मशेर से मुलाक़ात उस समय हुर्इ थी जब वे दिल्ली विश्वविधालय की टयूटोरियल लाइब्रेरी बिलिडंग की पहली मंजि़ल पर एक कमरे में उर्दू विभाग की एक योजना के तहत 'उर्दू-हिंदी शब्दकोश' बनाने के काम के सिलसिले में रोज़ बैठते थे और मैं एम. ए. अंग्रेज़ी करने के दौरान और फिर एक सांध्य कालेज में अंग्रेज़ी के लेक्चरर हो जाने के बाद हिंदी एम ए करने के दौर में यूनिवर्सिटी लाइब्रेरी में ही ज़्यादा समय बिताता था। मेरा यह सिलसिला 1967 से 1980 तक जारी रहा। मेरा ज़्यादातर लेखन भी उस दौर में लाइब्रेरी में ही हुआ था। शमशेर के बाद उसी काम में त्रिलोचन शास्त्री भी लगे थे और उनके साथ भी उसी तरह की बैठकबाज़ी होती थी, बल्कि वे तो खु़द लाइब्रेरी में आकर मुझे तलाश कर लेते थे और दिन में कर्इ बार पान या चायपान के लिए बाहर निकाल ले जाते थे। शमशेर संकोची थे, उन से तो उनके कमरे में ही जाकर मिला जा सकता था। फ़रवरी 1976 में मैं भी माडल टाउन में 'के' ब्लाक के एक मकान की छत पर बनी दो कमरे की बरसाती में शिफ्ट हो गया था। उन दिनों माडल टाउन लेखकों की एक बस्ती की तरह लगता था, हर गली में एक दो लेखक रह रहा था, डा. नगेंद्र, रामदरश मिश्र, राजकुमार शर्मा, आनंद प्रकाश, सुधीश पचौरी, मलयज, मुरलीमनोहरप्रसाद सिंह, अजित कुमार और स्नेहमयी चौधरी, कृष्णदत्त पालीवाल, विश्वनाथ त्रिपाठी, रवींद्रनाथ श्रीवास्तव, बालस्वरूप राही आदि सभी उसी बस्ती में रहते थे, वियोगी हरि भी माडल टाउन से लगे किंग्ज़वे कैंप की हरिजन कालोनी में रहते थे हालांकि मैंने कभी उन्हें देखा नहीं और न ही मैं उन्हें पहचानता था, मुझे यह सच भी नहीं लगता था। शमशेर उस समय मलयज के परिवार के साथ, जी-328 नं0 के मकान के ग्राउंड फ्लोर पर रहते थे जहां अक्सर रविवार को मैं गपशप के लिए चला जाता था, वहां प्राय: मलयज से भी मुलाक़ात हो जाती थी। त्रिलोचन जो बाद में आये थे, वहीं पास ही में एक बरसाती में रहने लगे थे, उनसे तो लाइब्रेरी के प्रांगण में हो ही जाता था, इसलिए घर पर 'सत्संग करने की नौबत नहीं आती थी, मगर शमशेर से मिलना उनके आवास पर ही होता था। त्रिलोचन मेरे घर पर भी आ जाते थे, मगर शमशेर ने सिर्फ़ एक बार 'सरप्राइज़ दिया।
24 जून 1980 को क़रीब दस बजे सुबह वे मेरे आवास पर आये और उनके हाथ में उनका कविता-संग्रह, इतने पास अपने था। वे आ कर बैठे, पानी पिया और संग्रह पर 'डा. चंचल चौहान को बहुत स्नेह के साथ' लिख कर अपने सुंदर हस्ताक्षर और बायीं ओर तारीख़ डाल कर मुझे संग्रह दिया। मेरी खुशी का कोर्इ ठिकाना नहीं था, एक स्वप्न जैसा लग रहा था। उस समय तक मैं अपनी पी.एच.डी. जमा ही कर पाया था, 'डा. तो नहीं ही था, मेरी दो तीन किताबें ज़रूर आ गयी थीं, मुक्तिबोध पर मेरी किताब जो 1976 में छपी थी शमशेर ने और त्रिलोचन ने भी देखी थी, जनवादी समीक्षा भी 1979 में छप चुकी थी। लेखक बिरादरी में मेरी भी गिनती होने लगी थी। बहुत सारे लेख लघुपत्रिकाओं में छप चुके थे, सो दोस्तों ने ठोकपीट कर आलोचक से मिलती जुलती शक्ल वाला 'कुछ' बना ही दिया था। शमशेर जी के लिए शायद आलोचना लिखने वाला कालेज का लेक्चरर 'डा.' ही रहा होगा। इसलिए नाम के साथ 'डा.' लगा दिया।इतने पास अपने संकलन की वह भेंट मैंने संभाल कर रखी हुर्इ है आज भी, कर्इ बार उस संग्रह की कविताएं पढ़ीं, पर उस पर लिखने की हिम्मत कभी नहीं जुटा पाया। मैंने अपनी दुर्बलता शमशेर को कभी नहीं बतायी। वे कविताएं मेरे लिए बहुत बहुत दुरूह थीं, मैंने उस समय के सबसे दुरूह माने जाने वाले कवि मुक्तिबोध की कविताओं के भाव और संवेदनों को अपने तर्इं ग्राह्य कर लिया था, टी एस एलियट और स्टीफ़ेन स्पेंडर तथा बिंबवादी कवि टी र्इ ह्यूम समेत अनेक कवियों को व्याख्यायित करने की गुस्ताख़ी कर सकता था और ऐसी गुस्ताखि़ायां कीं भी, मगर शमशेर की पहले की कविताएं और उक्त संग्रह की कविताएं कर्इ बार पढ़ने के बाद भी मेरे लिए चुनौती ही बनी रहीं। मैं सचमुच चाहता था कि मैं शमशेर पर लंबा लेख लिखूं, क्योंकि वे सचमुच बहुत स्नेह देते थे, वे मुझे इतने पास अपने समझते थे तभी खुद चल कर आये, दो मंजि़ल चढ़ कर और मुझे भावविह्वल कर गये और इस तरह एक चुनौती भी अनजाने दे गये कि लो बेटा, बने फिरते हो कवि और आलोचक, देखो ये कविताएं और बताओ क्या इनके भाव-संवेदन, इसके बिंब तुम्हारे पल्ले पड़ रहे हैं। मुझे उन दिनों अपने आस पास कोर्इ भाष्यकार भी नहीं मिला। शमशेर पर सिर्फ़ मुक्तिबोध का ही एक लेख पढ़ने को मिला था, जो उन्हें समझने में मददगार तो था, मगर उस तरह से कलाविश्लेषण न तो मेरी क्षमता के दायरे में था और न ही उसमें अनधिकार घुसपैठ करने की हिम्मत ही थी। फिर कुछ दिनों बाद एक लेख श्याम कश्यप नेआलोचना पत्रिका में लिखा था जिसमें उन्हें सी पी आइ का कवि सिद्ध करने की कोशिश थी, कविताओं का वस्तुपरक आकलन या उनके भाव-संवेदन की कोर्इ व्याख्या नहीं ही थी। नामीगिरामी आलोचकों में से डा. रामविलास शर्मा ने शमशेर ही क्या, उस दौर के लगभग सभी कवियों को अस्तित्ववादी, रहस्यवादी आदि कह कर ख़ारिज कर दिया था और भाष्य तो किसी की कविता का नहीं किया, अलबत्ता कवियों की निजी जि़ंदगी ख़ासकर 'कामवासना आदि कविताओं में दिखाते रहे। उनकी आलोचना पद्धति वही थी जिसे पशिचम के आलोचक 'बायोक्रिटिसिज़्म' कह कर और रोलां बार्थ जैसे गंभीर चिंतक भी ख़ारिज कर चुके हैं। नामवरसिंह ने भी उस ज़माने में शमशेर जी की कविता के मर्म नहीं खोले थे, उन दिनों वे तो पशिचम की नयी समीक्षा के प्रभाव में आ कर और सूज़न सौंटैग का नाम उछाल कर व्याख्या के विरुद्ध हो गये थे, बाद में शमशेर जी की जीवनसंध्या की विदार्इवेला में सुंदरनगर से लौट कर उनकी कविता पर ज़रूर उन्होंने तन्मयता के साथ एक लेख लिखा जो शमशेर जी की रचनाशीलता समझने में कुछ हद तक पाठकों की मदद करता है। उन्होंने उनकी प्रतिनिधि कविताएं भी संपादित कीं, मगर उसकी भूमिका के तौर पर 'शमशेर की शमशेरियत' ही पेश की, और उस छोटी सी भूमिका में शायद यही उनके लिए संभव था। अशोक वाजपेयी जो कि कला मर्म को समझने वाले रचनाकार हैं, शायद शमशेर की कवितार्इ का सौंदर्य पाठकों तक संप्रेषित कर पाते, मगर उन्होंने भी ऐसा कोर्इ बृहद् प्रोजेक्ट हाथ में नहीं लिया, औरों की ही तरह थोड़ी सी कभी कभार जुमलेबाज़ी भर की, हालांकि शमशेर मुझ से अपनी बातचीत में उन दिनों भी किसी लाभलोभ से प्रेरित हुए बग़ैर अशोक जी की बहुत तारीफ़ किया करते थे। विजयबहादुर सिंह ने जनकवि नामक संकलन में शमशेर की कविताएं शामिल कीं और भूमिका में, संक्षेप में, उन पर रस्म अदायगी के बतौर एक पैराग्राफ़ लिख कर अपने संपादकत्व का धर्म निभा दिया, पैरे के शुरू में ही 'तंत्री नाद कवित्त रस' वाला बिहारी का दोहा उद्धृत करके एक तरह से हथियार डाल दिये, डूबने के डर से। अब जहां ऐसे ऐसे 'एंजेल' चलने में डगमगाते रहे हों तो मैं किस डाल का पंछी हूं कि शमशेर जी के काव्यगगन में उड़ने की हिम्मत करता, बस औरों की ही तरह मैं भी उन कविताओं का मूक आस्वाद करता रहा, 'ज्यों गूंगेहि मीठे फल कौ रस, अंतरगत ही भावै!
शमशेर की कविताएं बार बार पढ़ने पर एक बात ज़रूर महसूस होती है कि पेंटिंग कला का पारखी हुए बग़ैर उनके सिरजे बिंब पकड़ में नहीं आ सकते। इस सच्चार्इ का आभास हमें इस बात से मिलता है कि उनके काव्यसंकलन, इतने पास अपने की 33 कविताओं में से ज़्यादा संख्या उन रचनाओं की है जिन्हें रचने की प्रेरणा किसी न किसी कलाकार की पेंटिंग्स देख कर या किसी की प्रदर्शनी देख कर मिली। अंग्रेज़ी कवि कीट्स ने अपनी एक मशहूर कविता 'ग्रीशन अर्न' पर बनी पेंटिंग से प्रेरित हो कर लिखी थी। उसका मानना था कि भौतिक पदार्थ पर बनी कलाकृति तो काल के गाल में चली जा सकती है लेकिन शब्द में तब्दील करने यानी 'वर्बल आइकन' बन जाने पर वह काल से होड़ ले पायेगी और कीट्स ने यही किया। शमशेर जी भी अपनी कविता में यही काम करते हैं, उन्होंने भी कीट्स की तरह काल को ललकारा, 'काल तुझसे होड़ है मेरी', पर्सपेकिटव यही था, शब्द में चित्र को तब्दील करने से चित्र और साथ ही रचनाकार भी काल को अतिक्रमित कर जाते हैं। वे कलासौंदर्य के रचयिता हैं, वह सौंदर्य 'मकर्इ से वे लाल गेहुंए तलवे' से ले कर 'फ़ान गाग' और 'पिकासोर्इ कला' तक बिखरा पड़ा है जिसे वे 'वर्बल आइकन' में तब्दील करते हैं। उनमें रचाव का यह स्तर और संवेदनात्मक संशिलष्टता शुरू से नहीं थी। इस रचाव का विकास उनमें धीरे धीरे हुआ। आज उनकी सभी कविताएं देख कर उनकी रचनाशीलता के स्तर भेद देखे जा सकते हैं।
उदिता संकलन में उनकी शुरू की कविताएं संकलित हैं, उसमें एक छायावादी रोमानी कवि की रचनाएं हैं, कवि ने खुद उसकी भूमिका में यह स्पष्ट भी किया है, 'मेरी असली ज़मीन तो रोमानी ही थी, रोमानी ही बनी रही...। उस दौर की कविताओं में छायावादी कवियों जैसी ही छंदरचना और भाषा ही नहीं, छायावादी मुक्तिकामना और नवीनता की चाह भी उसी तरह की है जो छायावादियों में उन बिंबों में व्यक्त हुर्इ थी जो मुक्ति के अर्थ संकेत देते थे, जैसे वायु, बादल, नदी, सागर, इंद्रधनुष, चिड़िया, मधुप, फूल, तितली, बच्चा, हिमालय आदि। ये सारे बिंब शमशेर की कविताओं में नये संकेतों के साथ हमें मिलते हैं। उसी दौर में उनकी कविताओं में 'मौन' भी मुखर हुआ था, वह अज्ञेय में तो बाद में एक रूढि़ बन कर व्यक्त हुआ। शमशेर जी की कविताओं में 'मौन' की मुखरता शुरू से ले कर आख़िर तक व्याप्त रही। शुरू के दिनों की एक कविता, 'कवि-कला का फूल हूं मैं', उनके रोमानी दौर की सारी ख़ूबियां समाहित किये हुए है :
प्रेम-नभ का मैं जलद हूं
उर मिलन के उपवनों पर
धीर वर्षा राग हूं मैं
विरह के सूने क्षणों में
स्नेह सागर पार भी
चिर मौन तट की धूल हूं मैं (उदिता, पृ. 18)
उसी दौर की एक अन्य कविता, 'आज हृदय भर भर आता है', में भी 'कितने प्रश्न हो गये उत्तर मौन हृदय में ही उठ उठ कर!' और 'आदि सत्य के मौन कठिनतम' का उल्लेख है। यह 'मौन' उस समय की लगभग सभी कविताओं में मौजूद है जैसे, 'साथ, सम, शांत', 'कितनी करुणा का सागर', 'शरबत-सी आंखों की बानी', 'आज मर्इ की शाम अकेली', 'कौन बुलाता मेरे पथ से मुझको', 'मौन राग ही', 'मृत्यु का प्रस्तर खंड', 'शाम की मटमैली खपरैल', 'ज्योति', 'मेरा झूठा मान', 'वह भी दिन एक था', 'कर्म करो', 'बार बार मन चाहता हे', 'लहरें/शाम/वह नगर', 'ओ मा शक्ति', 'बोलो - आकाश...क्यों मलिन', 'लुटी-मीठी बांसुरी की धुन', 'तुम्हें तो', 'इंदु विहान', 'ऋतुओं के पार आज' जैसी कविताओं में। ये कविताएंउदिता संग्रह में संकलित हैं, जिनमें 'मौन शब्द एक इमेज के तौर पर बार बार आया है। इस संग्रह में ग़ज़लें भी हैं, उसी दौर की और उनमें भी 'मौन का पर्याय 'ख़ामोशी' आया है, 'आरज़ुओं की बियावानी है और ख़ामोशियां' और संग्रह की आख़िरी ग़ज़ल में भी 'ख़ामोशिए दुआ हूं, मुझे कुछ ख़बर नहीं' का काव्यात्मक प्रयोग हुआ है।
'मौन' की इमेजरी शमशेर की कविता में आख़िरी दिनों तक किसी न किसी रूप में मौजूद रही, 'मौन' के अलावा कहीं 'ख़ामोशी' कहीं 'मूक', कहीं 'गूंगी', या 'गूंगा' के रूप में उसकी उपस्थिति देखी जा सकती है। यह इमेजरी दर असल 'बड़बोलेपन' का प्रतिरोध या 'शोर' का प्रतिरोध करती है जैसे बड़े कलाकारों की पेंटिंग्स करती हैं। दूसरे स्तर पर यह इमेजरी युद्धविरोधी चेतना और 'शांति' के संकेत देती है। शमशेर सत्य और प्रेम तथा शांति के लिए समर्पित कवि थे, वे साहित्यकारों की आपसी कलह तक से दुखी हो जाते थे, इसे उन्होंने एक कविता तक में बड़ी तल्ख़ी के साथ अभिधा में ही व्यक्त किया है। वे शांतिप्रिय थे, एक ऐसी दुनिया का सपना उन्होंने अपने भीतर सजा रखा था, जहां प्रेम होगा, भार्इचारा होगा, विश्वशांति होगी, इसी सपने की कलात्मक अभिव्यकित 'अमन का राग' जैसी महान कविता में हुर्इ।
दूसरे विश्वयुद्ध के बाद दुनियाभर में अनेक कवियों, कलाकारों ने यु़द्धविरोधी रचनाएं कीं, शांति और प्रेम का पैग़ाम दे कर मानव सभ्यता को विकसित करने के लिए अपनी रचनाशक्ति का इस्तेमाल किया। शमशेर के 'मौन के आवर्ती बिंब इसी भावसंवेदन का संकेत देते हैं। इसी तरह उनकी प्रेमकविताओं को भी 'लिरिकल' यानी बिल्कुल 'निजगत' नहीं माना जा सकता, हालांकि मुक्तिबोध ने अपने लेख में उन्हें 'निजगत' ही माना था। निजी 'प्रेम' एक भावसंवेदन के रूप में मौजूद ज़रूर रहता है, मगर वे कविताएं शब्दों से तराशी गयी पेंटिग्स या संगमरमरी मूर्तियां हैं, जिन्हें अपनी आस्वादक आंख से पाठक देख और महसूस कर सकते हैं। उनकी कविताओं की यह मूर्तिमयता उसी तरह अदभुत और नयी है जैसी चंद्रधर शर्मा गुलेरी की कहानी, 'उसने कहा था' की चलचित्रमयता थी। इस कला में शमशेर पश्चिम के बिंबवादी कवियों से भी आगे निकल जाते हैं, क्योंकि पशिचम के इमेजिस्ट अपने बिंबों को प्रतीकों की भाषा देते दिखायी देते हैं, शमशेर ऐसा कोर्इ सायास प्रयास करते नज़र नहीं आते, वे बस एक से एक बेहतरीन 'वर्बल आइकन' बिना छेनी हथौड़ी हाथ में लिये गढ़ते हैं, छीलछाल उनके अभ्यंतर में चलती है।
शब्दों से चित्र या मूर्ति गढ़ते समय भी वे रंगों का इस्तेमाल ज़रूर करते हैं। रंगों के विविध प्रयोग उनके इतने पास अपने संकलन की लगभग सभी कविताओं में देखे जा सकते हैं क्योंकि ज़्यादातर कविताएं एक पेंटर की तरह रंगों को शब्दों से व्यक्त करते हुए रची गयी हैं। उनमें 'बादलों के मौन गेरू-पंख, संन्यासी खुले हैं श्याम पथ पर।' उनमें 'कत्थर्इ गुलाब दबाये हुए हैं नर्म केसरिया सांवलापन।' इस तरह के चित्रों का रचनात्मक आस्वाद इनमें समाहित रंगों के दृश्यबिंबों से ही लिया जा सकता है। शमशेर इन बिंबों में न तो बिंबवादी कवियों की तरह और न ही डब्ल्यू बी येटस या टी एस एलियट या अज्ञेय, यहां तक कि अपने सहचर मित्र मुक्तिबोध की तरह भी किसी तरह का प्रतीकार्थ भरते हैं। 'गोया वो...' कविता जो कि प्रो. एजाज़ हुसैन पर लिखा एक बेहतरीन शोकगीत है की शुरुआत में ही रंगों के साथ रचे चित्र को देखिए :
गोया वो सामने ही हैं
अपनी सांवली सांवली सी पहचान में
काव्योक्तियां मुस्कराते
पान की लालियों से शाम के होठों पर
मन के चित्र बनाते...
और इस कविता का अंत होता है एक वक्तव्य से,
यहां सचमुच
--किसी कैमरे को यक़ीन न आयेगा
वहां सब कुछ सब कुछ निरावरण है
जो, जो कुछ है वही है।
और यह वक्तव्य अभिधा में ही है, शमशेर की रचनाप्रक्रिया को समझने के लिए एक कुंजी है।
दर असल, हम कविता को पैराफ्रेज़ करके और फिर उसके अर्थ ढूंढ़ने के आदी हो चुके हैं, इस वजह से कविता को 'वर्बल आइकन' या शब्दों से चित्रित सीनरी के तौर पर मन की आंख से देखने की हमारी आदत बनी नहीं है। शमशेर हमें ऐसी शाबिदक पेंटिंग्स दिखाते हैं, काश हम उन पेंटिंग्स को देख पाने लायक़ अपने भीतर कलाप्रेमी आंख पैदा कर पाते! 1943 में लिखी तीन पंक्तियों की एक कविता, 'गायें' को अगर पाठक पेंटिंग की तरह देखे तो उसका आनंद ले पायेगा, तुलसीदास के सोरठे की तरह देखेगा तो कुछ भी हाथ नहीं लगेगा:
गायें मैली, सफ़ेद, काली, भूरी।
पत्थर ढुलके पड़े। पेड़ सिथर नीरव।
दो पहाडि़यां धूम-विनिर्मित पावन।
इन तीनों पंक्तियों पर ग़ौर करें, इनमें गायें, पत्थर, पेड़, पहाडि़यां, धूम रंगों से बने चित्र हैं, स्थिर अचल, जैसे चित्रकार के ब्रश से बने होते हैं। 'धूम-विनिर्मित पावन' से मनुष्य की उपस्थिति का संकेत है, जैसा अंग्रेज़ी के महान रोमानी कवि विलियम वर्डस्वर्थ की मशहूर कविता, 'टिंटर्न एब्बी' में है।
शमशेर जी के शब्दचित्रों में सभी जगह स्थिर बिंब नहीं हैं, जहां गतिमयता की ज़रूरत है, वहां भावसंवेदन ख़ुद ही चित्र में गतिमयता लाने के लिए उन्हें बाध्य कर देते हैं। जब 12 जनवरी 1944 को ग्वालियर की सामंती सरकार ने मज़दूरों के संघर्ष का दमन करते हुए गोलियां चलायीं, तो शमशेर जी ने 'य शाम है' शीर्षक से एक 'भावचित्र' खींचा। यह चित्र एक स्थिर सीनरी नहीं हो सकता था। 'धुंआ' की इमेज इस कविता में आवर्ती बिंब की तरह रची गयी है, मगर 'गायें' की तरह स्थिर रंगचित्र के रूप में नहीं, यहां हर पैरे में गतिमयता है, क्योंकि 'धुआं धुआं सुलग रहा गवालियर के मजूर का हृदय।' कविता के पहले पैरे में 'लपक उठीं लहूभरी दरांतियां', दूसरे में 'धुआं धुआं सुलग रहा', तीसरे में 'कराहती धरा', और अंतिम पैरे में '...चल रहा लहूभरे गवालियर के बाज़ार में जुलूस /जल रहा धुआं धुआं / गवालियर के मजूर का हृदय।' पूरा चित्र उस जुलूस को एक गतिशील रील की तरह हमारी आंखों के सामने ला देता है जिसमें वाचक के भावसंवेदन भी हम महसूस करते चलते हैं। यह है शमशेर की कला।
शमशेर की कविता यों तो बहुआयामी है, कहीं चित्रकला की तरह भावचित्र रचे हैं तो कहीं सिने रील की तरह तो कहीं स्वरलहरी या सिंफ़नी की तरह। बहुत बड़ा रेंज है उनकी रचनाशीलता का। यही वजह है कि उनकी रचनाओं को किसी एक काव्यशास्त्र के परिप्रेक्ष्य से नहीं आंका जा सकता। चीनी गणराज्य पर लिखी कविता के लिए वे बायीं तरफ़ चीनी भाषा की चित्रलिपि देते हैं तो कर्इ कविताओं के साथ एब्स्ट्रैक्ट रेखांकन भी उन्होंने दिया है। बहुत सी कविताएं 'कोलाज' की तरह रची हैं और उन्हें उसी रूप में देखने पर हम उनमें रचे बसे भावसंवेदन ग्रहण कर पाते हैं।
यहां यह बताने की ज़रूरत नहीं कि शमशेर की प्रतिबद्धता या हमारे इतने पास अपने पार्टनर की पालिटिक्स क्या थी। वे विश्वसर्वहारा वर्ग के तमाम मूल्यों के साथ थे, फ़ैज़ साहब और अपने सहचर मित्र मुक्तिबोध की तरह दुनियाभर के मज़दूरों, शोषितों, वंचितों के साथ, उनके अंतर्राष्ट्रीय भार्इचारे के साथ, उनकी राजनीति यानी मार्क्सवाद-लेनिनवाद के साथ और शोषणविहीन समाज बनाने के सर्वहारावर्ग के सपनों के साथ थे। स्वाधीनता आंदोलन के दौरान उभरे गांधीवादी मूल्य यानी सत्य, अहिंसा, शांति और प्रेम भी उनकी काव्यचेतना के हिस्से थे क्योंकि उनसे उनकी विचारधारा का ही पोषण होता था। शांति और प्रेम के तो वे अप्रतिम साधक थे। जैसा कि मैंने शुरू में कहा, उनकी कविताओं में 'मौन' जो उनकी काव्ययात्रा के सभी चरणों में मौजूद रहा, दर असल शांति और प्रेम की संवेदना का ही द्योतक है। विश्वशांति के पक्ष में युद्धविरोधी कविताएं हिंदी के आधुनिकतावादी दौर में कर्इ कवियों ने लिखीं, नरेश मेहता, कुंवरनारायण, धर्मवीर भारती आदि इस तरह की कविताओं के जानेमाने रचयिता थे। मगर आधुनिकतावादी कवियों ने युद्धविरोधी भावसंवेदन को जयशंकर प्रसाद की कामायनी के भावसंवेदन की तरह वर्गसंघर्षविरोधी भी बना दिया था। विश्वयुद्ध तो साम्राज्यवादी ताक़तों के द्वारा उपनिवेशों को हड़पने के लालच से लड़े गये थे, तबाह हर जगह अवाम हुए, मनुष्य के श्रम से बनी सुंदर चीज़ें, इमारतें, बाग़बग़ीचे और तमाम मानवमूल्य बरबाद हुए, हिरोशिमा नागासाकी में अणुबम की विनाशलीला ने तो सारी दुनिया को ही दहला दिया था। इसलिए विश्वशांति के आंदोलन के पक्ष में खड़ा होना तभी से हर संवेदनशील रचनाकार का मानवीय कर्तव्य बन गया है, इसलिए आधुनिकतावादी रचनकार भी उस विभीषिका से विचलित हुए थे। यह उनका सकारात्मक पक्ष था। मगर सी आइ ए से संचालित 'कांग्रेस फ़ार कल्चरल फ्रीडम के असर में आ कर अपनी इस चेतना को सिनिसिज़्म तक पहुंचा कर उन्होंने वर्गसंघर्ष के ख़िलाफ़ और प्रगतिवाद के ख़िलाफ़ भी मुहिम चलायी। वर्गसंघर्ष तो समाज की वास्तविकता है जिसमें हर कोर्इ सचेत या अचेत रूप में शामिल है ही, वर्गविभक्त समाज में और दुनिया में जो भी चेतनायुक्त इंसान है, जाने अनजाने किसी न किसी वर्ग या पक्ष में उसकी हिस्सेदारी है ही, उससे बचा नहीं जा सकता। उत्पीड़क और उत्पीडि़त में से किसी के पक्ष में न होना भी एक पक्ष में होना ही है। आधुनिकतावादी जो अपने को 'नदी का द्वीप' समझते थे या खुद को 'एक उछली हुर्इ मछली' मानते थे, 'मर्यादा दोनों ने तोड़ी है पक्ष चाहे सत्य का हो या असत्य का' जैसी शुचितावादी गुहार लगा रहे थे, दर असल मध्यवर्ग की मिथ्या चेतना को ही प्रतिबिंबित करते थे। विश्वयुद्ध के विरोध में वे अपनी आदर्शवादी चेतना का इज़हार कर रहे थे, यह उन कवियों का एक सकारात्मक पहलू ज़रूर था, उनका सिनिसिज़्म उनकी चेतना का नकारात्मक पहलू था जिसका शिकार आज का मध्यवर्ग भी है। शमशेर सचेत रूप से सर्वहारा के पर्सपेकिटव से लैस हो कर विश्वशांति के पक्ष में खड़े थे, वे अपनी 'वाम दिशा' का उदघोष ढेर सारी कविताओं में कर चुके थे। उसी परिप्रेक्ष्य से वे अपना 'अमन का राग' रच रहे थे।
विश्वशांति के पक्ष में लिखी यह कविता अपनी पूरी बनावट में और गहरे भावसंवेदनों की संश्लिष्टता के कारण अप्रतिम है। कवि एक ऐसे समाज का सपना बुनता है जहां विश्वशांति होगी, संस्कृतियों का संगम होगा, पूरी दुनिया की कला, संगीत, साहित्य यानी जो भी इस दुनिया में सुंदर रचा गया है, शांति के विकास और परस्पर भार्इचारे को बढ़ाने के लिए समर्पित होगा, सभी उसका आनंद ले सकेंगे, यानी विश्व के अवाम का सौंदर्यबोध इस क़दर उन्नत होगा कि विश्वमानव सही अर्थों में विश्वग्राम का नागरिक होगा। दुनिया की सभी संस्कृतियों के परस्पर मिलन को शमशेर जी ने एक फ़ैंटेसी में पिरोया है :
ये पूरब पशिचम मेरी आत्मा के तानेबाने हैं
मैंने एशिया की सतरंगी किरनों को अपनी दिशाओं के गिर्द
लपेट लिया
और मैं यूरोप और अमरीका की नर्म आंच की धूप छांव पर
बहुत हौले हौले नाच रहा हूं
संस्कृतियां मेरे सरगम में विभोर हैं...
इन संस्कृतियों में आपस में कोर्इ 'क्लैश नहीं, कोर्इ टकराव नहीं, इसे शमशेर दमदार तरीक़े से 'सच्चाइयां', 'हक़ीक़त' के रूप में बिंबित करते हैं। यह कविता सचमुच एक 'हक़ीक़त' बयान करती है। अगर यक़ीन न हो तो पाकिस्तान और भारत के किसी भी संस्कृतिकर्मी से बात कर के देख लो, अब तो किसी भी देश के रचनाकार, कलाकार से पूछ लो, और दुनिया के किसी भी वर्गचेतस सर्वहारा से या उससे प्रतिबद्ध चिंतक से पूछ लो, नॅाम चाम्स्की से पूछो, फ्रेडरिक जेम्सन से या टेरी र्इगल्टन से पूछ कर देख लो, या दुनिया की सारी कम्युनिस्ट पार्टियों के आपसी भार्इचारे के बारे में, विश्वशांति पर उनके विचारों की पड़ताल करके देख लो। ये सभी उस साम्राज्यवादी चिंतक के कटु आलोचक होंगे जिसने हाल के कुछ वर्षों में 'सभ्यताओं के टकराव' की थीसिस दुनिया के सामने पेश की। शमशेर जी की कविता, 'अमन का राग' आज भी किस तरह संगत है जैसे वह इस थीसिस का जवाब दे रही हो। भारत को विभाजन की त्रासदी इसी तरह के सांस्कृतिक टकराव पैदा कराने वाले साम्राज्यवाद के चाकर सांप्रदायिक तत्वों के कारण झेलनी पड़ी। मानव संस्कृति में विभाजन नहीं, विश्व के सभी हिस्सों की संस्कृति से कविता के वाचक का प्यार है, रवींद्रनाथ ठाकुर की तरह। यह कविता उसी सच्चार्इ का एक स्वप्नचित्र रचती है, इसीलिए 'सच्चाइयां' से शुरू होती है और मध्य में 'हक़ीक़त' को रेखांकित करती है और अंतिम हिस्से में कबीर की आंखिन देखी की तर्ज़ पर 'आंखों के आवर्ती बिंब का प्रयोग करते हुए उस 'हक़ीक़त का बयान करती है जिसे पूंजीवादी नेतृत्व देख पाता तो शांति का वातावरण कभी भंग न होता।
इस कविता में सभी देशकाल के यानी दुनिया भर के भूत, वर्तमान और भविष्य के रचनाकार, संगीतकार, नर्तक और संस्कृतिकर्मी एक दूसरे से मिल रहे हैं, 'सब एक साथ ढार्इ अरब धड़कनों में बज उठे हैं सिंफोनिक आनंद की तरह।' वाचक कहता है कि 'देखो न हक़ीक़त हमारे समय की...' इस कविता में महाकाव्य की परंपरा में ढेरों नामों की माला गूंथी गयी है, होमर, शेक्सपीयर से ले कर अली सरदार जाफ़री तक और सभी देशों के चोटी के कलाकार, रचनाकार और फिर भूत, भविष्यत् के भी, क्योंकि वाचक इस सच्चार्इ को जानता है कि 'आज सब तुम्हारे ही लिए शांति का युग चाहते हैं ...मेरे गुलाब की कलियों-से हंसते खेलते बच्चो तुम्हारे ही लिए, तुम्हारे ही लिए...' वाचक विश्वशांति में सांस्कृतिक एकता का जो सपना देखता है उसे 'सुख का भविष्य' बताते हुए कहता है कि 'यह सुख का भविष्य शांति की आंखों में ही वर्तमान है ' और उसके बाद वाचक इन आंखों की अहमियत रेखांकित करता है :
ये आंखें हमारे इतिहास की वाणी
और हमारी कला का सच्चा सपना हैं...
ये आंखें ही अमर सपनों की हक़ीक़त और
हक़ीक़त का सपना हैं
इनको देख पाना ही अपने आप को देख पाना है समझ पाना है
हम मनाते हैं कि हमारे नेता इनको देख रहे हों
'अमन का राग' इस तरह तमाम साहित्य-कला के संदर्भों, तमाम राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय, सामाजिक- सांस्कृतिक-राजनीतिक संदर्भों और विचारधारात्मक-भावात्मक पहलुओं को समाहित करती हुर्इ एक अदभुत संश्लिष्ट रचना है जो अपने 'टैक्श्चर' में भी और अपने 'स्ट्रक्चर' में भी एक साथ बहुत कुछ है, वह रचनाकार के अपने गहन विचारधारात्मक संवेदनात्मक भाव से परिचालित एक कोलाज, एक महाकाव्य, एक चलचित्र, एक नृत्यनाटिका और एक सिंफ़नी है। उदाहरण के लिए, एक बार फिर कविता के प्रारंभ में उन्हीं पंक्तियों के 'टैक्श्चर' पर ग़ौर करें जिनमें वाचक अपने 'स्व' का विस्तार करते हुए कहता है कि 'ये पूरब और पश्चिम मेरी आत्मा के तानेबाने हैं...' यह तानाबाना व्यापक 'कैनवास' का संकेत है, 'सतरंगी किरनों' में रंगों का जि़क्र कलासृजन का द्योतक है ही, 'बहुत हौले-हौले नाच रहा हूं ' में नृत्यकला और 'सब संस्कृतियां मेरे सरगम में विभोर हैं ' के भीतर संगीत बज रहा है। इसी तरह पूरी कविता में संस्कृति के विभिन्न अंग उन हवालों के साथ हैं जिनसे विश्वसंस्कृति के साथ वाचक का लगाव 'अमन का राग' बन कर बजने लगता है, लेकिन उसका आस्वाद तभी संभव है, जब बक़ौल मार्क्स, 'संगीत के आस्वाद के लिए संगीतप्रेमी कान हो।
शमशेर की काव्यकला को इसी तरह देखने और गुनने से उसके भीतर पैठना संभव है शायद।
शमशेर की काव्यकला को इसी तरह देखने और गुनने से उसके भीतर पैठना संभव है शायद।
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