गद्यकाव्य साहित्य की आधुनिक विधा है. गद्य में इस प्रकार भावों को अभिव्यक्त करना कि वह काव्य के निकट पहुँच जाये गद्यकाव्य अथवा गद्य गीत कहलाता है. संस्कृत साहित्य में कथा और आख्यायिका के लिए ही प्रयुक्त होता था. दण्डी ने तीन प्रकार के काव्य बताये थे:
1. गद्यकाव्य2. पद्यकाव्य3. मिश्रित काव्य
गद्यकाव्य का प्रयोग आख्यायिका आदि के लिए किया. अंग्रेजी साहित्य में भी 'पोयटिक प्रोज' के नाम से यह नाम मिलता है, किन्तु वहाँ भी इस विधा का अपेक्षित विकास नहीं हुआ. आधुनिक काल में हिन्दी में गद्यकाव्य प्रचुर मात्रा में लिखा गया, इस लिए इसे हिन्दी की विधा ही कहा जा सकता है.
हिन्दी के साहित्यकारों ने केवल गद्यकाव्य की रचना ही नहीं की अपितु उसके स्वरूप को स्पष्ट करते हुए उसकी व्याख्या भी की. रामकृष्ण दास ने श्रीमती विद्या भार्गव द्वारा रचित 'श्रद्धांजलि' की भूमिका में गद्यकाव्य को स्पष्ट करते हुए लिखा कि:
हिन्दी में कविता और काव्य शब्द पद्यमय रचनाओं के लिए ही रूढ़ हो गए हैं. यद्यपि वस्तुत: कोई भी रचना जो रमणीय हो, रसात्मक हो, काव्य या कविता है. इसीलिए गद्य में रचना के लिए हमें गद्यगीत या गद्यकाव्य का प्रयोग करना पड़ता है.
रामकुमार वर्मा ने 'शबनम' की भूमिका में गद्यकाव्य पर विचार किया है. उन्होंने गद्यगीत का प्रयोग करते हुए कहा कि:
गद्यगीत साहित्य की भावानात्मक अभिव्यक्ति है. इसमें कल्पना और अनुभूति काव्य उपकरणों से स्वतंत्र होकर मानव-जीवन के रहस्यों को स्पष्ट करने के लिए उपयुक्त और कोमल वाक्यों की धारा में प्रवाहित होती है.
जगन्नाथ प्रसाद शर्मा ने भी गद्यकाव्य पर विचार किया है. 'नागरी प्रचारिणी हीरक जयंती ग्रंथ' में संकलित निबंध में उन्होंने गद्यकाव्य की विस्तृत व्याख्या की. वे उसके स्वरूप पर विचार करते हुए लिखते हैं कि:
जो गद्य कविता की तरह रमणीय, सरस, अनुभूतिमूलक और ध्वनि प्रधान हो, साथ ही साथ उसकी अभिव्यंजना प्रणाली अलंकृत एवं चमत्कारी हो, उसे गद्यकाव्य कहना चाहिए. इसमें भी इष्टकथन के लिए कविता की भाँति न्यूनातिन्यून अथवा केवल आवश्यक पदावली का प्रयोग किया जाना चाहिए. अग्निपुराण के 'संक्षेपात वाक्यमिष्टार्थ व्यवच्छिन्ना पदावली' के अनुसार संक्षिप्त काव्य विधान का विचार इसमें भी रहना चाहिए. कविता के समस्त गुण-धर्मों के अनुरूप संगठित होने के कारण गद्यकाव्य में भी प्रतीक भावना अथवा आध्यात्मिक संकेत के लिए आग्रह दिखाई पड़ता है. इसमें भी भावापन्नता का वही रूप मिलता है जिसका आधुनिक प्रगीतात्मक रचनाओं में आधिक्य रहता है. यदि मूल प्रकृति का विचार किया जाए तो उसकी संगति शुद्ध प्रगीतात्मक कविता के साथ अच्छी तरह बैठती है क्योंकि इसके साध्य और साधन उसी कोटि के होते हैं. कविता की भाँति इसमें भी कारण रूप से प्रतिभा ही काम करती है.
महादेवी वर्मा ने भी गद्यकाव्य पर विचार किया. उन्होंने श्रीकेदार द्वारा रचित 'अधखिले फूल' की भूमिका में कहा कि:
पद्य का भाव उसके संगीत की ओट में छिप जाए, परन्तु गद्य के पास उसे छिपाने के साधन कम हैं. रजनीगंधा की क्षुद्र, छिपी हुई कलियों के समान एकाएक खिलकर जब हमारे नित्य परिचय के कारण शब्द हृदय को भाव-सौरभ से सराबोर कर देते हैं तब हम चौंक उठते हैं. इसी में गद्यकाव्य का सौन्दर्य निहित है. इसके अतिरिक्त गद्य की भाषा बन्धनहीनता में बद्ध चित्रमय परिचित और स्वाभाविक होने पर भी हृदय को छूने में असमर्थ हो सकती है. कारण हम कवित्वमय गद्य को अपने उस प्रिय मित्र के समान पढ़ना चाहते हैं, जिसकी भाषा बोलने के ढंग विशेष और विचारों से हम पहले से ही परिचित होंगे. उसका अध्ययन हमें इष्ट नहीं होता.
आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने भी गद्यकाव्य के स्वरूप पर विचार किया है. उन्होंने 'हिन्दी साहित्य' में इस विधा को स्पष्ट करते हुए कहा कि:
इस प्रकार के गद्य में भावावेग के कारण एक प्रकार की लययुक्त झंकार होती है जो सहृदय पाठक के चित्त को भाव ग्रहण के लिए अनुकूल बनाती है.
गोविंद त्रिगुणायत कहते हैं कि:
मैं हिन्दी गद्यकाव्य को किसी व्यक्त या रहस्यमय आधार से अभिव्यक्त होने वाली कवि के भाव जगत की कल्पना-कलित निर्बाध गद्यात्मक अभिव्यक्ति मानता हूँ.
अंतत: कहा जा सकता है कि गद्यकाव्य साहित्य की वह आधुनिक विधा है जिसमें साहित्यकार के हृदय की तीव्र अनुभूति व विचार-वीथि कल्पना एवं स्वप्न से झंकृत होकर ध्वन्यात्मक अभिव्यंजना में छंदरहित होकर अभिव्यक्ति पाती है.
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