समकालीनता से आक्रांत होना स्वाभाविक है। तो भी, किसी अनचिह्नित मोर्चे का सिपाही बनकर, सिर्फ यह सिद्ध करने के लिए कि अब मैं। दकियानूस नहीं रहा, आधारभूत स्थापनाओं, मान्यताओं को दुष्ट या प्रतिपक्षी सिद्ध करना बौद्धिकता तो है, बुद्धिमानी नहीं। सुधीशजी के सोचने का दायरा बड़ा है, तरीका बेशक उदार है। शक की बुनियाद पर बात करते हैं और बुनियाद पर शक करते हैं। स्थापना देते हैं कि संदेह आलोचना का बीज होना चाहिए। किन्तु संदेह आलोचना ही नहीं, ज्ञान मीमांसा का भी प्रस्थान बिन्दु है। अजीब सी बात है कि यह भारतीय शास्त्रीय चिन्तन का पुराना वाक्य है। पक्ष है कि अज्ञात अथवा सुविज्ञात विषय के संदर्भ में बुद्धि का, आलोचना का कोई प्रसंग नहीं होता। इसलिए प्रतिष्ठित परिपाटी पर संदेह नहीं किया जाता, प्रत्युत निषेध किया जा सकता है किन्तु निद्देश्य नहीं। आप देख सकते हैं, भारतीय चिन्तन की मुख्यधारा में ईश्वरवाद की कोई अनिवार्य भूमिका नहीं हैं जबकि अवांतर धाराओं में वह भूमिका अहम है। हम अवांतर-गौण धाराओं को प्रतिनिधित्व देकर परंपरा-विशेषज्ञ हो उठते हैं। बिना बहुत अधिक यत्न के समझ सकते हैंे कि हिन्दूवादी राजनीति हिन्दू, धर्म, भारतीयता आदि को बहुत ही क्षीण रूप में अपनाते हैं और हंगामा अधिक करते हैं। अंत में उन्हें भी थककर स्वयं को ‘सेक्युलर’ साबित करने का यत्न करना होता है। सैद्धान्तिक दिवालियापन की वजह से उन लोगों को तरह-तरह के आवरण ओढ़ने पड़ते हैं। फलस्वरूप हिन्दूवादी तत्व के विभिन्न मोर्चे आपस में टकराते हैं। उनके पास जुमले हैं, आकांक्षाएं हैं किन्तु न तो सैद्धान्तिकी है, न इतिहास बोध।
सुधीश के अंतर्मन में सवाल बनता है, ‘‘ऐसा क्यों होता है कि शुक्लजी के विमर्श के मुख्य व्यंजक चीख-चीखकर कहते हैं कि उनका बुनियादी संदर्भ हिन्दू-जाति का अभ्युदय है और वे तथा बहुत से परवर्ती पाठकर्ता इस आवाज को दबा जाते हैं?’’ जवाब उन्हें नहीं मिलता, चूँकि सवाल उन्हीं का है इसलिए जवाब भी उन्हीं का, ‘‘यह जाति के रक्षात्मक विमर्श की आदत है। अपनी जाति को खोलना रक्षात्मक विमर्श में अपनी सत्ता को कमज़ोर करना है। यह सेक्युलर विमर्श की भीतरी समस्या है।’’ (पृ.285) किन्तु यह एक कमज़ोर व्याख्या है- झेंप मिटाना है। वे स्थिति का सही चित्र बनाने में सक्षम नहीं हैं। यदि ‘सेक्युलरिज़्म’ को घेरा जाएगा, एक वृत्त में परिसीमित किया जाएगा तो यह सैद्धांतिक रूप से अनुमोदनीय नहीं होगा। किन्तु हमें ध्यान रखना होगा कि ‘सेक्युलरिज़्म’ एक ‘आइडियोलॉजी’ न होकर स्टेटमेंट है, कुछ समस्याओं का समाधान है जो बहुतों को रूचिकर हो सकता है, होता भी है इसलिए बहुत से लोग, विचारधाराएँ इसके समर्थन में उतरती हैं। जब यह सामाजिक स्वभाव बन जाएगा, बहस कम हो जाएगी- थम जाएगी। किन्तु जब तक ‘साम्प्रदायिकता’ सक्रिय रहती है-सेक्युलरिज़्म एक दमदार स्टेटमेंट के रूप में जारी रहेगा। हमें यह भी ध्यान रखना होगा कि धर्म समाज के बहुत बड़े वर्ग को अभिप्रेत रहा है। यह स्थिति ‘बटन’ दबाते ही लुप्त नहीं हो जाएगी। यह मनुष्यों की समाज-मनोवैज्ञानिक स्थिति हो सकती है, जो निषेध मात्र से विलुप्त नहीं हो जाएगी। ऐसी परिस्थिति में ‘धर्म’ या ‘धार्मिकता’ को अपने हाथों से किसी प्रपंची के हाथों सौंप देना कतई उचित नहीं है। अतिरिक्त सतर्कता के साथ तुलसी, रामचन्द्र शुक्ल और उसके बाद के पाठकर्ताओं द्वारा तैयार किए गए ‘टैक्स्ट्स’ को पढ़ना होगा। सुधीश का खिसियाना सराहनीय है, विचारणीय भी है। किन्तु इतनी जल्दी इन दिनों को ‘हिन्दू-दिनों’ में अनूदित न कर दिया जाए। सवाल बहुत बनाए जा सकते हैं - सवालों का जखीरा बनाना यहाँ अभिप्रेत नहीं। किन्तु एक सवाल कि, ‘‘हिन्दू जाति का एजेण्डा’’ किसका है - रामचन्द्र शुक्ल का या सुधीश पचौरी का?
और अंत में, सुधीश पचौरी की विदग्धता पर आशंका करना निर्मूल है। भारतीय साहित्य और खासकर संस्कृत साहित्य की परम्परा से संबद्ध पदावली के निवर्चन में अनवधानता आधुनिकता की सुबह से होती रही है। कालान्तर में भारतीय आधुनिक विद्वान इस क्षेत्र में आए तो तुलनात्मक विमलता आने ही लगी कि हिन्दूवाद का अवतार हो गया जो अपने को भारतीयता का, परम्पराओं का, शास्त्र मीमांसाओं का हितैषी कहने लगा - एक वर्ग द्वारा कहलाने भी लगा। अपने सुधीशजी भी उसी लपेटे में आ गए। उनकी कोई दुर्भावना हो ऐसी बात नहीं है, प्रत्युत उनकी भावना कहीं और संलिप्त रही। इसीलिए तो रामचन्द्र शुक्ल के धर्म, भक्ति, राम, लोक आदि पदों को कुछ जल्दी में समझ बैठे। यहाँ तक कि व्याख्याकारों तक को लपेटते हुए ‘विखण्डन प्रविधि’ से इकट्ठे सबकी ‘असलियत’ बताते हुए सबको बेपर्दा कर दिया। बहुवचन के दिनों में शुक्ल की एकार्थता को बेनकाब करना वाज़िब था, सो सुधीशजी ने अपनी अतिजीविता का कर्तव्य निभाया। चूँकि बाँध टूट चुका था, पानी कहाँ-कहाँ से समेटते, इसलिए स्रोत की ही समीक्षा कर डाली। पाठ अथवा कहें कि पुनरन्वय कर डाला और परिणाम में पाया कि यह तो ‘हिन्दू कार्यकर्ता’ हैं। तथापि सारा श्रेय सुधीश पचौरी को नहीं दिया जाना चाहिए, अधिक श्रेय तो हिन्दूवादी समय को जाता है, जिसने एक सर्वतंत्र-स्वतंत्र किन्तु परमविदग्ध विद्वान को ऐसा सोचने को प्रवृत्त किया। और इस घनघोर प्रवृत्ति में सुधीश पचौरी ने रामचन्द्र शुक्ल की ‘धार्मिक मनोभावों का सेक्युलर पाठ तैयार करने की योजना’ को साम्प्रदायिक रंग देने का यत्न किया। रामचन्द्र शुक्लीय आलोचना इस तरह के सरलीकरण का अवकाश नहीं देता। यह प्रतिशोधात्मक ‘कुपाठ’ है, निस्संदेह दुर्भाग्यपूर्ण है।
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डॉ0 रवीन्द्र कुमार दास
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