प्रगतिशील काव्यधारा को काफी हद तक परिपूर्णता के साथ स्वरूप देने वाले दो कवि हैं, नागार्जुन और केदारनाथ अग्रवाल। दोनों का कवि-स्वभाव बहुत अलग है। पर उनकी एक सामान्य विशेषता है - सौन्दर्य और संघर्ष के विरोधी भावों में आपसी संबंध देखना। केदार के पास बाँदा जाकर नागार्जुन ने जो अनुभव किया, उस पर उनकी बेहद सुंदर कविता है -
“केन कूल की काली मिट्टी, वह भी तुम हो!
कालिंजर का चौड़ा सीना, वह भी तुम हो!
ग्रामबधू की दबी हुई कजरारी चितवन, वह भी तुम हो!
कुपित कृषक की टेढ़ी भौंहें, वह भी तुम हो!
पकी-सुनहली फसलों की छवि-छटा निराली, वह भी तुम हो!
लाठी लेकर काल-रात्रि में करता जो उनकी रखवाली, वह भी तुम हो!”
केदार की तरह नागार्जुन भी “कजरारी चितवन” के नशे में इस तरह चूर नहीं हो जाते कि “कुपित कृषक की टेढ़ी भौंहें” ध्यान से ओझल हो जाएं। जितनी सुंदरता पकी सुनहली फसलों में है, वह काल रात्रि में लाठी लेकर की गई रखवाली का फल है। श्रम और सौंदर्य के बिना कोई सुंदरता और सार्थकता उत्पन्न नहीं होती। इसलिए नागार्जुन दोनों को मिलाकर जीवन की पूर्णता का बोध करते हैं। इसीलिए उनका सौन्दर्यबोध पलायनवादी नहीं है और उनकी संघर्ष चेतना सर्वनाशवादी नहीं है। संघर्ष और सौंदर्य को परस्पर-संबद्ध रूप में देखने के लिए मनुष्य के सार्थक प्रयत्न बन जाते हैं।
संघर्ष और सौंदर्य को संबंधित मानने वाली भावदृष्टि न तो आध्यात्मिक और दैवी शाक्तियों की ओर ले जाती है, न समाज के धनी-मानी लोगों की ओर। इन दोनों ही तरह की प्रवृत्तियाँ सौंदर्य को जीवन की वास्तविकता से बाहर, संघर्ष से दूर, एकांत-साधना का विषय बना देती है। उनके लिए “कजरारी चितवन” में डूब जाना और काल रात्रि में लाठी लेकर रखवाली करनेवाले की ओर ध्यान तक न देना स्वाभाविक है। विष्णु की प्रिया “लक्ष्मी” को संबोधित करके नागार्जुन ने एक कविता में लिखा है --
“जय-जय हे महारानी
दूध को करो पानी
आपकी चितवन है प्रभु की खुमारी
महलों में उजाला
कुटियों पर पाला
कर रहा तिमिर प्रकाश की सवारी।“
जैसे रीतिवादी कविता का कोई सामंती नायक मदहोश पड़ा हो, वैसे ही “प्रभु” लक्ष्मी की “चितवन” की खुमारी में पड़े हैं और उनकी महत्ता के नीचे धनी वर्ग सुख भोग रहे हैं, निर्धन श्रमिक कष्ट सह रहे हैं। इसीलिए दूध का पानी बन रहा है। यह लीला धर्म की आड़ में जोरों पर चल रही है। नागार्जुन को न तो अत्याचारी धनी वर्ग से लगाव है, न मानव-जाति की असह्य कष्ट में डूबा देखकर भी इसे “भाग्य” का खेल और पिछले जन्मों का फल बतानेवाले धर्म-अध्यात्म-ईश्वर से। वे साधारण जनता के संघर्ष से गहरी ममता रखते हैं। प्रेमचंद में उन्होंने जो सबसे बड़ा गुण देखा था, वह है --
“था पता तुम्हें, कितना दुर्वह होता अक्षम के लिए भार”। इसलिए भगवान विष्णु नहीं, लोकप्रेमी कथाकार प्रेमचंद उन्हें “अंतर्यामी” जान पड़ते हैं।
नागार्जुन की संवेदना का यह सबसे बड़ा गुण है कि वे मानव-जीवन को उसकी पूर्णता में देखते हैं और मानव-जीवन की कसौटी समाज या अध्यात्म की प्रभु-शक्तियों को नहीं, बल्कि अत्यंत साधारण लोगों को मानते हैं। जो भार नहीं ढो सकता और ढोने को विवश है, उसके विद्रोह-भाव को वाणी देती है, नागार्जुन की कविता। इसलिए वह कुलीन अभिलाषाओं से हटकर आदमी की तरह जीने का तरीका सिखाती है। नागार्जुन की दृष्टि में अन्याय सुंदर नहीं होता, अन्याय का विरोध करना न्याय की स्थापना के लिए जरूरी है। इसीलिए संघर्ष का अपना सौन्दर्य होता है। जो लोग संघर्ष का रास्ता ठुकराते हैं, अपने को जनता से अलग, ऊँचे दर्जे का कवि और नागरिक मानते हैं, वे परोक्ष ढंग से न्याय का समर्थन करते हैं। नागार्जुन के लिए कवि होने और नागरिक होने में कोई विरोध नहीं है। अगर यह नौबत आती ही है, तो उनका दो टूक उत्तर है --
“कवि हूँ पीछे, पहले तो मैं मानव ही हूँ
अतिमानव या लोकोत्तर किसको कहते हैं
नहीं जानता!”
इस तरह नागार्जुन अतिमानव और लोकोत्तर की कसौटी हटाकर साधारण मनुष्य को, उत्पीड़ित और संघर्षशील मनुष्य को, कविता के केन्द्र में ला देते हैं। जनसाधारण से उनकी ममता इतनी गहरी है कि वे अपना कवि-कर्तव्य भी उसी आधार पर तय करते हैं --
“प्रतिहिंसा ही स्थायी भाव है मेरे कवि का
जन-जन में जो ऊर्जा भर दे मैं उद्-गाता हूँ उस रवि का।“
इसलिए, नागार्जुन समाज के जनतांत्रिक परिवर्तन और मनुष्य के उदात्त भावबोध के कवि हैं। समाज में अत्याचार हो या स्त्री का उत्पीड़न, हरिजनों का संहार हो या साम्प्रदायिक पागलपन, नागार्जुन इस सभी चीजों को मनुष्यता के सुंदर और भव्य आदर्शों के विरूद्ध मानते हैं।
-----------------------------प्रो0 अजय तिवारी
3 comments
एक अच्छा विश्लेषण - एक अच्छी चर्चा।
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.com
सुंदर आलेख!
रक्षाबंधन पर हार्दिक शुभकामनाएँ!
विश्वभ्रातृत्व विजयी हो!
अच्छा लिखा है। शुभकामनाएं
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