*** भारतेन्दुयुगीन कविता : द्वन्द्वात्मक परिप्रेक्ष्य


भारतेन्दुयुगीन साहित्य की विशेषतायें व्यक्तित्व और कृतित्व से अटूट रूप से संबद्ध है। जीवन पद्धति हो या रचनात्मक प्रतिभा दोनों एक दूसरे से जुड़ी हैं। ज़्यादातर लोग प्रतापनारायण मिश्र के हिन्दूवादी विचारों से दुखी हैं, जबकि उनका व्यक्तित्व इस सीमा से परे था। महारानी विक्टोरिया की प्रशंसा करने के बावजूद वे अंग्रेजी राज के सबसे बड़े विरोधी थे। यह भूलना नहीं चाहिए कि अंग्रेजी राज का प्रत्यक्ष विरोध उस संकट का कारण बन सकता था, जिससे अभिव्यक्ति का मार्ग भी बंद हो जाता। राजतंत्र में अभिव्यक्ति के ख़तरे उठाने का विचार आना भी अभिव्यक्ति के तमाम रास्तों के बंद हो जाने के ख़तरे की भी सूचना हो सकता था। धार्मिक पक्ष के माध्यम से इतने संकट नहीं थे। इसलिए वे तत्कालीन पादरियों से टकराये, जो अंग्रेजी राज्यसत्ता की सहमति से ही प्रभावशाली थे। इस संदर्भ में उदाहरण के लिए उस समय ‘‘कानपुर की मलिन बस्तियों में ईसाई धर्म के प्रचारक पादरी जा-जाकर लोगों को हिन्दू धर्म की कमियों को समझा कर उन्हें बहकाया करते थे। मिश्रजी ऐसे पादरियों से भिड़ जाया करते थे। यहाँ एक घटना उद्धृत है:-

पादरी महाशय: आप लोग गाय को माता कहते हैं!

मिश्रजी: जी हाँ, कहते ज़रूर हैं।

पादरी महाशय: तो फिर बैल को चाचा कहेंगे!

मिश्रजी: बेशक! रिश्ते से क्या इंकार है।

पादरी महाशय: मैंने तो एक दिन मैला खाते देखा था।

मिश्रजी: अजी, वह बैल ईसाई हो गया होगा। जब तक वह हिन्दू रहा होगा, तब तक उसने ऐसा न किया होगा।

पादरी महाशय निरूत्तर हो गये और लोगों के ठहाके से खूब शरमा गए।’’21

अंग्रेजी राज्यसत्ता अपने कृत्य पर इसी तरह शरमिंदा हो तो यह साम्राज्यवाद विरोधी दृष्टिकोण की आधुनिकता ही है। धर्म का पक्ष लेना मध्यकालीन प्रवृत्तियों का सूचक अवश्य है, पर यह उस मानसिक द्वन्द्व का परिणाम था जो तत्कालीन समाज का यथार्थ है। यह ध्यान रखना चाहिए कि धर्म के सभी पक्ष अमानवीय नहीं होते। इसका एक पक्ष मानवीय भी है। भक्ति आंदोलन में इसे सहज ही देखा जा सकता है। धर्म यदि साम्प्रदायिकता का कारक हो सकता है तो सद्भाव का जनक भी। तभी सूफी भारत आकर भारतीय रंग-ढंग में घुलमिल गए, और भारतीय जनता पर अपना रंग भी चढ़ा दिया।

भारतेन्दुयुगीन रचनाकारों में यह भी देखा जाता है कि इन्होंने मुस्लिम समुदाय का विरोध किया। इसी संदर्भ में शिवदानसिंह चैहान ने भारतेन्दुयुग की न केवल देशप्रेम परक विचारधारा को कटघरे में खड़ा कर दिया, बल्कि उन्हें अवसरवादी भी घोषित कर दिया। उन्होंने भारतेन्दु की अमानवीयता विरोधी भावना को साम्प्रदायिक भावना के रूप में देखते हुए लिखा:-‘‘उनका देशप्रेम एक ओर हिन्दू पुनरुत्थानवाद की मुस्लिम विरोधी साम्प्रदायिकता तो दूसरी ओर राजभक्ति की अवसरवादिता के संकीर्ण घेरे में ही अन्त तक चक्कर काटता रहा।’’22 लेकिन यह गलत है। भारतेन्दुयुगीन रचनाकार ऐसी कार्यपद्धतियों का विरोध करते थे जो मानवीयता से परे होती थीं। प्रतापनारायण मिश्र ने लिखा:-

‘‘नर नारी पशु पक्षी कुल, करहिं परस्पर प्रीति।

यह इच्छा परताप की, पुरवहिं प्रभु भल रीति।।’’23
परस्पर प्रीति की तलाश की प्रक्रिया किसी भी तरह की हो सकती है। हिन्दूओं के समर्थक और मुसलमानों के विरोधी समझे जानेवाले लेखक ने कई जगहों पर मानवीय संबंधों को सामने रखा है। प्रयाग जो हिन्दुओं का पवित्र तीर्थ स्थल माना जाता है, के लिए लिखा:-

‘‘सब मिलि हिन्दू, पारसी, मुसलमान क्रिस्तान।

यहि अवसर चूकहुं न अब, चलहु प्रयाग नहान।।’’24
इससे भी आगे बढ़े और कहा:-

‘‘अहैं इहाँ पर तीन मत, हिंदू यवन क्रिस्तान।

भारत की शुभ देह में, तीनिहुँ अस्थि समान।।’’25
किसी धर्म के विशेष रूप से वे विरोधी नहीं रहे, उन्होंने कर्म पर ध्यान दिया। लेकिन यह भी सत्य है कि कर्म का विरोध भी वे धर्म से मुक्त मानसिकता से नहीं कर पाये। विचार की यह प्रक्रिया द्वन्द्वात्मक है। विक्टोरिया के प्रशंसक यथार्थ से अलग नहीं होते। ‘तृप्यन्ताम’ में लिखा:-

‘‘महँगी और टिकस के मारे, हमहिं क्षुधा पीड़ित तन छाम।

साग पात लौं मिलै न जिय भरि, लेबो वृथा दूध को नाम।।’’26

और ‘सब मिलि चलहु प्रयाग’ में लिखा:-

‘‘भारत की आरत दसा, सबहि बिदित सब भाँति।

सुधि आवै छाती फटै, कही न कैसहु जात।।’’27
भारत की दशा विवेक में इतनी प्रभावी हो जाती है कि धर्म को दरकिनार कर देते हैं। इनका व्यक्तित्व हर परिदृश्य में धर्म केन्द्रित नहीं होता। एक बार उन्होंने ‘उर्दू बीबी’ का अभिनय किया। अभिनय में उन्होंने बिल्कुल मुस्लिम महिला की पोशाक पहन रखी थी। बुर्का पहने हुए जब वे मंच से उतरे तो दर्शकों में एक वेश्या भी बैठी थी। मिश्रजी उसके पास जाकर कहते हैं-‘‘बुआ, सलाम।’’ वह खुशी से कहने लगी-‘‘बेटी, जीती रहो।’’28 स्पष्ट है कि सब कुछ धर्म से तय नहीं होता। लेकिन प्रभाव से इन्कार नहीं किया जा सकता।

प्रतापनारायण मिश्र अपने भक्तिभाव को देश और जनसमुदाय की वास्तविकताओं से जोड़ते हैं। केवल भक्ति के आह्लाद में नहीं जुडे़ रहे, बल्कि तत्कालीन परिस्थितियों को बदलने का निवेदन करते हैं। यह मध्यकालीन और आधुनिक बोध की टकराहट है। ‘करुणा रस बरसावो प्रभु’ में कहते हैं:-

‘‘निज करुणा रस बरसाओ प्रभु। अब भारत को अपनाओ।।......

कानपुर वासिन के मन, उन्नति की ओर फिराओ।।’’29
ईश्वर की करुणा भी राष्ट्र, फिर प्रदेश संदर्भ में है। ‘पति राखो भगवान’ में लिखा:-

‘‘इस गति का पति राखो भगवान हो,

भारी विपत्ति परी है।।

अंगरेजन के राज जवन गण,

रहे नवाबी ठान हो।।

अबकी अपने त्योहारन में,

कियो घोर अपमान हो।।’’30
ईश्वर सिर्फ भाव प्रसंग नहीं हैं, विवेक और यथार्थ संदर्भित है। यह नये तरह की काव्य रचनायें थी। यहाँ मध्यकालीनता और आधुनिकता की द्वन्द्वात्मकता का विलक्षण स्वरूप है। इन्हीं संदर्भों में होली आदि त्योहारों पर लिखी इनकी कविताओं को देखा जा सकता है। होली का उत्सव आनंद का परिचायक है। माना जाता है कि इस दिन हृदय का नवोत्थान होता है। लेकिन प्रतापनारायण मिश्र इसी मध्यकालीन सीमाओं में नहीं रहते। अपनी कविताओं के मध्यकालीन स्वरूप में यथार्थ को इस तरह जोड़ते हैं कि इसे अद्भुत कहा जा सकता है। उन्होंने लिखा:-

‘‘महँगी और टिकस के मारे, सगरी वस्तु अमोली है।

कौन भाँति त्योहार मनैये, कैसे कहिये होली है।।

भूखों मरत किसान तहूँ पर, कर-हित डपट न थोरी है।

गारी देत दुष्ट चपरासी, तकति बिचारी छोरी है।।’’

आगे लिखा:-

‘‘पर्यो झोपड़ी माहिं छुधित नित, रोवत छोरा-छोरी है।

ज्यों-ज्यों करि काटत दुख जीवन, का सूझति तोरि होरी है।।’’31
आर्थिक और राजनीतिक स्थिति त्योहारों को निर्धन और जटिल कर देती है। जीवन से जुड़ी किसी भी तरह की खुशी हो, चाहे धार्मिक हो या सांस्कृतिक, आर्थिक और व्यवस्थागत संकट से निरर्थक हो जाती है। इससे पहले ऐसी कविताओं में इस तरह का उल्लेख नहीं किया गया है। प्रतापनारायण मिश्र ने तो अपनी ज़्यादातर होली की कविताओं में भारत को भावनाओं का केन्द्र बनाया है। ‘भारत सुत खेलत होरी।।’, ‘खेलैं सब फागु भागहत भारतवासी।’, ‘कैसी होली मचाई-अहो प्रिय भारत भाई।।’, ‘होरी खेलो भारत भाय तुम्हारे नित्त नये आनंद बढ़ै।’, ‘हिलि-मिलि भारत संतान होरी खेलिये।’ इत्यादि इनकी होली कविताओं का आरंभ है। त्योहार व्यक्तिगत नहीं सामाजिक होते हैं, और समाज की स्थिति राष्ट्रीय छवियों से मुक्त नहीं होती है।

एक-दूसरे से पूछे जानेवाले प्रश्न, प्रश्नों के उत्तर और किसी भी तरह के सुझाव काव्यात्मक हो तो सहज ही समझा जा सकता है कि रचना और मानसिकता का संबंध अधिक था। मानसिकता भी जीवन-पद्धति और विचार-पद्धति से जुड़ी अधिक होती थी। इस संदर्भ में धर्म का प्रभाव पड़ता था, लेकिन वह सीमित ही था। श्रीधर पाठक और उनके पिता के बीच इसी तरह के विवाद ‘प्रयाग समाचार’ में हुए। विवाद इन्हीं दोनों में चल रहे थे, पर उन्हें तत्काल पता नहीं था। पिताजी पं. लीलाधर पाठक ने ‘उद्गार’ शीर्षक में लिखा:-

‘‘हाय हुई कविता तुकबंदी

खड़ी वहा में सुगन्ध गन्दी।

करो लेखनी अपनी बंद

श्रीधर को सौंपो सब छन्द।’’
कविता के नीचे पिताजी का नाम नहीं था। श्रीधर पाठक ने इसका उत्तर ‘उद्गार चिकित्सा’ नाम से ‘प्रयाग समाचार’ में छपवाया कि:-

‘‘कविता नई निराला छन्द दाल भात में मूसर चन्द।

लिखो न करो लेखनी बन्द श्रीधर सम सब कवि स्वच्छन्द।’’32

प्रतापनारायण मिश्र ने ‘हरिगंगा’ लिखा। ‘हरिगंगा’ गीत मिश्रजी ने उस समय लिखा था, और ‘ब्राह्मण’ में छापा था, जब अनेक ग्राहकों ने ‘ब्राह्मण’ का शुल्क नहीं भेजा था। लिखा:-

‘‘आठ मास बीते जजमान, अब तो करो दच्छिना दान। हरि0

आजु काल्हि जो रूपया देव, मानौं कोटि यज्ञ करि लेव। हरि0’’33

इसी तरह उन्होंने ‘विज्ञापन’ में लिखा:-

‘‘दाता जजमान! प्यारे पाठक! अनुग्राहक ग्राहक!!!

चार महीने हो चुके ‘ब्राह्मण’ की सुधि लेव।

गंगा माई जै करै हमैं दक्षिणा देव।।’’34
पं. राधाचरण गोस्वामी भी अपने पत्र में चन्दे का तक़ाजा इसी तरह मनोरंजक ढंग से करते थे-‘‘इस हाथ दे उस हाथ ले’’।35 प्राचीन काव्य परम्परा में जिसे समस्यापूर्ति की तरह जाना और समझा जाता रहा, दरअसल वही आधुनिक युग में गीतिनाट्य और संवाद को जन्म देती है। नए कवि समस्यापूर्ति को समस्या निवारण की तरह प्रयोग करते हैं। उपरोक्त उद्धरण से यह स्पष्ट हो जाता है। यह मध्यकालीन संस्कार पर आधुनिक वैचारिकता की चोट ही है कि संवेदनात्मक परिवर्तन के साथ रूपगत प्रयोग भी साहित्य में उभर कर आते हैं। इसीलिए डा. रामविलास शर्मा ने ठीक ही लिखा-‘‘भारतेन्दुयुग के काव्य साहित्य को पढ़ने से एक विचित्र कोलाहल का अनुभव होता है। विभिन्न धाराओं के एक साथ मिलने से पाठक को आकाश-भेदी कलकल ध्वनी सुनायी पड़ती है। कुछ लोग नायिकाओं के नख-शिख-वर्णन में लगे हैं तो दूसरे प्रतिभावान समस्यापूर्ति में चमत्कार दिखा रहे हैं। अन्य कवि महामारी, अकाल टैक्स पर लोक गीत रच रहे हैं और कुछ लोग कविता में गद्य की भाषा के प्रयोग भी कर रहे हैं। तात्पर्य यह कि काव्य-साहित्य में व्यवस्था का अभाव है, पुरानी रूढ़ियों पर चलनेवाले काफी हैं तो साहस से नये प्रयोग करनेवालों की भी कमीं नहीं है। ऐसे लोग भी अनेक हैं जो कुछ दिन रूढ़ियों पर चलने के बाद इन नये प्रयोगों की ओर झुक रहे हैं। दरबारी संस्कृति और नवचेतना का संघर्ष कविता में ही सबसे ज़्यादा दिखायी देता है।’’36

भारतेन्दुयुगीन कवियों ने जहाँ साहित्य में नए-नए प्रयोग किये, वहीं साहित्य को लोक के निकट भी बनाए रखा। उनके लिए साहित्य का बड़ा उद्देश्य समाज को सक्रिय करना था। उनके प्रयोगों का अर्थ प्रयोगवादियों से बिल्कुल भिन्न था। समाज के गहराई से जुड़ने के उद्देश्य को पूरा करने के लिए वे साहित्य में लोक-प्रचलित साहित्य रूपों के आधार पर भी रचना करने लगे। यही कारण है कि इस दौर के काव्य में एक ओर जहाँ लोक छंद, लोक उपमान, लोक विश्वास, धार्मिक रीति-रिवाज़, त्यौहार आदि का वर्णन लोक शैली में किया गया, वहीं बहुधा लोकप्रिय मुकरी, पहेलियों की शैली में भी काव्य रचना की गई।

भारतेन्दु की मुकरियाँ नए ज़माने की मुकरी है। इसलिए क्योंकि अमीर खुसरों ने जो मुकरियाँ लिखीं उनमें दो सहेलियों के बीच जो प्रश्न पहेली चलती है, उसके व्यंग्यार्थ में साजन प्रिय छिपा है। यानी एक तरह के शृंगार भाव वाली मुकरियाँ ही थी। लेकिन नए ज़माने की मुकरियों में एक अर्थ तो सज्जन (साजन नहीं), दूसरा वर्तमान समय की समस्याएँ तथा ज़रूरतें। यथा: अंग्रेजी, ग्रेजुएट, रेल, चुंगी, ईश्वरचंद विद्यासागर, पुलिस, अंग्रेज, अख़बार, छापाखाना, कानून, खि़ताब, जहाज, शराब आदि।

मुकरी एक प्रकार की अपहृति है। दो सखियों के वार्तालाप स्वरूप एक सखी जो बात कहती है वह इतनी चातुर्यपूर्ण होती है कि उसके दो अर्थ लग जाते हैं। दूसरी सखी पूछती है कि क्या तुम अमुक की चर्चा करती हो, तब पहली सखी मुकर जाती है। दरअसल मुकरी के शिल्प का यह कलात्मक स्वरूप भारतेन्दुयुगीन रचनाकारों की संवेदना का द्वन्द्वात्मक परिणाम है, जो अंग्रेजी राज की वास्तविकताओं को प्रस्तुत करने में सहयोगी होता है। उदाहरणस्वरूप:-

‘‘भीतर भीतर सब रस चूसै, हँसि हँसि कै तन मन धन मूसै।

जाहिर बातन में अति तेज़, क्यों सखि सज्जन? नहिं अंगरेज।।’’37

इन मुकरियों में एक ओर मनोरंजन का गुण है, तो दूसरी ओर व्यंग्य की पैनी धार भी है। जैसे:-

‘‘नई नई नित तान सुनावै, अपने जाल में जगत फँसावै।

नित-नित हमैं करै बल सून, क्यों सखि सज्जन? नहिं कानून।।’’38

मुकरियों का प्रयोग जिस तरह खुसरो ने विनोदभाव तथा बुद्धिमापक के रूप में किया उससे थोड़ा आगे बढ़कर भारतेन्दु नयी भौतिक तब्दीली के प्रति भारतीय जनमानस को जागरूक रखने के लिए भी करते हैं। रेल के भारत में आने पर उसके प्रति छोटे-छोटे गाँवों में जो जिज्ञासा भाव था, उसे भारतेन्दु जानते थे, तभी लिखते हैं:-

‘‘सीटी देकर पास बुलावै, रुपया ले तो निकट बिठावै।

ले भागै मोहिं खेलहि खेल, क्यों सखि सज्जन? नहिं सखि रेल।।’’39

भारतीय समाज में इन भौतिक परिवर्तन के प्रति जिज्ञासा तो थी, जागरुकता नहीं। अपने भीतर की कमज़ोरियों के कारण भारतीय मानस आलस्य, दैन्य, व्यसन, नियति के फेर में ही पड़ा रहा। भारतेन्दु के तदीय समाज ने सामाजिक क्षेत्र से इस कमज़ोरी को हटाने के लिए बड़ा प्रयास किया। भारतेन्दु शराब का विरोध बार-बार करते रहे, क्योंकि वे जानते थे कि:-

‘‘मुँह जब लागै तब नहिं छूटै, जाति मान धन सब कुछ लूटै।

पागल करि मोंहि करै खराब, क्यों सखि सज्जन? नहिं सराब।।’’40
मुकरियों की तरह ही पहेलियाँ भी लिखी गई। पहेलियाँ लोक शैली का वह रूप है जिसका साधारण जनता में बुद्धिमापन के लिए प्रचलन है, यानी बूझो तो जानें। यह दिमाग़ को सक्रिय रखने का लोक व्यवहार है। अर्थात् गूढ़-गंभीर बातों व संकेतों के माध्यम से मूल संदर्भों के यथेष्ट वास्तविकता तक पहुँचने की कोशिश हो सके। क्योंकि अंग्रेजी राज की नीतियों के परिणाम और प्रभाव को न तो खुले स्वर में बयाँ किया जा सकता था, न ही साधारण जनता इन्हें समझ पाती थी। इसलिए पहेलियों में समस्याओं को रखकर साधारण लोगों तक पहुँचाया गया। इसमें जिन प्रतीकों का प्रयोग होता है उनमें एक तो लोकजीवन में प्रचलित रहती है, चाहे भौतिक रूप से या काल्पनिक रूप से, दूसरी अर्थ का एक चित्र प्रस्तुत करती है। इस तरह नयी विषयवस्तु को प्रचलित तथा लोकप्रिय रूपों में रखकर प्रस्तुत करने का कार्य उस दौर में सभी रचनाकारों ने किया। ज़्यादातर तो दैनंदिन जीवन में प्रयोग की जानेवाली वस्तुओं के संदर्भ में ही पहेलियाँ लिखी गई। प्रतापनारायण मिश्र ने लिखा:-

‘‘वृक्ष बसत पर खग नहीं, जल जुत पै धन नाहिं।

त्रिनयन पै शंकर नहीं कहौ समुझि मन माहिं।।

रकत पिये राकस नहीं, वेगि चलै नहिं पौन।

अंतर्धानी सिंह नहिं, कहौ वस्तु वह कौन।।’’41
इसमें एक का उत्तर नारियल है और दूसरे का चिंता। फिर भी भारतेन्दुयुगीन कविता में एक ओर जहाँ प्रचलित पुराने तथा नए रूपविधानों में आधुनिक विषयवस्तु को अभिव्यक्ति मिली, वहीं शैली के कुछ रूपों से रीतिकालीन रस और नवाबी आबताब नहीं गई। ‘ग़ज़ल’ ऐसी ही शैली रही। नाटक निबंध लिखकर जो हरिश्चन्द्र भारतेन्दु बने, वही ग़ज़ल लिखने के लिए ‘रस़ा’ बन गए। भारतेन्दु ने उर्दू (फ़ारसी मिश्रित) तथा खड़ीबोली का प्रयोग ग़ज़लों में किया। उदाहरणार्थ:-

‘‘बाग़बां है चार दिन की, बागे आलम में बहार।

फूल सब मुरझा गये, खाली बियाबाँ रह गया।।’’42
दरअसल लोक प्रचलित विधा होने के नाते ग़ज़लों में भी तीखा तेवर होना चाहिए था, पर यह जनता से अधिक राजा, महाराजा, नवाबों के संरक्षण में रही और उसमें धार की जगह नाजुकता ने अपनी जगह बना ली। ग़ज़ल में अधिकांशतः प्रेम का स्वर ही रहा। यह प्रेम भी कभी-कभी बहुत शारीरिक और उथला लगता है। यथा:-

‘‘न बोसा लेने देते हैं न लगते हैं गले मेरे।

अभी कम उम्र है हर बात पर मुझसे झिझकते हैं।।’’43 इत्यादि।

भारतेन्दुयुगीन साहित्यिक दौर में भी लेखकों के दो वर्ग हैं, एक वे जिनमें मध्यकालीनता और आधुनिकता का द्वन्द्व है, साथ ही मध्यकालीनता छूटते या शेष रह गए अवशेष के रूप में है, लेकिन एक वर्ग ऐसा भी है जो न केवल काव्य की पुरानी परिपाटी से चिपका है, बल्कि मानसिकता में भी वे द्वन्द्व या टकहाहट की स्थिति से अनभिज्ञ हैं। वे जो साहित्य में भावुकता को श्रेष्ठ समझते रहे हैं। इस संदर्भ में ठाकुर जगमोहन सिंह का नाम लिया जा सकता है। उनकी परम्परागत एवं सामन्ती प्रवृत्ति के संबंध में राजकीय वंश एवं पारिवारिक परिस्थितियाँ अत्यधिक उत्तरदायी हैं। राजकीय वंश के कारण उनमें स्वाभिमान और अंहकार कूट कूटकर भरा था। साधारण व्यक्तियों का, राजकीय वंश के प्रति जो परम्पराएँ अत्यावश्यक हैं उनका पालन किये बिना उनसे किसी प्रकार की भेंट करना कठिन था। परिवार की करूण परिस्थिति होने पर भी किसी भी व्यक्ति को ठाकुर साहब के उत्तराधिकारी से भेंट करने के लिए परम्परागत मर्यादाओं का पालन करना पड़ता है। उपर्युक्त के अतिरिक्त ठाकुर साहब आजीवन तहसीलदार रहे। इससे भी जनता पर उनका आतंक था। यही कारण है कि उनके काव्यों में लोक-स्तर उपेक्षित मिलता है। भारतेन्दु और उनके समकालीन कवियों में देश की तत्कालीन परिस्थितियां, निर्धनता, अकाल, भूखमरी एवं टैक्स आदि के विवरण मिलते हैं; जबकि ठाकुर साहब का काव्य इनसे विरहित है।44 इससे इंकार नहीं है कि ठाकुर साहब में काव्य-प्रतिभा थी। उनकी कविताओं में मुख्यतः मध्यकालीन स्वरूप, भक्ति संदर्भ और भाव सौंदर्य की छवियां अधिक है। ‘श्यामालता’ काव्य संग्रह में प्रियतम के सौंदर्य को देखकर प्रियतमा आनंद विभोर है। उसके संयोग सुख के लिए उसकी आत्मा छटपटा रही है। वियोग उसे विशेष पीड़ित किये है:-

‘‘कैसी करौं कहँ जाऊँ तुम्हें मन मोहि लियौ करि कै बतियाँ।

बतियाँ करि हास विलास कियौ बिनु मोल को मोलि लियै छतियाँ।।

छतियाँ न लगौ उलटी यह रीति पिरीति की क्यों न लिखी पतियाँ।

पतियाँ न लिखौ मुख से न कहौ जगमोहन कैसे कटैं रतियाँ।।’’45

यह हृदय भाव की रीतिमुक्त मध्यकालीन छवि है। इनकी कविताओं में भावनाओं की अभिव्यक्ति है, सामाजिक यथार्थ की नहीं।

श्रीधर पाठक की काव्यात्मक विशेषता काव्य लेखन पद्धति का विकास है। अनूदित कविताओं के साथ मौलिक रचनाओं में भी विशिष्टताओं की विविधता है। प्रकृति, सौन्दर्य और मानवीय भावनाओं के साथ राष्ट्र हितैषी संदर्भ भी है। ‘एकान्तवासी योगी’ गोल्डस्मिथ के ‘The Hermit’ का अनुवाद ही नहीं, लेखन पद्धति का विकास भी है। इस विकास को सर्वसम्मति आसानी से नहीं मिलती। उन दिनों पं. बालकृष्ण भट्ट ने इसे ‘निरा नीरस और निकम्मा’ बताया था। यह वस्तुतः रचनात्मकता और कृतियों का द्वन्द्व होता है, जिसका परिणाम विकासात्मक भी हो सकता है। श्रीधर पाठक ने विकास ही किया। उदाहरण के लिए ‘काश्मीर सुषमा’ का प्रकाशन 1904 ई. में हुआ था। इससे पहले इस तरह की एक भी कविता किसी से नहीं लिखी गई थी। प्राकृतिक सौन्दर्य से मंत्र मुग्ध मानस की ऐसी अभिव्यक्ति कभी नहीं हुई थी।

मातृभाषा की महत्ता भारतेन्दुयुग से ही समझी जाने लगी थी। भारतेन्दु, प्रेमघन, प्रतापनारायण मिश्र आदि में भी यह भावना प्रबल थी। पाठकजी ने इसी भावना से प्ररित होकर मातृभाषा महत्त्व रचना प्रस्तुत की थी:-

‘‘हरि, हिन्दी अरू हिन्द कौ जिन्हैं अटल अनुराग

सो सपूत भारत-सुअन सारथ-जिअन, सुभाग

धनि हिन्दी, धनि हिन्द भूँई, धनि हिन्दू हरि-भक्त

धनि आरज-जीवन-जनम, पर स्वारथ अनुरक्त

मेरे हिय-सर में सदा विकसहु द्वै अरविन्द

हरि-पद-रति-सुरभित सुभग, एक हिन्दी एक हिन्द’’46

राष्ट्रीय विकास का संबंध भाषा से जोड़, भावना व विवेक को भी इसके अनुकूल करने के लिए कवितायें लिखी। इनकी कविताओं में धार्मिक चिंतन वाली मध्यकालीनता तो है, लेकिन बहुत सीमित है। राष्ट्रीय संदर्भ अधिक व्यापक है। गोपाल कृष्ण गोखले पर उन्होंने तीन रचनाएँ अकारण नहीं लिखी। गोखले द्वारा व्यवहृत विचारधाराओं को पाठकजी ने भी अपनाया। लिखा:-

‘‘जाति-पाँति-मत-जनित भेद-भ्रम जियसों टार्यौ।

जग-सेवा-वृत-नैम प्रेम-सत-पंथ प्रचार्यौ।।’’47
आगे चलकर ‘चरगीत’ के अंतर्गत भी पाठकजी चरों को देश-व्रत का पाठ ही पढ़ाते हैं:-

‘‘मन में अटल देश-व्रत भरले

तन में अतुल तेज-बल भरले

शुभ संकल्प प्रेम-प्रण कर ले

तज दे छल-छन्दे।

द्वेष के तज के छल-छन्दे।।

देश की सेवा कर बन्दे।।’’48

पाठकजी की वाणी ने राष्ट्रीयता को नवजीवन से प्रतिष्ठित कर द्विवेदीयुग में अधिक स्वच्छन्दता से खेलने का अवसर प्रदान किया।

भारतेन्दु के संदर्भ में आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने जिस कला वैशिष्ट्य की चर्चा की, दरअसल वह समूचे युग के काव्य वैशिष्ट के रूप में उभरकर आती है। क्योंकि ‘‘इतिहास इस बात का साक्षी है कि व्यक्तिगत प्रतिभा और सामथ्र्य से (इतिहास को) मोड़ मिलते हैं। किन्तु वहाँ व्यक्ति केवल एक व्यक्ति नहीं रहता; वह अधिकांश जनमानस का प्रतीक हो जाता है, जहाँ सामान्य जन की सृजनशीलता प्रतिफलित होने लगती है, और इस प्रकार उसकी प्रतिभा जब पूरे समाज का संस्कार बन जाती है, तब वह इतिहास की एक शक्ति के रूप में आती है। जिसके कारण ऐतिहासिक प्रक्रिया में उसकी एक निश्चित परिणति होती है, और इसीलिए समाज में उसे नायकत्व प्राप्त करने का गौरव मिल जाता है।’’49

भारतेन्दु को यह गौरव मिला, लेकिन उनकी प्रतिभा समूचे युग की प्रतिध्वनि है। इसलिए यह कहने में कोई संकोच नहीं करना चाहिए कि प्राचीन और नवीन की द्वन्द्वात्मक मानसिकता उस दौर की कला का विशेष स्वरूप है, जिसे माधुर्य भी कहा जा सकता है। यह माधुर्य आधुनिक संदर्भों में द्वन्द्व से और अधिक पुष्ट होता है। तत्कालीन नाटकों में भी द्वन्द्वात्मक अभिव्यक्ति के स्वरूपों को देखा जा सकता है।

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21. प्रतापनारायण मिश्र रचनावली, भाग-1, पृ॰ 10.
22. शिवदानसिंह चैहान, हिन्दी साहित्य के अस्सी वर्ष, पृ॰ 56-57.
23. प्रतापनारायण मिश्र रचनावली, भाग-1, पृ॰ 64.
24. वही, पृ॰ 81.
25. वही, पृ॰ 63.
26. वही, पृ॰ 66.
27. वही, पृ॰ 78.
28. वही, पृ॰ 10.
29. वही, पृ॰ 29.
30. वही, पृ॰ 29-30.
31. वही, पृ॰ 114.
32. श्रीधर पाठक तथा हिन्दी का पूर्व स्वच्छन्दतावादी काव्य, पृ॰ 227 से उद्धृत।
33. प्रतापनारायण मिश्र रचनावली, भाग-1, पृ॰ 230.
34. वही, पृ॰ 235.
35. समालोचक, सम्पा. रामविलास शर्मा, आगरा अगस्त 1959, अंक-7 से उद्धृत।
36. रामविलास शर्मा, भारतेन्दुयुग और हिन्दी भाषा की विकास परम्परा, पृ॰ 100.
37. भारतेन्दु ग्रंथावली, दूसरा भाग, पृ॰ 810.
38. वही, पृ॰ 811.
39. वही.
40. वही, पृ॰ 812.
41. प्रतापनारायण मिश्र रचनावली, प्रथम खंड, पृ॰ 224.
42. भारतेन्दु समग्र, पृ॰ 270.
43. वही, पृ॰ 269.
44. श्रीधर पाठक तथा हिन्दी का पूर्व स्वच्छन्दतावादी काव्य, पृ॰ 128-129.
45. वही, पृ॰ 131.
46. वही, पृ॰ 266.
47. वही, पृ॰ 301.
48. वही, पृ॰ 318.
49. नित्यानंद तिवारी, आधुनिक साहित्य और इतिहास बोध, पृ॰ 33.

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