गद्य की भाषा के माध्यम से रघुवीर सहाय ने कविता को विचार संकूल बनाया। विचार संकुल चीज़ में प्रतीक नहीं पैदा होते, उसमें अवधारणाएँ पैदा होती हैं, और प्रतीक भावुक कला में पैदा होते हैं। इन प्रतीकों का अर्थ कवि के मन में होता है। छायावाद में यही सब था। भाव का वस्तु पर आरोपण ही छायावाद में है। प्रतीक एकदम यही कला है। इसी अर्थ में अज्ञेय की कविता भी रोमेंटिक कविता है। रघुवीर सहाय उन्हीं कवियों में हैं जो इन्हीं की परम्परा में होकर, उन्हें तोड़कर आगे बढ़ते हैं।
रघुवीर सहाय के यहाँ राजनीति अविवेक की अवधारणा है। रघुवीर सहाय पत्रकार थे और “दिनमान” के सम्पादक भी। राजनीति उनके जीवन कर्म का विषय भी थी और उनके समाज का सत्य भी। इसलिए उससे वे निरपेक्ष नहीं रहते और उनकी कविता बहुत दूर तक राजनीति से मुठभेड़ करती है। अत: उनकी कविता में राजनीति अवधारणा के रूप में महत्त्वपूर्ण हो गई। जैसे धर्म मध्यकालीन समाज की नयाम संस्था है वैसे ही राजनीति आधुनिक समाज में निर्णायक हो गई। रघुवीर सहाय राजनीति के बारे में निरंतर सोचते विचारते हैं उनकी कविता में शुरू में रजनीति की भूमिका बड़ी प्रत्यक्ष है :
नेक नाम नेहरू ने कहा
अन्याय आम राय से होगा
इससे राजनीति की भूमिका और अन्याय का पक्ष समझ आता है। अत्याचारी और पीड़ित समाज में है। राजनीति एक के पक्ष में है एक के विरोध में। इसीलिए सत्ता का वर्ग चरित्र रघुवीर सहाय की कविताओं में है। अन्याय को आम राय में बदलने का काम राजनित करती है। यही राजनीति का चरित्र है। यह सारी प्रक्रिया समाज की विषमता को, अन्याय को सुदृढ़ करती हैं। यही राजनीति और समाज का आपसी सम्बन्ध है। रघुवीर सहाय ने लिखा :
होशियार हलचल है
बहुत गतिविधियाँ हैं
तीस साल से जो अध्याय थे बने हुए
दोमुहीं भाषा के बूते……….
……………………अध्यक्ष हैं।
ये अध्यक्ष राजनीतिक सत्ता के प्रतीक थे। “आत्महत्या के विरूद्ध” संग्रह में राजनीति के प्रति एक राय थी, यहाँ दूसरी है। जब तक जनता को बर्गलाया जा सकता है तब तक आम राय से अन्याय होता है, जब यह संभव नहीं होता तब निरंकुश दमन होता है।
निर्भीक भी ये दिखते थे
पाखंडी भी थे
आज की राजनीति का यही रूप है। यह मानो भविष्यवाणी भी है। एक तरफ छल है दूसरी तरफ अन्याय। राजेश जोशी ने भी लिखा है:
कैसा यह दिव्य समय है
रघुवीर सहाय की कविता में राजनीति जैसे करवट बदलती है। जैसे जैसे दृश्य बदलता है वैसे वैसे उनकी टिप्पणी का भी रूप बदलता है। यह उनकी संवेदना का विकासमान रूप है। यदि रघुवीर सहाय जनता को पीड़ित करनेवाली राजनीति की आलोचना करते हैं तो पीड़ित जनता से उनकी सहानुभूति होनी चाहिए? लेकिन ऐसा भी नहीं है। जहाँ वास्तविक दुख होता है वहाँ व्यक्ति उससे छुटकारा पाना चाहता है। रघुवीर सहाय नकली दुख की आलोचना भी करते हैं। समाज में पीड़ा भी है और उसका पाखंड भी। रघुवीर सहाय इस पाखंड को कला कहते हैं :
जहाँ बहुत कला होगी
परिवर्तन नहीं होगा।
रघुवीर सहाय बहुत सायास अपनी कविता को कला से बचाते हैं। उनकी कवित में जो गद्य है वह सायास है। रघुवीर सहाय परिवर्तन को आवश्यक समझते हैं।
इन सारे सूत्रों पर विचार करने से कुछ प्रश्न उठते हैं। क्या रघुवीर सहाय परिवर्तन की संभावना स्वीकर करते हैं? परिवर्तन के लिए क्या चीज़ ज़रूरी है? परिवर्तन के लिए सबसे पहली शर्त है कि जो समाज में पीड़ित हैं वे संघटित हों, पीड़ा क्यों है इसे समझे। इसलिए पीड़ा के स्रोत की जानकारी हो और उसे दूर करने के कार्यक्रम जरूरी हैं। इन्हीं शर्तों के भीतर से परिवर्तन की वास्तविक प्रक्रिया जन्म ले सकती है।
एक जगह रघुवीर सहाय ने अपनी कविता में क्रांतिकारी नेताओं भी आलोचना की है। क्रांतिकारी लेखक के लिए लिखा:
“क्रांतिकारी लेखक को आशा है
कि औरों पर उसका अविश्वास
उसको तो उसके जीवन में
एक बड़ा आदमी बना देगा।“
दूसरी कविता में लिखा क्रांतिकारी नेता को लेकर:
“क्रांतिकारी नेता की
ऊँचे वर्गों में लोक प्रियता कम हो गयी
कारण कई थे
एक ऊँचे वर्ग कई वर्षों से और सुरक्षित हो गए थे
दूसरे क्रांतिकारी भी उसी वर्ग में पहुँच गया था”
रघुवीर सहाय इस तरह से क्रांतिकारी वैकल्पिक राजनीति को भी उतना ही अवसरवादी मानते हैं। उनके अनुसार राजनीति क्रांतिकारी नहीं हो सकती। उसके दो ही रूप हैं- सत्ता और प्रतिपक्ष। इस तरह राजनीति का अर्थ ही है – अवसरवाद, अविवेक, स्वार्थ राजनीति के बारे में रघुवीर सहाय का यह आम रवैया है। इसी अर्थ में रघुवीर सहाय राजनीतिक प्रक्रिया की समीक्षा करनेवाले राजनीतिक कवि हैं, लेकिन राजनीति मात्र को अस्वीकार करते हैं। यही रघुवीर सहाय की राजनीतिक चेतना का सार तत्व है।
राजनीति जो सत्ता की है वह या तो आम राय से या बर्बरता से अन्याय कायम रखने की सत्ता है। दूसरी ओर प्रतिपक्ष के पास विरोध की भाषा है, उग्रमयी ओज की भाषा है, लेकिन इनका ऐजेंडा जनता की जरूरतें नहीं बल्कि सत्ता तय करती हैं:
बहस करेंगे आज
लेकिन कार्यसूची के अनुसार
सारी राजनीति व्यर्थ है। इसलिए रघुवीर सहाय राजनीतिक विकल्प में कविता की अवधारणा प्रस्तुत करते हैं:
कविता अकेले ही काम करने का
तकाज़ा करती है।
राजनीति संघटित कार्यकलाप की विधा है और कविता अकेले काम करने का तकाजा करती है। संघटित राजनीति के विकल्प में अकेले काम करने की कविता विवेक है। जनता संघटित होकर लड़ती नहीं और क्रांतिकारी राजनीति जनता को यदि संघटित करती है तो उसका इस्तेमाल करती है। ऐसे में जनता की पीड़ा का मूल्य क्या है? वह कहाँ व्यक्त हो? उसकी अभिव्यक्ति का माध्यम क्या है?
रघुवीर सहाय कविता में जनता की पीड़ा को अभिव्यक्त करने का उत्तरदायित्व संभालते हैं। राजेश जोशी ने रघुवीर सहाय पर एक लेख में कहा था कि रघुवीर सहाय ने नारी बिंब की चर्चा की थी। उनके यहाँ जिस नारी का चित्रण है वह पीड़ित नारी है, जुझारू नहीं है। इसी बात को दूसरी तरह से कहें तो रघुवीर सहाय के यहाँ पीड़ित व्यक्ति तो है, लेकिन जुझारू व्यक्ति नहीं है। “रामदास” कविता में हत्या, क्रूरता, हिंसा निर्द्वन्द्वता है जो समाज पर शासन कर रहे हैं, लेकिन इनका प्रतिशोध नहीं है और अब प्रतिशोध का वह संकल्प भी नहीं है। वहाँ एक निश्चित, पूर्वनिर्धारित अनिवार्य हिंसा है। रामदास जानता है यह है लेकिन फिर भी उसका बलि चढ़ता है। सहाय जी न लिखा :
फटा सुथन्ना पहने
गुन हरचरना गाता है
जनता केवल पीड़ित ही पीड़ित है। रघुवीर सहाय यथार्थ के बहुत से विरोधी पक्षों में से किसी एक से उत्तेजित होते हैं, बाकी पक्ष उनकी संवेदना को नहीं छूते। इसीलिए उनकी कविता में एक पक्ष की बढ़ी चढ़ी तस्वीरें हैं और दूसरी तरफ आत्म समीक्षा का अभाव है। अथवा कहिए आत्मालोचना नहीं है। जनता के बारे में रघुवीर सहाय का विचार है कि वह भ्रमित, पीड़ित और जाहिल है। जहाँ अत्याचारी के प्रति घृणा है वहीं पीड़ित के प्रति यही भाव है। इस जनता से रघुवीर सहाय स्वयं को नहीं जोड़ पाते।
एक ऐसी काव्य भंगिमा जहाँ राजनीति से विमुखता है और जनता के प्रति अभिमुखता तो है लेकिन एक दूरी है जो सायास है, सोची समझी है। इससे उनकी संवेदना और कवि व्यक्तित्व का स्वरूप निर्मित होता है।
रघुवीर सहाय ने एक जगह लिखा:
भीड़ में मैल खोरी गंध मिली
भीड़ में आदिम मूर्खता की गंध मिली
भीड़ में नहीं मिली मुझे मेरी गंध।
रघुवीर सहाय के यहाँ जनता, जहालत और अविवेक का रूप है तथा सत्ता अन्याय और अविवेक का रूप है। अविवेक दोनो तरफ है, अंतर केवल अन्याय और जहालत का है। जनता इस कदर जाहिल है कि :
लोग भूल जाते हैं
अत्याचारी का चेहरा मुस्काने पर
अत: जनता साक्षात् अविवेक है। “अंधायुग” में धर्मवीर भारती ने लिखा:
“दोनों ही पक्षों में जीता
अंधापन”
जनता के प्रति नयी कविता के कवियों का रवैया अलग है। ये जनता ऐसी निरीह अविवेकमान है, उससे स्वयं को कैसे जोड़े। इसलिए उससे अपनी पहचान नहीं मिलती। जहाँ राजनीति से वे विमुख हैं और जनता में अपनी भावनालय नहीं कर पाते वहाँ कहते हैं:
लोग सब एक तरफ
और मैं एक तरफ
सबको एक तरफ करके वे अपने मैं को चुनते हैं। यह निजता ही उनका अपना निर्णय है, अपना विवेक अपनी पहचान है। वह व्यक्तिवाद पूँजीवादी समाज को सही ठहराने वाला व्यक्तिवाद है।
1 comments
एक अच्छी पोस्ट रघुवीर जी पर। पढकर अच्छा लगा।
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