*** रघुवीर सहाय की कविता में भाषा

भाषा

भाषा रघुवीर सहाय के लिए कविकर्म का मूल उपादान है। सारे सामाजिक संबंधों का माध्यम भाषा है। उसी के माध्यम से अनुभव संप्रेषित होता है। भाषा किसी एक व्यक्ति की रचना नहीं, वह समाज भी है और परम्परा भी। रघुवीर सहाय ने लिखा :

“हँसो पर चुटकुलों से बचो
कहीं उनमें अर्थ न हो
जो किसी ने सौ साल पहले दिए हों।“

अर्थात् शब्दों से बचो। शब्द बोलते ही उसमें अर्थ आ जाता है। यह अर्थ की परम्परा समाज से आती है। जहाँ शब्द और अर्थ की यह परम्परा है वहाँ मनुष्य और समाज का संबंध भी है। इसलिए रघुवीर सहाय इस बात पर बल देते हैं कि कविता जो भाषा में होती है वही अकेला भी करती है। उस अकेलेपन में कवि भाषा के माध्यम से इतिहास और परम्परा में एक नया रिश्ता खोजता है, जिससे भाषा कवि की सामाजिकता का माध्यम भी बनती है। काव्य कर्म का वह साधन जो भाषा है वह कवि को अकेलेपन में भी समाज और इतिहास की परम्परा से जोड़ती है। रघुवीर सहाय की एक कविता है:

अपनी एक मूर्ति बनाता हूँ और ढहाता हूँ
और आप कहते हैं कि कविता की है
क्या मुझे दूसरों को तोड़ने की फुरसत है।

जनता से सहाय जी को सहानुभूति है लेकिन उसमें तदाकारता नहीं है। उसकी पीड़ा का वहन तो है लेकिन उसके अविवेक से अलगाव भी है। इस मूर्ति में जनता की पीड़ा आनी चाहिए, लेकिन साथ ही कहीं अविवेक भी न आ जाए, इसलिए कवि मूर्ति ढहाता है। या कहीं अविवेक से बचने के लिए पीड़ा की अभिव्यक्ति भी छूट जाए, इसलिए मूर्ति ढहाता है। यह रघुवीर सहाय की कविता की पेंचीदगी है। रघुवीर सहाय की कविता में गद्यात्मकता के भीतर की यह जटिलता ही उसकी भाववस्तु है। भाव तो कविता की चीज़ है इसलिए गद्यात्मकता होने पर भी कवित्व कम नहीं होता।

कवि निजी पीड़ी और सार्वजनीन पीड़ा के बीच सदा एक विवेक पूर्ण रिश्ता निर्मित करने का संघर्ष करता है। यह कवि का आत्मसंघर्ष है। यहाँ निजी पीड़ा की अनुभूति सामाजिक पीड़ा की कसौटी है। दोनों में पारस्परिकता का संबंध है। यही रघुवीर सहाय की संवेदना की जटिलता है, विशेषता है और प्रासंगिकता भी है।

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