न्दी गद्य के विकास के साथ ही हिन्दी आलोचना का विकास हुआ। हिन्दी आलोचना की कहानी बहुत पुरानी नहीं है। 19वीं शताब्दी के अंत में जिसे भारतेन्दु युग के नाम से जाना जाता है, में हम साहित्य का एक नया रूप देखते हैं। अब साहित्य व्यक्ति-सत्ता से हटकर समाज-सत्ता की वस्तु हो गयी। प्रिंटिंग-प्रेस के आ जाने से पत्र-पत्रिकाओं का छपना शुरु हो गया। पत्र-पत्रिकाओं का पाठक राजदरवार का सहृदय रसिक न होकर मध्य-वर्ग का शिक्षित पाठक था। इस पाठक की रुचि भी राजदरवार के सहृदय रसिक से भिन्न थी। यही कारण है कि अब पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित साहित्य का विषय भी बदल गया। न सिर्फ साहित्य के विषय और उसकी संवेदना में बदलाव आया, अपितु उसकी भाषा, शिल्प और विधा में भी परिवर्तन हो गया।जब साहित्य के स्वरूप और उसकी संवेदना में परिवर्तन हो गया तब उस साहित्य को पढ़ने, उसे समझने और उसके मूल्यांकन की कसौटी में परिवर्तन होना स्वाभाविक था। रस, छंद, अलंकार आदि राजदरवार के सहृदय रसिकों के मूल्यांकन के आधार थे। यह शास्त्रीय आधार इस नए साहित्य को समझने के लिए नाकाफी था। समाज बदल गया। सामाजिक मूल्य बदल गये। इस सबके बावजूद साहित्य का मूल्य वही कैसे बना रह सकता था ? हिन्दी आलोचना का जन्म इसी बिन्दु पर हुआ। हिन्दी आलोचना तार्किक, वैज्ञानिक और ऐतिहासिक आधार पर काव्यशास्त्र से टकरा रहा था। आलोचना अब अपने मूल्य के लिए सिर्फ साहित्य की ओर न देखकर समाज की ओर देखने मे विश्वास करने लगा। इसे समझने के लिए आगे हम आलोचना और काव्यशास्त्र में अंतर को समझेंगे।
आलोचना और काव्यशास्त्र में अंतर
आलोचना का आधार आधुनिक बोध है, जबकि काव्यशास्त्र का आधार मघ्यकालीन बोध है। इसे थोड़ा विस्तार से समझने की कोशिश करेंगे। मध्यकालीन बोध के केन्द्र में ‘ आस्था ’ होती है, जबकि आधुनिक बोध के केन्द्र में ‘ तर्क ’। आध्यात्म के तौर पर ईश्वर, राजनीतिक तौर पर राजा, सामाजिक तौर पर वर्ण-व्यवस्था, जाति-व्यवस्था, ब्राह्मणवादी एवं पुरूषवादी व्यवस्था आदि – इन सबका अस्तित्व आस्था के मजबूत आधार पर ही टिका हुआ है। चेतना के धरातल पर आस्था और आर्थिक, सामाजिक एवं राजनीतिक धरातल पर सामंतवादी व्यवस्था मध्यकालीन बोध को बनाने का काम करती है। पूंजीवादी व्यवस्था को आगे बढ़ने के लिए सामंतवादी अवरोधों को हटाना होता है। इसलिए वह आस्था नामक अवरोध को आधुनिक बोध के तर्क से विस्थापित करती है। तार्किक और वैज्ञानिक ज्ञान ही आधुनिक बोध का आधार है। आलोचना का संबंध इसी तार्किक और वैज्ञानिक ज्ञान से है। इसके विपरीत काव्यशास्त्र का संबंध आस्था से है। रस सम्प्रदाय हो या अलंकार सम्प्रदाय, रीति सम्प्रदाय हो या वक्रोक्ति सम्प्रदाय- सभी आस्था के आधार पर ही टिके हुए हैं।
आलोचना का संबंध इतिहास बोध से है जबकि शास्त्र का संबंध सनातन से है। था, है और रहेगा – इस दृष्टि को शाश्वत या सनातन दृष्टि कहते हैं। इसमें इतिहास का हस्तक्षेप संभव नहीं है। अर्थात इस दृष्टि के अनुसार इतिहास में परिवर्तन का भाव, अनुभूति, संवेदना पर कोई प्रभाव नहीं होगा, क्योंकि यह सनातन है। इसे परिवर्तन विरोधी दृष्टि भी कह सकते हैं। इसके विपरीत आलोचना का संबंध इतिहास बोध से है। वह मानता है कि इतिहास में परिवर्तन का भाव, अनुभूति, संवेदना पर प्रभाव होगा। अर्थात भाव, अनुभूति, संवेदना शाश्वत और सनातन नहीं हैं, इनमें इतिहास के परिवर्तन से बदलाव आता है। आलोचना का कार्य इस परिवर्तित संवेदना की पहचान करने, उसका विश्लेषण करने, उस परिवर्तन के कारणों की पहचान करने और उसे अपने समाज और इतिहास से जोड़ने का है।
आलोचना सामाजिक विमर्श है जबकि काव्यशास्त्र शुद्ध साहित्यिक विमर्श है। इसलिए आलोचना के मूल्य सामाजिक मूल्य से संबंधित होते हैं जबकि काव्यशास्त्र के मूल्य शुद्व साहित्यिक होते हैं। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने लोकमंगल को अपना काव्य मूल्य बनाया। लोकमंगल का संबंध समाज से है। इसी तरह हम करुणा, आनन्द की सिद्धावस्था और आनन्द की साघनावस्था आदि को भी देख सकते हैं। ये सभी काव्यमूल्य सामाजिक और ऐतिहासिक संदर्भ रखते हैं। इसके विपरीत रस-सिद्धांत, ध्वनि-सिद्धांत, अलंकार, रीति, वक्रोक्ति आदि काव्यमूल्य शुद्ध साहित्यिक मूल्य हैं। इनका संबंध काव्यशास्त्र से है। आधुनिक आलोचना शुद्ध साहित्यिक मूल्य का विरोध करती है।
आधूनिकता का परिणाम राष्ट्र की अवधारणा है। राष्ट्र की अवधारणा एक राजनीतिक अवधारणा है। इसलिए साहित्य की आलोचना राष्ट्र की अवधारणा से अलग नहीं हो सकती। राष्ट्र की अवधारणा में समाज, इतिहास, राजनीति, धर्म, अर्थव्यवस्था ये सभी आ जाते हैं। इसलिए हम देखते हैं कि आधुनिक आलोचक समाज, इतिहास, राजनीति,अर्थव्यवस्था, धर्म आदि के प्रश्न से टकराता है। इस टकराहट से ही वह साहित्य के मूल्य भी निर्मित करता है।
आधुनिकता एक आर्जित सत्य है। मनुष्य ने वैज्ञानिक और तार्किक ज्ञान से इस सत्य को अर्जित किया है। इसलिए आधुनिक आलोचना आधुनिक ज्ञान-विज्ञान के अन्य अनुशासनों की मदद लेता है। साहित्य का संबंध मानव मन से है। इसलिए आलोचना मानव मन के विज्ञान मनोविज्ञान का सहारा लेती है। इसतरह वह साहित्य के नए-नए अर्थ को प्रकाश में लाता है। इन नए अर्थ की पहचान हम काव्यशास्त्र के माध्यम से नहीं कर सकते थे।
कुलमिलाकर देखें तो आधुनिक आलोचना आधुनिक ज्ञान-विज्ञान के आलोक में साहित्य के साथ रागात्मक संबंध स्थापित करने में, साहित्य के माध्यम से समाज को समझने में, समाज और इतिहास के अनुसार मूल्य निर्णय करने में हमारी मदद करता है। आलोचना वह तार्किक एवं बौद्धिक प्रविधि या प्रक्रिया देता है जिसके माध्यम से हम मूल्य तक पहुंचते हैं।
(................राजीव कुमार कुंवर जी से साभार)
आलोचना क्या है
आलोचना शब्द 'लुच' धातु से बना है. 'लुच' का अर्थ है 'देखना'. समीक्षा और समालोचना शब्दों का भी यही अर्थ है. अंग्रेज़ी के 'क्रिटिसिज्म' शब्द के समानार्थी रूप में 'आलोचना' का व्यवहार होता है. संस्कृत में प्रचलित 'टीका-व्याख्या' और काव्य-सिद्धांत निरूपण के लिए भी आलोचना शब्द का प्रयोग कर लिया जाता है. किन्तु आचार्य रामचंद्र शुक्ल का स्पष्ट मत है कि आधुनिक आलोचना, संस्कृत के काव्य-सिद्धांत निरूपण से स्वतंत्र चीज़ है.
आलोचना का कार्य है किसी साहित्यिक रचना की अच्छी तरह परीक्षा करके उसके रूप, गुण और अर्थव्यवस्था का निर्धारण करना. डाक्टर श्यामसुंदर दास ने आलोचना की परिभाषा इन शब्दों में दी है:
यदि हम साहित्य को जीवन की व्याख्या मानें तो आलोचना को उस व्याख्या की व्याख्या मानना पड़ेगा.
अर्थात् आलोचना का कर्त्तव्य साहित्यिक कृति की विश्लेषण परक व्याख्या है. साहित्यकार जीवन और अनुभव के जिन तत्वों के संश्लेषण से साहित्य रचना करता है, आलोचना उन्हीं तत्वों का विश्लेषण करती है. साहित्य में जहाँ रागतत्व प्रधान है वहाँ आलोचना में बुद्धि तत्व. आलोचना ऐतिहासिक, सामाजिक, राजनीतिक परिस्थितियों और शक्तियों का भी आकलन करती है और साहित्य पर उनके पड़ने वाले प्रभावों की विवेचना करती है.
व्यक्तिगत रूचि के आधार पर किसी कृति की निन्दा या प्रशंसा करना आलोचना का धर्म नहीं है. कृति की व्याख्या और विश्लेषण के लिए आलोचना में पद्धति और प्रणाली का महत्त्व होता है. आलोचना करते समय आलोचक अपने व्यक्तिगत राग-द्वेष, रूचि-अरूचि से तभी बच सकता है जब पद्धति का अनुसरण करे. वह तभी वस्तुनिष्ठ होकर साहित्य के प्रति न्याय कर सकता है. इस दृष्टि से हिन्दी में आचार्य रामचंद्र शुक्ल को सर्वश्रेष्ठ आलोचक माना जाता है.
आलोचना के प्रकार
आलोचना करते समय जिन मान्यताओं और पद्धतियों को स्वीकार किया जाता है, उनके अनुसार आलोचना के प्रकार विकसित हो जाते हैं. सामान्यत: समीक्षा के चार प्रकारों को स्वीकार किया गया है:-
1. सैद्धांतिक आलोचना
2. निर्णयात्मक आलोचना
3. प्रभावाभिव्यंजक आलोचना
4. व्याख्यात्मक
सैद्धांतिक आलोचना
सैद्धांतिक आलोचना में साहित्य के सिद्धांतों पर विचार होता है. इसमें प्राचीन शास्त्रीय काव्यांगों - रस, अलंकार आदि और साहित्य की आधुनिक मान्यताओं तथा नियमों की मुख्य रूप से विवेचना की जाती है. सैद्धांतिक आलोचना में विचार का बिन्दु यह है कि साहित्य का मानदंड शास्त्रीय है या ऐतिहासिक. मानदंड का शास्त्रीय रूप, स्थिर और अपरिवर्तनशील होता है. किन्तु मानदंडों को ऐतिहासिक श्रेणी मानने पर उनका स्वरूप परिवर्तनशील और विकासात्मक होता है. दोनों प्रकार की सैद्धांतिक आलोचनाएँ उपलब्ध हैं. किन्तु अब उसी सैद्धांतिक आलोचना का महत्त्व अधिक है जो साहित्य के तत्वों और नियमों की ऐतिहासिक प्रक्रिया में विकासमान मानती है.
निर्णयात्मक आलोचना
निश्चित सिद्धांतों के आधार पर जब साहित्य के गुण-दोष, श्रेष्ठ-निकृष्ट का निर्णय कर दिया जाता है तब उसे निर्णयात्मक आलोचना कहते हैं. इसे एक प्रकार की नैतिक आलोचना भी माना जाता है. इसका मुख्य स्वभाव न्यायाधीश की तरह साहित्यिक कृतियों पर निर्णय देना है. ऐसी आलोचना प्राय: ही सिद्धांत का यांत्रिक ढंग से उपयोग करती है. इसलिए निर्णयात्मक आलोचना का महत्त्व कम हो जाता है.
यद्यपि मूल्य या श्रेष्ठ साहित्य और निकृष्ट साहित्य का बोध पैदा करना आलोचना के प्रधान धर्मों में से एक है लेकिन वह सिद्धांतों के यांत्रिक उपयोग से नहीं संभव है. 'हिन्दी साहित्य कोश' में निर्णयात्मक आलोचना के विषय में बताया गया है:
वह कृतियों की श्रेष्ठता या अश्रेष्ठता के संबंध में निर्णय देती है. इस निर्णय में वह साहित्य तथा कला संबंधी नियमों से सहायता लेती है. किन्तु ये नियम साहित्य और कला के सहज रूप से संबंध न रख बाह्य रूप से आरोपित हैं.
इस प्रकार आलोचना में निर्णय विवाद का बिंदु उतना नहीं है जितना निर्णय के लिए अपनाया गया तरीका. जैसे रामचंद्र शुक्ल की आलोचना में मूल्य निर्णय है, लेकिन उसका तरीका सृजनात्मक है, यांत्रिक नहीं. निर्णयात्मक आलोचना में मूल्य और तरीका, दोनों की में लचीलापन नहीं होता.
प्रभावाभिव्यंजक आलोचना
इस आलोचना में काव्य का जो प्रभाव आलोचक के मन पर पड़ता है उसे वह सजीले पद-विन्यास में व्यक्त कर देता है. इसमें वैयक्तिक रूचि ही मुख्य है.
प्रभावाभिव्यंजक समालोचना कोई ठीक-ठिकाने की वस्तु नहीं है. न ज्ञान के क्षेत्र में उसका मूल्य है न भाव के क्षेत्र में...................................आचार्य रामचंद्र शुक्ल
कारण यह है कि यह आलोचना कृति का विश्लेषण-मूल्याँकन न करके कृति में निहित भावों और अनुभवों का पुनरूत्पादन कर देती है.
व्याख्यात्मक आलोचना
व्याख्यात्मक आलोचना में किसी साहित्यिक कृति में निहित अनुभव की वास्तविकता और उसके कला-विवेक को समझने का प्रयत्न किया जाता है. व्याख्यात्मक आलोचना में कविता और साहित्य तथा उसके सिद्धांतों को अंतिम और पूर्ण नहीं मान लिया जाता है. वह मानती है कि जीवन और ज्ञान के विकासमान संदर्भ में साहित्य और उसके मानदंड भी विकसित होते रहते हैं. इसलिए व्याख्यात्मक आलोचना साहित्य पर विचार और विश्लेषण करते समय इतिहास, समाजशास्त्र, मनोविज्ञान आदि का उपयोग आवश्यक रूप से करती है.
व्याख्यात्मक आलोचना में जब कृति की व्याख्या करते समय उसकी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर अधिक बल हो तो उसे ऐतिहासिक आलोचना कहा जाता है. इसी प्रकार जब मनोविज्ञान के तत्वों पर बल देकर कृति की वास्तविकता की व्याख्या होती है तो उसे मनोवैज्ञानिक आलोचना कहते हैं. साहित्य की व्याख्या-सराहना जब ऐतिहासिक और द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद के आधार पर होती है, जिसमें समाज की वर्गीय स्थितियों और संघर्षों से मनुष्य के अनुभव का निर्माण होता है, तब उसे प्रगतिवादी आलोचना कहते हैं.
वर्तमान काल में रूपवादी और संरचनावादी आलोचना का भी चलन हो गया है. इस कोटि की आलोचना में साहित्य का रूपपक्ष (Form) और रचना-विन्यास (Structure) ही मुख्य होता है. यह आलोचना साहित्य में 'भाव वस्तु' जिसे अंग्रेज़ी में कंटेंट (Content) कहा जाता है, को गौण मानती है.
इसके अतिरिक्त आलोचना में उत्तर आधुनिकता, नारीवाद, दलितवाद आदि कई अन्य विचारधाराओं के प्रभाव ने परिवर्तनकारी हस्तक्षेप किया है.
2 comments
बहुत खुब।
कृपया और विस्तार से जानकारी देँ
->सुप्रसिद्ध साहित्यकार और ब्लागर गिरीश पंकज जी का साक्षात्कार पढने के लिऐ यहाँ क्लिक करेँ
achhi jaankari hai
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