भारतेन्दुयुग से पूर्व रीतिकाव्य का समय था। यूँ तो रीतिकाव्य में ‘रीतिमुक्ति’ भी थी, पर श्रृंगारिकता से भिन्नता नहीं थी। रीतिकालीन कविता में अभिव्यक्ति के स्वरूप में अलंकारप्रियता, चमत्कारिता और रूढ़िबद्धता पर अतिरिक्त बल सहज ही देखा जा सकता है। कहा जाता है कि इस दौर के काव्य का उद्देश्य आश्रयदाता या सामंत वर्ग का मनोरंजन करना था, इसलिए इसमें जीवन के यथार्थ की अभिव्यक्ति सम्भव नहीं थी। याद रखना चाहिए कि जीवन के यथार्थ की कोई तयशुदा सीमा नहीं है। इंद्रियबोध का यथार्थ, सौन्दर्य और भावबोध का यथार्थ वर्गीय हालात और परिस्थितिजन्य वास्तविकताओं पर निर्भर करता है। रीतिकालीन कवि में सामान्य जीवन के आर्थिक और उस पर निर्भर जीवन-स्वरूपों के यथार्थ को बेशक नहीं उठाया है, परन्तु प्रेम-सौन्दर्य मूलक भावात्मक यथार्थ को विभिन्न तरीकों से उभारा है। मनोरंजन करने का उद्देश्य भी विषयजन्य यथार्थ से मुक्त नहीं होता। विषय बदलते ही यथार्थ का रूप और अभिव्यक्ति का स्वरूप बदलता है। भारतेन्दुयुगीन कवि में परिवर्तन और निरंतरता का द्वन्द्व है। वे रीतिकालीन पद्धति का उपयोग और अनुकरण भी करते हैं तो सामाजिक यथार्थ के परिप्रेक्ष्य में नवीन रूप-विधान भी अपनाते हैं। नाटकों में प्रयुक्त कविताओं में देखा जा सकता है कि रीतिकालीन काव्य लेखन की कोई प्रक्रिया नहीं है। नए जीवनानुभवों को काव्य में न केवल विषय बनाया गया वरन् लेखन की पद्धति भी यथासंभव बदल गई। भारतेन्दु ने ‘भारतदुर्दशा’ नाटक में लिखा:-
‘रोवहु सब मिलिकै आवहु भारत भाई।हा! हा! भारत दुर्दशा न देखी जाई।।’1
कहा गया कि ‘इसे हिन्दी की दासकालीन श्रृंगारी कविता के प्रतिकूल आंदोलन का श्रीगणेश समझा जाना चाहिए।’2 यह किसी कार्यक्रम का श्रीगणेश नहीं है, यह अंग्रेजी राज के प्रशंसक के मानसिक द्वन्द्व का परिणाम था। ‘दशरथ विलाप’ पर लिखनेवाले इस भक्त ने समस्यापूर्ति करते हुए ‘क्यौं प्यारी फिरत दिवानी सी’ में रीतिकालीन शैली में कहा-
‘‘आजु कुंज में कौन मिल्यौ जिन लूटी सब रस खानी सी।चूसे अधर अंगूर दोउ गालन पै प्रगट निसानी सी।।’’3
श्रृंगार के वातावरण में रति सुख के अतिरिक्त रीति कवियों और क्या सूझता! जितना आश्रयदाता के लिए छद्म श्रृंगारी वातावरण निर्मित किया जाता उतना ही धनार्जन और यशार्जन में लाभ होता। लेकिन भारतेन्दुयुग का कवि धर्नाजन व यशार्जन के आगे देशहित और लोकहित में कार्य करता है, इसीलिए यह कहने में देर नहीं लगाई कि ‘‘डूबत भारत नाथ बेगि जागो अब जागो।’’ यह भारतेन्दु की ‘प्रबोधिनी’ कविता है।
‘प्रबोधिन’ कविता में तीन भाव हैं। भक्तिभाव, श्रृंगार भाव और देश भाव। तीनों से एक कविता बनती है। लम्बी कविता में एक ही भाव होने पर वह रीति या मुक्तक हो जाएगी, लेकिन इसके तीनों भाव परस्पर श्रृंखला में है। भक्ति और श्रृंगार की भावधारा अतीत है। इन दोनों भावों को कवि वर्तमान स्थिति से टकरा देता है। ‘डूबत भारत’ वर्तमान स्थिति है, जिसका सामना भारतेन्दु कर रहे हैं। यह कविता परम्परागत भावधाराओं की परीक्षा करते हुए उसमें जो प्रासंगिक है उसे स्वीकार करती है और जो प्रासंगिक नहीं है उसे अस्वीकार। इस प्रकार यह कविता परम्परा से संबंद्ध बनाती भी है और संबंध विच्छेद भी करती है। यह कविता केवल भाव परिस्थितियों का निर्माण ही नहीं करती, बल्कि परम्परा को परखकर अतीत भाव परम्परा से आधुनिक प्रवृत्तियों को टकरा देती है। कोई भाव पूर्णतः स्वतंत्र नहीं है, न भक्ति भाव, न श्रृंगार भाव, न वर्तमान की कटु चेतना, बल्कि तीनों भाव एक दूसरे से टकराते हैं। दबाव तीनों का है लेकिन एकांत स्वीकृति किसी की नहीं। राष्ट्रभाव या आधुनिक चेतना की भूमि पर वे परम्परागत भावों का जाँचते हैं, इसीलिए अनुभव के विधान में उन्हें अनुपात की ज़रूरत पड़ती है। परम्परागत भावों की अनुपात और वर्तमान चेतना के साथ उसका स्थान, भारतेन्दु की काव्य चेतना की प्रमुख समस्या है। इस अनुपात और स्थान के कारण उनकी काव्यानुभूति न भक्तिकालीन है, न रीतिकालीन। हालाँकि उन दोनों की गंध उनकी कविता में है, इसीलिए वहाँ एकदम परम्परा विच्छिन्न आधुनिकता भी नहीं है। इस तरह कहा जा सकता है कि उनकी काव्यानुभूति का स्वरूप जटिल है। अकारण नहीं है कि ‘कृष्ण चरित्र’ में खोने वाले और ‘प्रेम फुलवारी’ में घूमने वाले भारतेन्दु ‘बकरी विलाप’ की दयात्मकता में भी समाते हैं और ‘हिन्दी की उन्नति के व्याख्यान’ पर भी काव्य रचते हैं। अपने इस व्याख्यान में उन्होंने स्पष्ट लिखा-‘‘राजनीति समझै सकल पावहिं तत्व बिचार। पहिचानैं निज धरम को जानै शिष्टाचार।।’’4 राजनीति, विचार, धर्म और शिष्टाचार संयुक्त विशिष्टता है, जो उन्नति की बुनियाद है। राजनीतिक समझ आधुनिक परिप्रेक्ष्य का मूलाधार है। यहाँ कविता का यथार्थ से सहज जुड़ाव है। सबसे बडी बात है उन्नीसवीं सदी के साहित्य में एक नयी यथार्थ दृष्टि का समारम्भ होता है, जिससे कविताओं का रचना संसार ही बदल जाता है। भारतेन्दुयुगीन कविताओं में यथार्थ का स्वर न केवल उसे अपनी परम्परा के विकास के रूप में स्थापित करता है, बल्कि यथार्थवादी दृष्टिकोण को नयी परिस्थितियों से टकराहट के सांस्कृतिक उपकरण के रूप में भी प्रस्तुत करता है।
प्रतापनारायण मिश्र की गत्यात्मक प्रक्रिया भी ऐसी ही है। यह भी संभव है कि यह भारतेन्दु का प्रभाव हो, लेकिन वैचारिक विविधता सिर्फ प्रभाव पर निर्भर नहीं करती। सामाजिक भावों पर आधारित जितनी कविता मिश्रजी लिख पाये, उतनी भारतेन्दु की नहीं मिल पाती। भारतेन्दु की समाजोन्मुख कवितायें ज़्यादातर नाटकों में ही मिलती है। दरअसल ‘‘कविता केवल दिल बहलाव या भगवत्भक्ति की ही चीज़ नहीं, बल्कि जनहित, समाज सुधार और देश-दशा जैसे विषयों पर कविता की रचना से नवजागरण के मेल मे साहित्य का सृजनात्मक कृतित्व साथ-साथ चलना चाहिए। इस दिशा में नेतृत्व देकर भारतेन्दु ने आधुनिकता के आरंभ के लिए ज़मीन तैयार की।’’5
ज़मीन तैयार करने की प्रक्रिया सरल नहीं थी। सभी कवियों में रीतिकालीन प्रभाव आसानी से दूर नहीं हुआ था। रीतिकालीन परम्परा का प्रयोग लक्षण ग्रन्थों के लिए हुआ है। इस काल के लक्षण ग्रन्थकारों में सरदार लछिराम, गदाधर भट्ट, रसिक बिहारी, गोविन्द गिल्लाभाई आदि उल्लेखनीय हैं। इनकी रचनाओं में मौलिकता का अभाव है। नायिका भेद, नखशिख वर्णन, संयोग शृंगारादि का वर्णन रीतिग्रन्थों की प्रणाली पर ही किया गया है। भारतेन्दु का भक्त हृदय यद्यपि राधा कृष्ण के प्रेम में पगा हुआ था, किन्तु संयोग श्रृंगार के वर्णन में लौकिक मर्यादा की सर्वथा उपेक्षा ही की है। उनमें कामशास्त्र के आधार पर रतिचुम्बन, परिरम्भण, आलिंगन आदि का कामोत्तेजक वर्णन भी मिलता है। राधिका काम कसक मिटाने के लिए ही गह्वर कुंज में कृष्ण से छिपकर मिलना चाहती है और पुनः नायिका राधा प्रियतम से सगरी रैन सोए रहने के लिए प्रार्थना करती है-
‘‘नशीली आँखों वाले सोए हो अभी है बड़ी रात।सगरी रैन मेरे संग जागत रहे करत रंगीली बात।।चिड़िया नहीं बोली मेरी चूरी खनकत काहे अकुलात।‘हरिचन्द’ मत उठो प्रियरवा गल लगि करो रसघात।।’’6
आधुनिक दृष्टि से ये कविताएँ निरर्थक है। अकारण नहीं है कि भारतेन्दु में विभिन्न लेखन प्रणालियों का सामंजस्य देखने वाले रामचंद्र शुक्ल को भी हर जगह सामंजस्य नहीं दिखता। कभी-कभी आधुनिकता भी कम दिखती है। तय है कि जिस कवि में ‘प्राचीन’ और ‘नवीन’ का सामंजस्य है उसी कवि में मध्यकालीनता और आधुनिकता का सामंजस्य कम, द्वन्द्व अधिक है। रामचंद्र शुक्ल ने स्पष्ट लिखा कि ‘‘उनकी अधिकांश कविता तो कृष्ण भक्त कवियों के अनुकरण पर गेय पदों के रूप में है जिनमें राधा कृष्ण की प्रेमलीला और विहार का वर्णन है। श्रृंगार रस के कवित्त-सवैये का उल्लेख पुरानी धारा के अंतर्गत हो चुका है। देश-दशा, अतीत गौरव आदि पर उनकी कवितायें या तो नाटकों में रखने के लिए लिखी गई अथवा विशेष अवसरों पर (जैसे प्रिंस आॅफ वेल्स (पीछे सम्राट सप्तम एडवर्ड) का आगमन, मिश्र पर भारतीय सेना द्वारा ब्रिटिश सरकार की विजय) पढ़ने के लिए। ऐसी रचनाओं में राजभक्ति और देशभक्ति का मेल आजकल के लोगों को कुछ विलक्षण लग सकता है। देश-दशा पर दो-एक होली व वसंत आदि गाने की चीजें फुटकल भी मिलती है। पर उनकी कविताओं के विस्तृत संग्रह के भीतर आधुनिकता कम ही मिलेगी।’’7
जीवन-शैली का उद्गार रचनाओं में होता है तो जीवन की द्वन्द्वात्मक प्रक्रिया भी रचनाओं में ही व्यक्त होती है। तत्कालीन समाज एकदम से परम्परा मुक्त या आधुनिक नहीं हो गया था। परम्पराओं में कई पक्ष होते हैं। उनका आधुनिक दृष्टि से चयन उस दौर की विशेषता नहीं है। आधुनिक दृष्टि से परम्परा में टकराहट होती है, लेकिन परम्परागत दृष्टि आसानी से मध्यकालीन सोच से मुक्त नहीं होती। भारतेन्दु की कविताओं में मध्यकालीनता और आधुनिकता दोनों पक्ष हैं। ‘‘एक तरफ तो काव्य को फिर से भक्ति की पवित्र मंदाकिनी में स्नान कराया और दूसरी तरफ उसे दरबारीपन से निकाल कर लोकजीवन के सामने ला खड़ा कर दिया।’’8 कोई भी रचना जीवन के संस्कारों और सोच के आधारों से मुक्त नहीं होती। क्योंकि संस्कार और विचार दोनों का विकास द्वन्द्वात्मक प्रक्रिया में ही होता है, इसीलिए सहज है कि भारतेन्दुयुगीन कविताओं में ‘‘कुछ तो ऐसी है जिन्हें हम श्रृंगार, प्रेम और भक्ति की प्राचीन परिपाटी का अनुकरण करनेवाली कविता कह सकते हैं और कुछ वे कवितायें हैं जिन्हें हम देश-दशा के यथार्थबोध, अतीत-गौरव के आख्यान के साथ वर्तमान दशा पर क्षोभ की व्यंजना करनेवाली कवितायें कह सकते हैं।’’9
ब्रजभाषा में लेखन की पद्धति भारतेन्दुयुग में काफ़ी समय तक बनी रही जिसे रीतिकाल की निरंतरता कहा जा सकता है। बाद में खड़ीबोली के विकास ने इस मध्यकालीन निरंतरता को भी बदल दिया। हालाँकि ब्रजभाषा कविताओं का भी एक प्रकार वह है जिससे भारतेन्दु और उनके सहयोगी मध्यकाल की दरबारी काव्य-प्रवृत्ति का अंत करते हैं, और एक नयी यथार्थवादी रचना-प्रणाली का सूत्रपात करते हैं। ‘प्रेमघन’ ने अपनी कविताओं की शुरूआत ब्रजभाषा में ही की थी। आगे चलकर खड़ीबोली में भी लिखने लगे। उन्होंने ब्रजभाषा की कविताओं से ही अपने मध्यकालीन तेवर बदलने आरंभ कर दिए थे। ‘प्रेमघन’ की प्रबंध कविता ‘जीर्ण जनपद’ अथवा ‘दुर्दशा दत्तापुर’ प्रबंध की कल्पनाप्रधान कविताओं से दूर परिवेश की वास्तविक परिस्थितियों को प्रकट करती है। ‘प्रेमघन’ इसी दत्तापुर में पैदा हुए थे। कवि के रूप में उन्होंने इस कविता में अपने ग्राम की प्राचीन विभूति तथा आधुनिक दशा का यथार्थपूर्ण चित्रण किया है। गाँव के तत्कालीन हालात के बारे में उन्होंने लिखा:-
‘‘भए एक के चार 2 घर अलग 2 जब।भरे परस्पर कलह द्वेष तब कुशल होत सब।।’’
इसी का परिणाम है कि:-
‘‘आय गई दुर्दसा अवसि या रूचिर गांव की।दुखी निवासी सबै, छीन छवि भई ठांव की।।’’10
ग्रामीण वास्तविकता की काव्यात्मक अभिव्यक्ति का इतना यथार्थपरक स्वरूप इनसे पहले किसी दौर में नहीं आया था। गाँव में रीति-रिवाजों के धार्मिक पक्ष, कर्मों के भावानात्मक और मनोवैज्ञानिक परिप्रेक्ष्य भी जिस तरह के होते हैं, उसे उभारते हुए ‘प्रेमघन’ यथार्थ की नयी परिस्थितियों के स्वरूपगत नतीज़े पर पहुँचे। लिखा:-
‘‘दुर्बल, रोगी, नंग धिड़ेगे जिनके शिशुगन।दीन दृश्य दिखराय हृदय पिघलावत पाहन।।’’11
समय के साथ समाज का परिवेश बदल रहा था। इस बदलाव में विकास कम, दुर्दशा अधिक थी। ‘प्रेमघन’ ने इन सभी स्थितियों को अपनी कविता में उभारा है। साथ ही यह स्पष्ट किया कि तत्कालीन अर्थव्यवस्था और राजनीतिक परिस्थिति इसके लिए ज़िम्मेदार है। उन्होंने लिखा:-
‘‘खोय धर्म धन किते बने नटुआ सम नाचत।कर्ज लेन के हेतु द्वार द्वारहिं जे जांचत।।उद्यम हीन सबै नर घूमत अति अकुलाने।आधि व्याधि सों व्यथित, छुधित बिलपत बौराने।।’’12
कविता लेखन में खड़ीबोली की पद्धति भले न हो, पर इसी के माध्यम से समाज के यथार्थ को प्रकट कर काल्पनिक व मनोरंजक सौंदर्य लेखन से मुक्त हो, आधुनिक साहित्य लेखन का विकास किया गया। दरअसल यह द्वन्द्वात्मक गति है। मध्यकालीन पक्ष न हो, ऐसा नहीं है। महाकाव्य के ढाँचे में लिखा हुआ ‘अलौकिक लीला’ अपूर्ण ही सही, मध्यकालीनता की ही अभिव्यक्ति है। इसमें कृष्ण को विषय बनाया। यह ज़रूर कहा जा सकता है कि इसमें कृष्ण के शक्ति, शील और सौन्दर्य तीनों गुणों में शक्ति को ही प्रधान सिद्ध करना, कृष्ण काव्य में उनकी नवीन सूझ थी। यह भारतेन्दुयुगीन काव्यात्मक संवेदनात्मक ढाँचें में मध्यकालीनता और आधुनिकता का द्वन्द्व ही है कि वे ‘‘एक ओर तो राधा कृष्ण की भक्ति में झूमते हुए नयी भक्तमाल गूँथते दिखाई देते थे, दूसरी ओर मंदिरों के अधिकारियों और टीकाधारी भक्तों के चरित्र की हँसी उड़ाते और मंदिरों, स्त्री-शिक्षा, समाज-सुधार आदि पर व्याख्यान देते पाये जाते थे।’’13
कृष्ण का चरित्र एक कवि के चरित्र का मानसिक पक्ष है। जब ‘प्रेमघन’ ने कविता लिखना आरंभ किया था, तभी उन्होंने कृष्ण और राधा के मनोहारी चित्र को कविता का अंग बनाया। ‘युगल मंगल स्तोत्र’ के साथ ‘बृजचन्द पंचक’ में भी यही आधार है। लेकिन कविताओं के माध्यम से यदि राजराजेश्वरी विक्टोरिया की तारीफ की है, भक्ति के पद गाये हैं, तो समाज की वास्तविकता को कविताओं से अलग नहीं रखा। लिखा:-
‘‘प्रजा मेमना सी चिल्लाय। बनै रोय नहिं आवै गाय।।अक्की बक्की गई भुलाय। इनकी ईश्वर करौ सहाय।।महरानी उर दया बसाय। इन्हैं न सूझै और उपाय।।कहि रोवै मुँह बाय बाय। हय हय टिक्कस हाय हाय।।’’14
अंग्रेजी राज के प्रशंसक भारतेन्दु भी थे, लेकिन राष्ट्रीय हित को अधिक ध्यान रखते थे। ‘विजय-बल्लरी’ में उन्होंने लिखा:-
‘‘सुजस मिलै अंगरेज को होय रूस की रोक।बढ़ै बृटिश बाणिज्य पै हम को केवल सोक।।’’15
अंग्रेजों के आर्थिक लाभ और लूट की कोई सीमा नहीं थी, यही कारण था कि देश की आर्थिक तंगी को समझते हुए भारतेन्दु ने भारतीय धन के विदेश जाने की पद्धति को कभी बर्दाश्त नहीं किया। ‘पै धन विदेश चलि जात है इहै अति ख्वारी’।
अंग्रेजों की शोषण नीति का विरोध भारतेन्दु मंडल की रचनाओं में प्रकट और अप्रकट दोनों रूपों में दिखता है। 16 फरवरी 1874 की ‘कविवचनसुधा’ में इन्होंने लिखा-‘‘यदि तुम हाथ के व्यापार सीखोगे तो तुम्हें कभी दैन्य न होगा, नहीं तो अन्त में यहाँ का सब धन विलायत चला जाएगा, तुम मुँह बाये रह जाओगे।’’ दूसरी ओर ‘प्रेमघन’ ‘चरखे की चमत्कार’ में राष्ट्रीय गीत गा रहे थे:-
‘‘चला चल चरखा तू दिन रात।चलता चरख बनाता निस दिन ज्यों ग्रीष्म बरसात।।मन मन मंत्र जमाकर मन में सुन न किसी की बात।कात कातकर सूत मैनचिस्टर को कर दे मात।।.............ज्यों ज्यों तू चलता त्यों त्यों पाता स्वराज्य नियरात।परतन्त्रता दीनता भागी जाती खाती लात।।.............हिन्दू मुसलिम जैन पारसी ईसाई सब जात।सुखी होय हिय भरें प्रेमघन सकल भारती भ्रात।।’’16
राष्ट्रीय हित की चेतना का यह स्वरूप धार्मिक चेतना से अधिक सुदृढ़ है। मानसिक द्वन्द्व की यह परिणति आंदोलनकारी है। स्वराज की यह चेतना भगत सिंह के समय राजनैतिक संघर्षों में स्र्वाधिक मुखर हुई। लेकिन भारतेन्दुयुगीन लेखकों ने इसे उभारा, सामान्यतः इस तथ्य को रेखांकित नहीं किया जाता।
राजभक्ति का स्वर और धार्मिक पक्षपात की मान्यतायें जो इस दौर के साहित्य में प्रकट हुई है, उसके आधार पर इस युग की भरपूर आलोचना होती है। लेकिन यह ध्यान नहीं दिया जाता है कि इस द्वन्द्वात्मक प्रक्रिया की दिशा क्या है। राजा राममोहन राय, स्वामी दयानन्द, स्वामी विवेकानन्द जैसे चिंतक भारतीय नवजागरण के उत्कृष्ट कार्यकर्ता समझे जाते हैं। इनके यहाँ भी धार्मिक तथ्य चिंतन का आधार है। फिर भी ये श्रेष्ठ समझे जाते हैं, पर भारतेन्दुयुगीन लेखक नहीं। ध्यान रखना चाहिए कि मानवीयता के पक्षधर की यह धार्मिक सोच भी आधुनिक है। लेकिन भारतीय चिंतन का जो रूप मनुष्य और देश की उन्नति सापेक्ष न होकर केवल कर्मकाण्ड सापेक्ष है, वह मध्यकालीनता ही है। भारतेन्दुयुगीन कवियों की मानसिकता में दोनों पक्षों की टकराहट है। अगर सम्पूर्ण भारतीय साहित्यिक संदर्भ में देखा जाए तो लगभग हर जगह रचनाओं का केन्द्रिय आधार धर्म है, और उसके साथ द्वन्द्वात्मक विकास की स्थिति। मैथिली, राजस्थानी, सिंधी, पंजाबी और हिन्दी सभी भाषाओं में उस दौर के काव्यात्मक साहित्य में परम्परागत स्वरूपों की निरन्तरता रही है।17 साथ ही सबके विकास का स्वरूप लगभग वैसा ही है जैसा भारतेन्दुयुगीन हिन्दी साहित्य का है।
‘प्रेमघन’ ने एक बहुत अच्छा गीत लिखा था, स्त्रियों के जीवन के भावात्मक संकट को आधार बनाकर:-
‘‘सैंया सौतिन के घर छाए, सूनी सेजिया न सोहाय।।गरजै बरसै के बदरवा, मोरा जियरा डरपाय।बोलै पापी के पपीहा, पीया ! पीया ! रट लाय।।बरजे माने ना जोबनवाँ, दीनी अंगिया दरकाय।पिया प्रेमघन बेगि बुलावो अब दुःख नाहीं सहि जाय।।’’18
समाज की वास्तविकता दुःख दर्दों के सापेक्ष अधिक होती है। इनकी शैली भले मध्यकालीन हो पर स्वर की भंगिमा प्रभावशाली है। स्त्री का दुःख जब एक पुरुष के माध्यम से इतनी गहराई से व्यक्त होता है, तो इस मानवीयता को आधुनिक कहना चाहिए। अकारण नहीं है विधवा-विवाह के पक्ष में अपने तर्क देने के क्रम में वे स्त्रियों के दुःखों से अपनी भावनात्मकता जोड़ते हैं। इनका परम्परा से गहरा लगाव है, पर मानवीय संदर्भ में राष्ट्रीय दृष्टिकोण आधुनिक हो जाता है।
जब उस दौर की कविताओं को परम्परागत काव्यात्मक प्रसंगों में देखा और समझा जाता है तो भारतेन्दुयुगीन अधिकांश कविताएँ निरर्थक भी लगती है, लेकिन जहाँ हास्य, व्यंग्य और नाटकीय शैली में राष्ट्रीय यथार्थ को मिथकीय संदर्भ के साथ प्रस्तुत किया गया है वहाँ यथार्थ न केवल पैना हो जाता है, बल्कि उसकी गहराई परम्परा और परिवर्तन के उस क्षितिज को प्रभावित करती है जहाँ से नया दृष्टिकोण जन्म लेता है। भारतेन्दु की एक कविता है:-
‘‘उपजा ईश्वर कोप से औ आया भारत बीच।छार खार सब हिंद करूँ मैं, तो उत्तम नहिं नीच।मुझे तुम सहज न जानो जी, मुझे इक राक्षस मानो जी।कौड़ी कौड़ी को करूँ मैं सबको मुहताज।भूखै प्रान निकालूँ इनका, तो मैं सच्चा राज। मुझे.काल भी लाऊँ महँगी लाऊँ, और बुलाऊँ रोग।पानी उलटा कर बरसाऊँ, छाऊँ जग में सोग। मुझे.फूट बैर और कलह बुलाऊँ, ल्याऊँ सुस्ती जोर।घरघर में आलस फैलाऊँ, छाऊँ दुख घनघोर। मुझे......मरी बुलाऊँ देस उजाडूं, महँगा करके अन्न।सबके ऊपर टिकस लगाऊँ, धन है मुझको धन्न।मुझे तुम सहज न जानो जी, मुझे इक राक्षस मानो जी।’’19
यह कविता जिस ऐतिहासिक स्थिति में लिखी गई है उसके सभी संदर्भों (राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक) की अनिवार्य जानकारी के बिना इसका अर्थ ही नहीं खुल सकता। गरीबी, भूख, महँगी, रोग, फूट, बैर, सुस्ती, खुशामद, कायरता, टैक्स ये नयी परिस्थितियाँ हैं, कवि जिनकी ओर रागात्मिका वृत्ति का उन्मुख कर रहा है। लेकिन यह उन्मुखता भावदशा में लीन नहीं करती, क्षुब्ध भावदशा का निर्माण करती है।20
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1. भारतेन्दु, भारतेन्दु समग्र, पृ. 460.
2. किशोरीलाल गुप्त, भारतेन्दु और अन्य सहयोगी कवि, पृ॰ 29.
3. भारतेन्दु, भारतेन्दु समग्र, पृ॰ 275.
4. वही, पृ॰ 229.
5. मुरली मनोहर प्रसाद सिंह, आधुनिक हिन्दी साहित्य, पृ॰ 32.
6. भारतेन्दु ग्रन्थावली, भाग-2, पृ॰ 113-196.
7. रामचंद्र शुक्ल, हिन्दी साहित्य का इतिहास, पृ॰ 416-417.
8. हजारीप्रसाद द्विवेदी, हिन्दी साहित्य: उद्भव और विकास, पृ॰ 210.
9. मुरली मनोहर प्रसाद सिंह, आधुनिक हिन्दी साहित्य, पृ॰ 37.
10. प्रेमघन-सर्वस्व, प्रथम भाग, पृ॰ 44-45.
11. वही, पृ॰ 48.
12. वही, पृ॰ 49.
13. रामचंद्र शुक्ल, हिन्दी साहित्य का इतिहास, पृ॰ 331-332.
14. प्रेमघन-सर्वस्व, प्रथम भाग, पृ॰ 188.
15. भारतेन्दु समग्र, पृ॰ 251.
16. प्रेमघन-सर्वस्व, भाग-1, पृ॰ 648.
17. (विस्तार के लिए देखें- ए हिस्ट्री आॅफ इंडियन लिट्रेचर, शिशिर कुमार दास, पृ॰ 145-164.)
18. प्रेमघन-सर्वस्व, भाग-1, पृ॰ 488.
19. भारतेन्दु समग्र, पृ॰ 462.
20. नित्यानंद तिवारी, आधुनिक साहित्य और इतिहास बोध, पृ॰ 20.
1 comments
पहली बार इस ब्लॉग पर आना हुआ, साहित्य का अनोखा संगम है यहाँ.... आभार
regards
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