काव्य का विकास
रघुवीर सहाय के काव्य विकास की कई मंजिलें हैं. सर्वप्रथम रघुवीर सहाय नयी कविता के कवि हैं. सहाय जी नयी कविता आंदोलन के ऐसे कवि हैं जिससे नयी कविता का रूप परिभाषित होता है. सन् 1954 में इलाहाबाद से “नयी कविता” नाम से पत्रिका निकली. यूँ तो सन् 47 से बाद से ही नई कविता की प्रवृत्तियाँ उभरने लगी थीं. प्रयोगवाद में जो नयी कविता के आधारबिंदू हैं उन्हीं का विकास आगे नई कविता में हुआ. फिर भी यह प्रगतिशील और प्रयोगवाद से अलग है. सन् 47 भारत के इतिहास की एक राजनीतिक विभाजक रेखा है.
भारत का विभाजन और स्वाधीनता दो बड़ी घटनाएँ इस समय हुई. इसलिए स्वाधीनता का एक निश्चित राजनीतिक, सामाजिक संदर्भ है. स्वाधीनता संघर्ष के समय जिन प्रवृत्तियों का जन्म हुआ या विकास हुआ, स्वाधीनता आते ही वे प्रवृत्तियाँ मिट नहीं गई. उनके मिटने में समय लगा. संघर्ष के समय व्यक्ति जोशा की बात करता है. सन् 47 के पहले अपने अधिकार की माँग और उसके लिए संघर्ष यह चेतना विद्यमान थी. रघुवीर सहाय के काव्य के आरंभ में ये भाव मिलते हैं. रघुवीर सहाय के आरंभिक दिनों की एक कविता की पंक्तियाँ हैं –
“हम तो सारा का सारा लेंगे जीवन
कम से कम वाली बात न हमसे कहिए.”
यही स्वाधीनता आंदोलन के भीतर मज़दूर वर्ग की माँग थी. सारा का सारा जीवन लेंगे संघर्षशील समाज की माँग है जो रघुवीर सहाय की कविता में थी.
स्वाधीनता के दौर में एक गीत लिखा गया था जिसका भाव रघुवीर सहाय की कविता से ही मिलता जुलता है –
“हम मेहनतकश इस दुनिया से अब अपना हिस्सा माँगेंगे.
एक बाग नहीं, एक खेत नहीं हम सारी दुनिया माँगेंगे.”
एक ओर रघुवीर सहाय “सारा का सारा” लेने की बात करते हैं दूसरी ओर कहते हैं –
“अधिक नहीं चाहिए
अधिक चाहने का मतलब लूटना होगा.”
यह उनके काव्य विकास की दूसरी मंजिल है. रघुवीर सहाय की काव्य यात्रा का विकास बड़े ऊबड़ खाबड़ तरीके से होता है. यहाँ गाँधीवादी अपरिग्रह भाव पैदा होता है. जिस संघर्ष पर उनका ऐसा विश्वास था कि वे सारा का सारा लेने के लिए जूझ पड़ते हैं. आगे चलकर उसी संघर्ष से उनका विश्वास टूट जाता है :-
“सामाजिक चेतना
इंतज़ार इंतज़ार इंतज़ार”
रघुवीर सहाय ने एक अन्य स्थान पर लिखा :-
“मुझे विश्वास नहीं है
कि मेरे जीते जी
यह देश नहीं
कोई भी देश क्यों
अपने लोगों को
आदमी बना लेगा.”
रघुवीर सहाय का आदमी बना लेगा पर विश्वास नहीं. एक ओर सारा का सारा जीवन लेने का विश्वास, दूसरी ओर यह भाव. अर्थात् जन संघर्ष, जन संघटन सामाजिक भूमिका प्रति उनके मन में संदेह है, अविश्वास है. इसी से उनकी संवेदना का रूप बनता है, कविता का स्वभाव बनता है.
1 comments
बहुत आभार रघुवीर सहाय ’फिराक’ साहब पर इस आलेख के लिए.
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