सचमुच आभार मानना पड़ेगा सुधीशजी का कि उन्होंने सचेत किया। या पचौरीजी पेंच खेलना चाहते हैं?
रामचन्द्र शुक्ल के चंद टीकाकारों को शर्मिन्दा कर सुधीश पचौरी ‘मैन ऑफ द सीरीज़’ का खिताब जीतना चाहते हैं। संभव है कि उनके ‘फैन्स-ऐसोसिएशन’ ने उन्हें वह खिताब दे भी दिया हो। लेकिन ख़तरा ‘मैच-फिक्सिंग’ का है। पहले ही निवेदन कर चुका हूँ, वे बड़े खिलाड़ी हैं। खेल का, बाज़ार का, राजनीति तक का रुख़ मोड़ने का माद्दा रखते हैं। इतने बड़े खिलाड़ी के पीछे सटोरियों की फौज न हो, ऐसा कैसे हो सकता है! किन्तु यह जान पाना मुश्किल है कि ‘फिक्सर’ कौन है? क्या चाहता है? कीमत में क्या देनेवाला है? सभी सवाल अहम हैं। वे खुद बाज़ार विशेषज्ञ हैं। इस हक़ीकत को जान चुके हैं, भाँप चुके हैं कि बाज़ार में खुद को अथवा दूसरे को बेचा कैसे जाता है।
लेखकीय चतुराई का महत्त्वपूर्ण पक्ष होता है प्रसंग और प्रासंगिकता का चयन। मलयज की पुस्तक ‘रामचन्द्र शुक्ल’, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल एवं हिन्दूवाद- तीनों में से कोई भी तभी (जब यह लेख प्रकाशित हो रहा था) चर्चा में आया हुआ मुद्दा नहीं था। शुक्लजी ने रामधुन गाने का कार्यक्रम अभी शुरू किया हो ऐसा भी नहीं था। तो फिर सुधीश को कौन-सी ऐसी आवश्यकता जान पड़ी कि अचानक ही साहित्य के ‘सेक्युलरिज़्म’ के लिए इतने अधिक उतावले हो उठे! इस सवाल का जवाब बेहद ज़रूरी है। आइए खोजते हैं। स्वयं पचौरीजी ने नोट किया, ‘‘हिन्दी का विकास, हिन्दी रचना का विकास, शुक्लजी से विपरीत दिशा में होता है और आज भी है जबकि आलोचना का विकास आज भी शुक्लजी की मूंछों में अटका है, इसलिए कहा जाता है कि रचना और आलोचना में एक फाँक आज भी है।’’(पृ.294) और फिर, ‘‘रामचन्द्र शुक्ल के विमर्श का ‘जादू’ यही है कि साहित्यिक आलोचना के ज़रिए वह एक सत्ता विमर्श पैदा करते हैं जिसमें सभ्यता के प्रश्न अचानक साहित्यिक और अचानक सामाजिक-धार्मिक बन उठते हैं।’’(पृ.285)
सुधीश पचौरी अपनी दावेदारी सुनिश्चित करने की गरज से पूरी छूट लेते हैं। मसलन, ‘‘सुनि सीतापति शील सुभाउ। मोद न मन तन पुलक नयन जल सो नर खेहर खाउ।’’ इस पद का भाष्य करते हुए उन्होंने सहज ही ‘अन्य’ के गठन का प्रबल आग्रह किया है। अकारण, तर्करहित, कि ‘‘जिसके मन में मोद नहीं है वह नराधम है’’।(पृ.288) नराधम यानी प्रतिपक्ष। किन्तु यह मानवीय सहज मनोवृत्ति है, कृपणता है कि अपने को, अपनी समझ को, अपने से संबंधित बहुत-सी चीजों को, दूसरों से बेहतर कहलवाना चाहता है। और ‘‘जाके प्रिय न राम वैदेही’’ की व्याख्या में वही वितण्डा खड़ा करते हैं। किन्तु जिज्ञासा है कि यहाँ ‘राम वैदेही’ कथ्य है अथवा ‘जा के’ कथ्य है। सवाल भक्ति का है, भक्ति की समझ का है, सवाल रामवैदेहीवाद का नहीं जैसाकि सुधीश तय करना चाहते हैं। एक प्रकार का उत्कट समाजशास्त्र है, जो था नहीं, बल्कि पैदा किया जा रहा है बिना किसी विवरणात्मक आधार के।
भारत के प्राचीन साहित्य में भगवत्तत्व, अध्यात्म, धर्म आदि पदों की बेशक प्रचुरता है। इसके अपने पर्याप्त अन्य कारण हैं। इस वजह से सवाल उठाया जाएगा, फाँक खोलने का यत्न किया जाएगा तो वह कदम-कदम पर सहज ही प्राप्त होता जाएगा और पूरी की पूरी विरासत ‘उनके’ जिम्मे चला जाएगा जो समुचित तात्पर्य समझने में भी सक्षम नहीं हैं। हालाँकि वे लोग पिछले कुछ वर्षों से स्वयं को भारतीयता का संवाहक, संरक्षक कहने, समझने लगे हैं। यह एक प्रकार की इतिहासमूलक भावुकता है। ऐसा करना अपने उस छायादार पेड़ के मूल में आग बरसाने जैसा है जिसके नीचे सभी शरण पाते हैं, लेकिन उस पर लगातार शक करते हैं। कुछ लोग बस इसी फिराक में बैठे हैं कि कब मौका मिले जो उस पेड़ पर अपना हक़ जताएँ। सुधीश पचौरी यही समझाने का यत्न करते हैं कि ‘यह विरासत का पेड़ ‘‘उनका’’ है। हम इस पर अधिकार नहीं जता सकते। आओ, यहाँ से भाग चलें। इस पेड़ में बहुवचन की संभावना नहीं है।’ किन्तु वास्तविक स्थिति ऐसी नहीं है।
विकास की अपनी गतिमयता है। किसी को भी अपना पूर्वज ‘पुरातन’ सा दिखना चाहिए, आउट-डेटेड भी किन्तु विरोधी अथवा ‘अन्य’ नहीं। शुक्लजी के लेखकीय वितान में वे सारी बातें नहीं होंगी जो पचौरीजी ने जान-पढ़ ली होगी। किन्तु सिर्फ इसलिए, शुक्लजी हिन्दू साम्प्रदायिक नहीं मान लिये जाएं कि उन्होंने राम या धर्म या हिन्दू की बात की है। धर्म की बात करना और धर्म के नाम से राज करना-दानों बातों में फ़र्क तो होगा।
सुधीश पचौरी ‘राम’ के प्रसंग में एक श्रृंखला बनाते हैं और हमें जगाते हैं (उस ‘सो’ गई आलोचना (पृ.283) की उनींदी से) कि यह ‘रामवाद’ है, जो तुलसी से शुरू होता है। तुलसी, शायद, विमर्शकार नहीं है, राम के प्रेमी है, इसलिए ‘उन’ पर बरसना फायदे का सौदा नहीं जानकर उनको नज़रअन्दाज करते हैं। अगले सोपान पर हैं तुलसी के आलोचक रामचन्द्र शुक्ल, जो सुधीश की फौरी राय में तुलसी के माध्यम से ‘हिन्दू’ जाति का गठन करते हैं- राम के दीवाने हिन्दू और इसके इतर ‘अन्य’। वे तुलसी द्वारा प्रस्तावित चरित्र राम तथा राम-आख्यान के आलोचक और व्याख्याकार हैं। किन्तु यह रूप ‘दिखाऊ’ है असल में वे एक हिन्दू विमर्शकार है। वे हिन्दू जाति को संगठित-परिभाषित करते हैं। इस संगठन कार्य में शुक्ल की उग्रता ‘शिव सेना’ की उग्रता तक पहुँचती है। (पृ.285) अन्यत्र सुधीशजी शुक्लजी को थोड़ी राहत भी देते नज़र आते हैं, ‘‘रामचन्द्र शुक्ल के जबर्दस्त विमर्श में सक्रिय हिन्दुत्व, यह इन दिनों की भाजपा का हिन्दुत्व नहीं है, लेकिन उस तक आता जरूर है।’’ (पृ.284) उक्त श्रृंखला का तीसरा और आख़िरी सोपान क्रम है- रामविलास शर्मा, मलयज और नामवर की मौन भरी चतुराई। सुधीशजी का वास्तविक क्षोभ इनसे है। जब तुलसी बिना किसी रोक झिझक के हिन्दू (वादी) माने जा सकते हैं, शुक्लजी को भी हिन्दू सिद्ध किया ही जा सकता है तो आपलोग, तुलसी और शुक्लजी से गहरा नाता रखनेवाले (क्यों हिन्दूवाद में पैर नहीं जमाते! ऐसा करके आप) एक बड़ी गलती कर रहे हैं। इस गलती का कारण खोजते हुए पचौरीजी स्पष्ट करते हैं, ‘‘रामचन्द्र शुक्ल की आलोचना एक ‘‘ताकतवर सत्तामूलक विमर्श’’ भी है और उससे बाहर निकल कर आप व्यर्थ एवं निहायत हाशियाकृत हो सकते हैं। यह डर प्रति-विमर्शकार को उनके बाहर नहीं आने देता। रामचन्द्र शुक्ल का विमर्श ऐसा सशर्त, पूर्वसत्यों की ज़बर्दस्त उपस्थिति के साथ और ‘हिन्दू जाति के अभ्युदय’ के लिए बनाया गया विमर्श है और यही हिन्दी आलोचना का वह सत्ता केन्द्र है जो रामचन्द्र शुक्ल को नीरन्ध्र बनाता है और इतना नीरन्ध्र कि प्रगतिशील कहे जाने वालों भी परमगति प्राप्त होकर रहती है। (पृ.284) क्योंकि ‘‘शुक्ल के ‘श्रद्धा-भक्ति’ का हिन्दी पर ख़ासा असर है।’’(वही)
गौरतलब है, जो खुशफहमी संघ परिवार वालों की राजनैतिक समझ में है, वही वहम पचौरीजी की विखण्डनात्मक विदग्ध बौद्धिकता में भी दीख पड़ता है कि धर्म का और तथैव हिन्दू का जो भी अर्थ उनकी सुहूलियत में फिट बैठता है वही अर्थ सर्वजनीन और सार्वभौमिक है। और दूसरा कि हिन्दू और हिन्दू धर्म से सम्बन्धित सारी कारगुजारी पर इनका ही एकच्छत्र अधिकार है। किन्तु श्रीपचौरी का विकास इन बहुवचनता के दिनों में हो रहा है- यदि वे कोश, परंपरा, सन्दर्भों अभिप्रायों में भटकेंगे तो उनकी लेखन-गति में शिथिलता आ सकती है जो कि उनका धर्म (या पेशा) है। ‘धर्म’ पद के प्रयोग के लिए क्षमा-याचना अपेक्षित है क्योंकि उन्होंने धर्म का अर्थ कुछ इस तरह पा लिया है कि उसके सहारे उन्होंने रामचन्द्र शुक्ल ओर उनकी आलोचना को तार-तार कर डाला। बावजूद इसके, शुक्लजी को ‘इन दिनों के भाजपा के हिन्दुत्व’ से क्लिन-चिट देते हुए भी किसी ‘‘उग्र हिन्दू जैसे’’ तथा इन दिनों के शिवसेना के नज़दीक (पृ.285) माना है। उनकी स्पष्ट और निर्द्वन्द्व राय में, ‘‘यदि आज रामचन्द्र शुक्ल होते तो किसी ‘उग्र हिन्दू जैसे’ होते।’’ जबकि अपने सुधीश पचौरी यदि बीसवीं सदी के दूसरे-तीसरे दशक में भी होते तो भी इसी तरह स्पष्ट और विखण्डनमूलक उत्तरआधुनिक चेतना से सम्पन्न होते-उन शुक्ल दिनों में भी। क्योंकि उन्हें तो समय सरोकार छू तक नहीं गया है-उनके विलक्षण तेवर और अप्रतिम विदग्धता से कुछ ऐसा ही गुमान हो रहा है।
वस्तुतः सुधीश पचौरी के कृत्यों को तनिक ठहर कर देखने से स्पष्ट प्रतीत होता है कि वे एक गहन और भावुक बुद्धिजीवी हैं। जो भी जानते-मानते हैं, उन्हें अंतिम सत्य, नहीं, स्थिति के रूप में जता देते हैं। न कोई झिझक, न घबराहट। अच्छे नम्बर से दसवीं बोर्ड की परीक्षा पास करने वाले की मानसिकता जैसा। किन्तु सभी पाठक-प्रेक्षक इतने प्रौढ़ नहीं होते कि इस बौद्धिक-कौमार्य को भाँप सके। कुछ तो ऐसे भी हैं जो उनके आलेखों को महत्त्वपूर्ण प्रश्न के उत्तर की तरह घोंट जाते हैं और यत्र-तत्र वमन करते रहते हैं। इस बढ़ते हुए संक्रमण की स्थिति में आवश्यक हो जाता है कि सुधीश पचौरी के ‘परिचय-विहीन चेहरे’ की पहचान की जाए कि वे कहाँ खड़े होकर तुर्रा-पे-तुर्रा मारे चले जा रहे हैं। यहाँ दो विकल्प उपस्थित हैं -या तो लिखने की धुन में अनायास कुछ लिख जाते हैं अथवा सायास लिखते हों। उनकी ओजस्विता से उनके अनायास लिखने का विकल्प तो यूँ ही खारिज़ हो जाता है तो फिर उनका ‘आयास’ क्या है? कैसा है? किस प्रयोजन से है? क्या वे भारतीय सेक्यूलरवाद को विशुद्ध कर देना चाहते थे? अथवा धर्म, हिन्दू, आलोचना, साम्प्रदायिकता, सेक्युलरिज़्म वगैरह का अर्थ निश्चित कर उसे बांध देना चाहते हैं?
बहुवचन पद के भूयशः प्रयोग से भान होता है कि उनका किसी निश्चित औजार या विचार के प्रति आग्रह नहीं होना चाहिए। किन्तु संयोग से, रामचन्द्र शुक्ल की आलोचना और उस पर प्रगतिशीलों के रवैये के प्रति इतना अधिक संवेदनशील है कि नाराज हो उठते हैं। इस बात पर बार-बार बल देते हैं कि प्रगतिशील आलोचक और मलयज रामचन्द्र शुक्ल के हिन्दुत्व पर पर्दा करते हैं। इससे बड़ा आग्रह और दंश इस बात का है कि रामचन्द्र शुक्ल को बहुत महत्त्व दिया गया, अब बस भी करिए, ‘‘दलित, स्त्रीत्व, अल्पसंख्यक अनुभवों की विशिष्टता के इस वक्त में शुक्ल दूर तक काम नहीं आते। उनका ब्राह्मण-क्षात्र धर्म आज फासिज़्म की खुराक बन रहा है, और राम के पॉपुलिस्ट नए भक्त एक विनीत राम को उग्र बनाकर लोकजीवन को तहस-नहस करने में लगे हैं। स्वयं शुक्लजी के राम इससे मिलते जुलते हैं।...इसका अर्थ न तो यह है कि शुक्लजी का हिन्दू होना अपराध है न यह कि हमें उनके हिन्दू होने से दिक्कत है। दिक्कत इस तथ्य की सक्रियता और अर्थ निर्माण में इसकी भूमिका को छिपाने से है।’’ (पृ.296.97)
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''पचौरी जी को समय सरोकार तो छू तक नहीं गया है।'' सही कहा आपने... दरअसल पचौरी जी 'त्रिकालदर्शी' हैं। इसीलिए तो कहते है कि अगर शुक्ल जी आज होते तो एक उग्र हिन्दू होते 'शिव सैनिक' की तरह। देखिए कैसे झट से बूझ गए। मेरे विचार से यह एक झटके में 'सुपरस्टार' बन जाने की छटपटाहट है। पचौरी जी इस मन्त्र से अनुप्राणित लगते हैं कि जिसको किसी ने नहीं छेड़ा उसे छेड़ दो। हो सकता है कि इस छेड़ा-छेड़ी के व्यापार में कुछ ऐसा रस निकल जाए कि अमरत्व की प्राप्ति हो जाए।
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