हिंदी अपने आदिकाल से ही संघर्ष कर रही है। उसे उसका प्राप्य अभी तक नहीं मिल सका है। अपने को बचाने की खातिर हिंदी ने कई तरह के समझौते भी किए। अवधी, ब्रजभाषा, भोजपुरी, उर्दू आदि के साथ अच्छे रिश्ते बनाए। किसी का तिरस्कार नहीं किया। यहां तक कि उसने अंग्रेजी से भी दोस्ती का हाथ मिलाया। यह हिंदी की शक्ति है, जो शक्ति किसी भी जिंदा और जिंदादिल भाषा की होती है। इस प्रक्रिया में हिंदी हर पराई चीज का हिंदीकरण कर लेती है। अतः उसने अंग्रेजी शब्दों का भी हिंदीकरण किया। आजादी के बाद भी हिंदी अंग्रेजी शब्दों के हिंदी प्रतिशब्द बनाती रही। बजट, टिकट, मोटर और बैंक जैसे शब्द सीधे भी ले लिए गए, क्योंकि ये हिंदी के प्रवाह में घुल-मिल जा रहे थे और इनका अनुवाद करने के प्रयास में 'लौहपथगामिनी' जैसे असंभव शब्द ही हाथ आते थे। आज भी पासपोर्ट को पारपत्र कहना जमता नहीं है, हालांकि इस शब्द में जमने की संभावना है। लेकिन 1980-90 के दौर में जनसाधारण के बीच हिंदी का प्रयोग करने वालों में सांस्कृतिक थकावट आ गई और इसी के साथ उनकी शब्द निर्माण की क्षमता भी कम होती गई। उन्हीं दिनों हिंदी का स्परूप थोड़ा-थोड़ा बदलने लगा था, जब संडे मेल, संडे ऑब्जर्वर जैसे अंग्रेजी नामों वाले पत्र हिंदी में निकलने लगे। यह प्रवृत्ति 70 के दशक में मौजूद होती, तो हिंदी में रविवार नहीं, संडे ही निकलता या फिर आउटलुक के हिंदी संस्करण में साप्ताहिक लगाने की जरूरत नहीं होती, सीधे आउटलुक ही निकलता, जैसे इंडिया टुडे कई भाषाओं में एक ही नाम से निकलता है। 90 के दशक में जैसे टाइम्स ऑफ इंडिया ने भारत की अंग्रेजी पत्रकारिता का चेहरा बदल डाला, उसे आत्मा-विहीन कर दिया, वैसे ही नए नवभारत टाइम्स ने हिंदी पत्रकारिता में एक ऐसी बाढ़ पैदा कर दी, जिसमें बहुत-से मूल्य और प्रतिमान डूब गए। बहरहाल, नवभारत टाइम्स का यह प्रयोग आर्थिक दृष्टि से सफल हुआ और अन्य अखबारों के लिए मॉडल बन गए। कुछ हिंदी पत्रों में तो अंग्रेजी के स्वतंत्र पन्ने भी छपने लगे।
भाषा संस्कृति का वाहक होती है। प्रत्येक सांस्कृतिक बदलाव अपने लिए एक नई भाषा गढ़ता है। नक्सलवादियों की भाषा वह नहीं है जिसका इस्तेमाल गांधी और जवाहरलाल करते थे। आज के विज्ञापनों की भाषा भी वह नहीं है जो 80 के दशक तक होती थी। यह एक नई संस्कृति है जिसके पहियों पर आज की पत्रकारिता चल रही है। इसे मुख्य रूप से उपभोक्तावाद की संस्कृति कह सकते हैं, जिसमें किसी वैचारिक वाद के लिए जगह नहीं है। इस संस्कृति का केंद्रीय सूत्र रघुवीर सहाय बहुत पहले बता चुके थे -- उत्तम जीवन दास विचार। जैसे दिल्ली के प्रगति मैदान में उत्तम जीवन (गुड लिविंग) की प्रदर्शनियां लगती हैं, वैसे ही आज हर अखबार उत्तम जीवन को अपने झंग से परिभाषित करने लगा है। अपने-अपने ढंग से नहीं, अपने ढंग से, जिसका नतीजा यह हुआ है कि सभी अखबार एक जैसे ही नजर आते हैं - सभी में एक जैसे रंग, सभी में एक जैसी सामग्री, विचार-विमर्श का घोर अभाव तथा जीवन में सफलता पाने के लिए एक जैसी शिक्षा। अखबार आधुनिकतम जीवन के विश्वविद्यालय बन चुके हैं और पाठक सोचने-समझने वाला प्राणी नहीं, बल्कि मौन रिसीवर।
इसका असर हिंदी की जानकारी के स्तर पर भी पड़ा है। टीवी चैनलों में उन्हें हेय दृष्टि से देखा जाता है जो शुध्द हिंदी के प्रति सरोकार रखते हैं। प्रथमतः तो ऐसे व्यक्तियों को लिया ही नहीं जाता। ले लेने के बाद उनसे मांग की जाती है कि वे ऐसी हिंदी लिखें और बोलें जो ऑडिएंस की समझ में आए। इस हिंदी का शुध्द या टकसाली होना जरूरी नहीं है। यह शिकायत आम है कि टीवी के परदे पर जो हिंदी आती है, वह अकसर गलत होती है। सच तो यह है कि अनेक हिंदी समाचार चैनलों के प्रमुख ऐसे महानुभाव हैं जिन्हें हिंदी आती ही नहीं और यह उनके लिए शर्म की नहीं, गर्वित होने की बात है। यही स्थिति नीचे के पत्रकारों की है। वे शायद अंग्रेजी भी ठीक से नहीं जानते, पर हिंदी भी नहीं जानते। चूंकि अच्छी हिंदी की मांग नहीं है और संस्थान में उसकी कद्रदानी भी नहीं है, उसलिए हिंदी सीखने की प्रेरणा भी नहीं है। हिंदी एक ऐसी अभागी भाषा है जिसे न जानते हुए भी हिंदी की पत्रकारिता की जा सकती है।
प्रिंट मीडिया की ट्रेजेडी यह है कि टेलीविजन से प्रतिद्वंद्विता में उसने अपने लिए कोई नई या अलग राह नहीं निकाली, बल्कि वह टेलीविजन का अनुकरण करने में लग गया। कहने की जरूरत नहीं कि जब हिंदी क्षेत्र में टेलीविजन का प्रसार शुरू हो रहा था, तब तक हिंदी पत्रों की आत्मा आखिरी सांस लेने लग गई थी। पुनर्जन्म के लिए उसके पास एक ही मॉडल था, टेलीविजन की पत्रकारिता। मालिक लोग भी कुछ ऐसा ही चाहते थे। संपादक रह नहीं गए थे जो कुछ सोच-विचार करते और प्रिंट को इलेक्ट्रॉनिक का भतीजा बनने से बचा पाते। नतीजा यह हुआ कि हिंदी के ज्यादातर अखबार टेलीविजन की फूहड़ अनुकरण बन गए। इसका असर प्रिंट मीडिया की भाषा पर भी पड़ा। हिंदी का टेलीविजन जो काम कर रहा है, वह एक विकार-ग्रस्त भाषा में ही हो सकता है। अशुध्द आत्माएं अपने को शुध्द माध्यमों से प्रगट नहीं कर सकतीं। सो हिंदी पत्रों की भाषा भी भ्रष्ट होने लगी। एक समय जिस हिंदी पत्रकारिता ने राष्ट्रपति, संसद जैसे दर्जनों शब्द गढ़े थे, जो सबकी जुबान पर चढ़ गए, उसी हिंदी के पत्रकार प्रेसिडेंट, प्राइम मिनिस्टर जैसे शब्दों का इस्तेमाल करने लगे। इसके साथ ही यह भी हुआ कि हिंदी पत्रों में काम करने के लिए हिंदी जानना आवश्यक नहीं रह गया। पहले जो हिंदी का पत्रकार बनना चाहता था, वह कुछ साहित्यिक संस्कार ले कर आता है। वास्तव में शब्द की रचनात्मक साधना तो साहित्य ही है। इसी नाते पहले हिंदी अखबारों में कुछ साहित्य भी छपा करता था। कहीं-कहीं साहित्य संपादक भी होते थे। लेकिन नए वातावरण में साहित्य का ज्ञान एक अवगुण बन गया। साहित्यकारों को एक-एक कर अखबारों से बाहर किया जाने लगा। हिंदी एक चलताऊ चीज हो गई -- गरीब की जोरू, जिसके साथ कोई भी कभी भी छेड़छाड़ कर सकता है। यही कारण है कि आब हिंदी अखबारों में अच्छी भाषा पढ़ने का आनंद दुर्लभ तो हो ही गया है, उनसे शुध्द लिखी हुई हिंदी की मांग करना भी नाजायज लगता है। जिनका हिंदी से कोई लगाव नहीं है, जिनकी हिंदी के प्रति कोई प्रतिबध्दता नहीं है, जो हिंदी की किताबे नहीं पढ़ते (सच तो यह है कि वे कोई भी किताब नहीं पढ़ते), उनसे यह अपेक्षा करना कि वे हिंदी को सावधानी से बरतें, उनके साथ अन्याय है, जैसे गधे से यह मांग करना ठीक नहीं है कि वह घोड़े की रफ्तार से चल कर दिखाए।
आगे क्या होगा? क्या हिंदी बच भी पाएगी? जिन कमियों और अज्ञानों के साथ आज हिंदी का व्यवहार हो रहा है, वैसी हिंदी बच भी गई तो क्या? लेकिन जो तमीज उतार सकता है, वह धोती भी खोल सकता है। इसलिए आशंका यह है कि धीरे-धीरे अन्य भारतीय भाषाओं की तरह हिंदी भी मरणासन्न होती जाएगी। आज हिंदी जितनी बची हुई है, उसका प्रधान कारण हिंदी क्षेत्र का अविकास है। आज अविकसित लोग ही हिंदी के अखबार पढ़ते हैं। उनके बच्चे अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों में जाने लगे हैं। जिस दिन यह प्रक्रिया पूर्णता तक पहुंच जाएगी, हिंदी पढ़ने वाले अल्पसंख्यक हो जाएंगे। विकसित हिंदी भाषी परिवार से निकला हुआ बच्चा सीधे अंग्रेजी पढ़ना पसंद करेगा। यह एक भाषा की मौत नहीं, एक संस्कृति की मौत है। कुछ लोग कहेंगे, यह आत्महत्या है। मेरा खयाल है, यह मर्डर है।
राजकिशोर जी के एक लेख का अंश साभार
5 comments
आपने बिल्कुल सही लिखा है | साहित्यालोचन पर समय बिता कर मन प्रसन्न हो गया
मैं आपके विचारों से काफी हद तक सहमत हूँ । शुद्ध हिंदी के प्रति प्रतिबद्ध लेखकों की आज सर्वाधिक जरुरत है ।
खैर... हिन्दी के बारे में राजकिशोर जैसे महा-चिंतक की चिंता में कुछ सार तो जरूर ही होगा...
आभार इस अंश को प्रस्तुत करने का.
बहुत हीं अच्छा लेख है. मैं खुद साहित्य का छात्र हूँ और अभी ईरान में शोध कार्य कर रहा हूँ. मैं भारत के साहित्यिक समाज से बहुत अवगत नहीं हूँ. हाँ लेकिन ईरान में साहित्य का बोलबाला है. जैसा कि पता है ईस्लाम जहाँ-जहाँ गया वहाँ अपने साथ अरबी भाषा भी ले गया. उदाहरण के तौर पर मिश्र को देख सकते हैं कि वहां पुरानी भाषा, सभ्यता एवं संस्कृति होने के बावजूद अरबी भाषा को अपनाया. ईरान बहुत हीं संघर्ष के दौर से गुज़रा और फारसी भाषा को जीवित रखा. इस कार्य में फिरदौसी का महत्वपूर्ण योगदान है. आजकल यहाँ हर कार्य के लिए फारसी भाषा का हीं उपयोग होता है. यहाँ तक कि आज के ज़माने में बहुत सारे अंग्रेजी शब्द जैसे कंप्यूटर और मोबाइल जैसे शब्दों का भी पर्याय शब्द उपयोग करते हैं. यहाँ पर आमलोग कंप्यूटर को रायाने और मोबाइल को हमराह बोलते हैं. भारत में ऐसे चीज़ें क्यों नहीं हो पाती? अंग्रेजी शब्दों का हिंदी भाषा में पर्याय शब्द क्यों नहीं बना पाते या अगर बनाते भी हैं तो उसका प्रचार-प्रसार क्यों नहीं करते. हिंदी को भारत का राष्ट्रभाषा का दर्जा दिया गया है लेकिन क्या वास्तविक तौर पर ऐसा है.
मैंने हाल हीं में commonwealth games के उद्घाटन और समापन का सीधा प्रसारण दूरदर्शन द्वारा देखा. समारोह का आँखों देखा हाल सुनाने वालों के हिंदी का स्तर को बिल्कुल स्वीकार्य नहीं किया जा सकता. जब दूरदर्शन का ये हाल है तो फिर निजी चैनलों का भगवान हीं मालिक है.
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