खाइयो मांस
खाइयो
न दो नैना मोरे,खाइयो न दो नैना मोरे, पिया के मिलन की आस ”
जो लोग
मलिक मोहम्मद जायसी के साहित्य और लोक साहित्य से थोड़ा भी परिचित हैं उन्हें यह
पहचानने में देर नहीं लगेगी कि ऊपर दी गयी पंक्तियों का परिचय उन्हें पहले से ही
प्राप्त है | ‘रॉकस्टार’ में इसे मोहित चौहान ने गाया है और ए.आर. रहमान ने इसे
अपना संगीत दिया है | लेकिन इस गीत की लोकप्रियता और व्यापकता यह सिद्ध करने में
सफल है कि आज भी यदि समकालीनता में लोक परम्परा और साहित्य का संतुलित प्रयोग किया
जाए तो ये गीत मनुष्यता के भूले-बिसरे पाठों के स्मृति तत्व का कार्य कर सकते हैं
| लेकिन यह इस पर निर्भर करता है कि इनका उपयोग-प्रयोग किस दृष्टिकोण से किया जा
रहा है | फिलहाल फिल्मों से ऐसी अपेक्षा रखना स्वयं समकालीनता के दायरे से बाहर
होना लगता है |
अंत में फिल्मी गीतों के एक अन्य समकालीन महत्वपूर्ण पक्ष पर ध्यान आकर्षित करना
अनिवार्य लगता है | नए मीडिया की प्रस्तुति का प्रभाव भी इन गीतों की संप्रेषणीयता
को निर्मित और विखंडित करने में आज विशेष भूमिका निभाता है | रेडियो और दूरदर्शन
के खालिस दौर में दर्शकों की प्रतिक्रिया नैतिक और आदर्शवादी होती रही होगी और
इसकी संभावना प्रबल है कि कम स्पेस में मीडिया इतनी जगह भी दर्शकों को नहीं देता
रहा होगा | लेकिन आज बात इतनी सरल नहीं रह गयी है | आज का मीडिया तो अपने सभी
कार्यों का भार दर्शकों की अपेक्षा और मांग पर छोड़ कर छुट्टी पा लेता है |
मार्केटिंग के बड़े से बड़े गुरु भी आज यह मान चुके हैं कि आज उपभोक्ता केन्द्रित
व्यापार चलता है | ऐसे में नए मीडिया ने जो तारतम्य इस सिद्धांत से बिठाया है वह
अभूतपूर्व ही कहा जाएगा | ऐसे में फिल्म गीत अपने गर्भ तक कैसे सीमित किया जा सकते
हैं ! फिल्म के गीत उनकी कहानियों के अनुसार और चरित्र की अनुकूलता को देखकर
प्रचलन में आये थे | वे एक कहानी का
अनिवार्य हिस्सा होते थे परन्तु ऐतिहासिक दबावों के कारण जैसे वे उस बंधन से
लगातार मुक्त होते चले आये और लोगों में उनकी बातचीत के संदर्भ भी बदलने लगे |
इसके दो लक्षण तो सीधे-सीधे देखे जा सकते हैं | पहला तो म्यूजिक चैनलों कि भूमिका
है | आज फिल्मी गीतों को चौबीस घंटे प्रसारित करने वाले दसियों चैनल हैं जो युवा
वर्ग में लगातार उसके उपभोक्ता पैदा कर रहे हैं| इनके कार्यक्रमों की संरचना सरल,
नैतिक और आदर्शवादी नहीं है | वे लगातार कामुकता और अश्लीलता और युवा वर्ग के
सम्बन्धों को भुनाते हुए अपनी रोटियाँ सकते हैं, जिसका परिणाम यह होता है कि गाने
अपनी फिल्म से पूरी तरह कट कर स्वतंत्र उत्पाद में परिवर्तित होते चले जाते हैं और
अब उनकी रैंकिंग की जाती है | इसका प्रबल प्रमाण यह है कि इधर इन चैनलों पर
‘मैशअप’ की बढ़ती प्रवृत्ति दिखेगी | ये तमाम चैनल युवा वर्ग की सुबह न होने देते
हुए उन्हें फिल्मी गीतों का जलपान परोसते हैं और उन गीतों की प्रस्तुति अपने
फ़ॉर्मूले के अनुसार करते हैं | इधर पिछले दो-तीन वर्षों के गीतों और रीमिक्स को
मिला कर मैशअप की जो नई श्रृंखला दिखती है उनमें अभी ज़ीरो ऑवर, वैलेंटाइन, डर्टी,
सलमान खान और टपोरी मैशअप्स प्रमुख हैं | ये डीजे के फ़ॉर्मूले पर विभिन्न फिल्मों
के गीतों के कामुक और लोकप्रिय अंशों को एक साथ ही संरचित कर देने की हाल की
शुरुआत है | नया वर्ग निर्मित करने के अलावा इसका एक अन्य लाभ यह है कि मैशअप से
कंसम्पशन पैटर्न का पता लगता है जिसके आधार पर आगे के मीडिया उत्पादों के निर्माण
के नए आईडिया बनाये जा सकते हैं |
अपने
मूल अर्थ से कटने का गीतों का आज जो दूसरा लक्षण देखा जा सकता है वह है नए मीडिया
पर स्वयं दर्शकों की प्रतिक्रिया | जैसा की कहा जा चुका है कि आज की नैतिकताविहीन
स्थिति में उपभोक्ता को भी अपनी तरह से सोचने-समझने और अभिव्यक्त करने की छूट
प्राप्त है, अब इसके प्रमाण आम हो गए हैं कि वह गीत देखने-सुनने के बाद किस स्तर
की टिप्पणी करता है | अभी जॉन अब्राहम, चित्रांगदा सिंह और प्राची देसाई पर फिल्माया
गया फिल्म ‘चालबाज़’ की धुन पर प्रस्तुत किया गया एक गीत ‘न जाने कहाँ से आया है’
बहुत लोकप्रिय हुआ है | इस गीत पर अनगिनत टिप्पणियाँ यू ट्यूब पर देखी जा सकती है
जिनमें से दो यहाँ पर अवलोकन के लिए दी जा रही हैं | पहली टिप्पणी गीत से जुड़े
फैशन पर केन्द्रित है | ‘सैम डीनो’ नाम के एक उपभोक्ता ने जॉन की टोपी में
दिलचस्पी दिखाते हुए लिखा है –
“ hey guys
please tell me, john ne jo cap pahna hai uska naam kya hai ? ”
सैम
के इस सवाल से युवा वर्ग या कहें कि दर्शकों की गाने के प्रति जो उपभोक्तावादी
दृष्टि है वह बाज़ार को रोज़मर्रा के जीवन में कैसी धीरे-धीरे हावी करती है इसकी ठोस
पहचान हमें यहाँ मिल जाती है | दूसरी टिप्पणी सेक्स अपील से सम्बन्धित है क्योंकि
वहाँ पर इस विषय को लेकर बहस छिड़ी हुयी थी कि प्राची और चित्रांगदा में से बेहतर
कौन है | बताने की ज़रूरत नहीं है कि यह विषय दोनों के शरीर, नृत्य और अन्य अदाओं
को लेकर चर्चा का हिस्सा बने हैं | प्राची देसाई के विरोधी और चित्रांगदा सिंह के
एक प्रशंसक-उपभोक्ता साहिल नाइक जो लिखते हैं, वह इस प्रकार है कि-
“
bhaad me jaaye teri prachi desai . . . . . . kutte”
साहिल की यह भाषा अब चौकानें या नैतिकता के लगातार गिरते चले जाने के
यथास्थितिवादी मुहावरे को नाटकीयता के साथ व्यक्त करने का माध्यम भर नहीं रह गयी
है | इससे बात भटक जायेगी और अंततः स्थगित हो जायेगी | बल्कि हम जानते हैं कि
तुलनात्मक रूप से यह कुछ भी नहीं है और इस पर अलग से बात-विचार करने की ज़रूरत है |
लेकिन इससे यह समझना ज़रूरी है कि इस प्रतिक्रिया से फिल्मी गीतों के निर्माण का
क्या सम्बन्ध है | अगर लाभ कमाने और भरोसेमंद उपभोक्ता बनाने की दृष्टि से देखें
तो यह समझना पड़ेगा कि साहिल का यह कथन सफलता और उज्ज्वल भविष्य का चिह्न है न कि
किसी प्रकार के नैतिक ह्रास का द्योतक ! जब बाज़ार ऐसी प्रतिक्रियाओं को देखता है
तो उसे यह समझ आता है कि वह उपभोक्ता पर अपना साम्राज्य कायम किये हुए है क्योंकि
वह उसके लिए लगभग साम्प्रदायिक हो चला है और इसके विकास कि संभावना को तलाश कर
आश्वस्त होता है कि खेल अभी आगे भी है | अतः बाज़ार के लिए गीत या सांस्कृतिक
उत्पादों का उचित सन्दर्भों से कटे रहना ज़रूरी है क्योंकि तभी उसका राज स्थापित और
सुरक्षित रह सकेगा | बल्कि यह समझने की ज़रूरत हमें और साहिल जैसे लोगों को है कि
हम वास्तव में अपना जीवन अपने लिए जी रहे
हैं या अन्य की राजनीति का साधन,माध्यम और मोहरा बन रहे हैं | यह समूची सोच हमारी
शिक्षा, मनोरंजन और जीवन शैली से ही गायब है !
तमाम
माध्यमों और सांस्कृतिक उत्पादों के बीच जीते हुए अब यह अहसास होने लगा है कि हम
अति-लोकतांत्रिकता के भँवर में फँसे हुए लोग हैं | सत्य एक नहीं अनेक प्रतीत होते
हैं | ऐसे में हमारे अर्जित किये हुए समस्त प्रत्यय एक ओर हमें चुनौती देते हैं तो
दूसरी ओर हमें ही अपनी बनायी हुयी यांत्रिकता को परीक्षाएँ देनी पड़ती है | ऐसे में
गीतों की अन्य समकालीन प्रवृत्तियों से नज़र फिसल जाए तो आशा है कि इसे भी “वक्त का
हँसी सितम” मानकर आगामी प्रतीक्षा का अवसर दिया जा सकता है क्योंकि संभव है कि कभी
अंतहीनता का अंत मिल ही जाए !
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अरुणाकर पाण्डेय कृत साभार
9910808735
arunakarpandey@gmail.com
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