*** कवि केदारनाथ अग्रवाल की राजनीतिक दृष्टि

केदारनाथ अग्रवाल की प्रगतिशीलता का मूर्त आधार है भारत की श्रमजीवी जनता. मार्क्सवादी दर्शन ने जनता के प्रति उनकी ममता को प्रगाढ़ किया. जनता के संघर्ष में आस्था और उसके भविष्य में विश्वास उत्पन्न किया. इसीलिए वे अंग्रेजी या काँग्रेसी शासकों की आलोचना करते हुए जनता पर होने वाले पाशविक दमन और जनता के कठिन संघर्षों को सामने रखते हैं. इस कारण उनकी राजनीतिक कविताएँ जहाँ प्रचार के उद्देश्यों से लिखी गयी है वहाँ भी सिद्धांत अमूर्त या कथन मात्र होकर नहीं रह जाती. लेकिन सबसे बड़ा परिणाम यह हुआ कि स्वाधीनता प्राप्ति के बाद जहाँ बहुत से प्रगतिशील लेखक दमन से डरकर या रामराज के लुभावने सपनों में बहकर काँग्रेसी 'नवनिर्माण' में हाथ बंटाने चले गए, वहाँ केदार उन लेखकों में थे जो इन सारी परिस्थितियों के प्रति जनता की ओर से, जनता को संबोधित करते हुए अपनी आवाज़ बुलंद कर रहे थे. चूँकि केदार की दृढ़ आस्था मार्क्सवाद में और श्रमजीवी जनता में है, इसलिए वे घोषणा करते हैं:
भजन का नहीं मैं भुजा का प्रतापी

उनकी यह आस्था तथाकथित नवनिर्माण वाले प्रभाव को टिकाऊ नहीं रहने देती. वे जनता पर आने वाले विपत्तियों से क्षुब्ध होकर व्यंग्य करते हैं:
राजधर्म है बड़े काम में छोटे काम भुलाना
बड़े लाभ की खातिर छोटी जनता को ठुकराना
ये पंक्तियाँ सन् '49 की है. सन् '50 में वे पीड़ा के साथ दमन का चित्र खींचते हैं:
बूचड़ों के न्याय घर में
लोकशाही के करोड़ों राम सीता
मूक पशुओं की तरह बलिदान होते देखता हूँ
वीर तेलंगावनों पर मृत्यु के चाबुक चटकते देखता हूँ
क्रांति की कल्लोलिनी पर घात होते देखता हूँ.
व्यंग्य या क्षोभ से लिखी अपनी कविताओं के जरिए केदार जनता की संघर्ष भावना जगाने का दायित्व संभालते हैं. इस कार्य में वे कवि रूप में अपनी कुलीनता तजकर किसानों और मजदूरों की पांत में जा बैठते हैं. जनता से उनकी यह निकटता उनके विवेक की ऐसी कसौटी है जो सामाजिक जीवन के बारे में उन्हें गलत दिशा में जाने नहीं देती. नेहरूवाद को मार्क्सवाद का नाम देकर प्रचारित करने वाले कम्युनिस्टों की पुनर्निर्माण वाली धारणा से केदार का विशेष संबंध कभी नहीं रहा. सन् '46 से '53 तक उसके कुछ बाद तक केदार काँग्रेसी राज के प्रति आक्रामक रूख अपनाये रखा. लेकिन सन् '55 तक आते आते जब रोटी रोजी जनजीवन के लिए कठिन हो गयी तब इन नेहरूपंथी मार्क्सवादियों के श्रेय से भारत की वामपंथी शक्तियों में भी बिखराव की शुरूआत हो गयी थी. न राजनीतिक जीवन में प्रतिरोध करने वाला कोई सबल आंदोलन रहा, न सांस्कृतिक स्तर पर प्रगतिशील लेखक संघ और भारतीय जन नाट्य मंच की सजीव गतिविधियाँ रही. अकेलेपन की स्थिति के अनुभव के परिणामस्वरूप केदार जैसे जुझारू कवि के क्रांतिकारी जोश में कमी आयी. स्वभावत: इसके बाद राजनीतिक कविताओं का लिखना क्रमश: घटता गया. कम स कम उनमें वह उत्साह न व्यक्त होता था जो केदार की रचना की विशेषता थी. सन् '56 उन्होंने 'गाओ साथी' गीत लिखकर हिम्मत बाँधने की कोशिश की, लेकिन आंदोलन का बिखराव तेज़ हो चुका था, फलत: उसे अपने स्वर की प्रतिध्वनि में शासक वर्ग से केदार की घृणा और प्रगतिशील आंदोलन के बिखराव से उत्पन्न पराजय भावना की बड़ी मार्मिक अभिव्यक्ति हुई है:
दोष तुम्हारा नहीं, हमारा है
जो हमने तुम्हें इंद्रासन दिया, देश का शासन दिया
तुम्हारे यश के प्रार्थी हुए हम
तुम्हारी कृपा के शरणार्थी हुए हम
और असमर्थ हैं हम कि उतार दें तुम्हें
इंद्रासन से, देश के शासन से
अब जब तुम खुद व्यर्थ हो चुके हो
अपना यश खो चुके हो.
केदार का यह राजनीतिक विवेक जटिल से जटिल परिस्थितियों में भी अक्षुण्ण बना रहा है. 1963 में उन्होंने उद्बोधन या संबोधन की ओजपूर्ण शैली में नहीं, एकालाप स्वर में कहा:
एक ओर बनता ही चला जा रहा है
निर्माण का हिन्दुस्तान
दूसरी ओर गिरता ही चला जा रहा है
ईमान का हिन्दुस्तान.
इस पूरे दौर में वे अपनी नियति से अटूट रूप में बंधा हुआ अनुभव करते रहे हैं. नागार्जुन के बाँदा आने पर केदार ने लिखा कि वे अपने मित्रों की बाट उसी तरह जोहते हैं:
जैसे भारत बाट जोहता है सूरज की
किन्तु न कोई आया.
भारत सूर्य की बाट जोहता रहा लेकिन सूर्य नहीं आया. अंधेरा बढ़ता गया. सन् '46 से '50 के दौर के बाद भारतीय जनता में सबसे गहरा राजनीतिक संकट पैदा हुआ आपात स्थिति के आसपास. सन् '74 में केदार ने अनुभव किया कि:
जलती राजनीति अब सहज नहीं चलती
घर की आग में अब दाल नहीं गलती.
जून '75 में एमरजेंसी की घोषणा राजनीति की दाल गलाने का एक प्रयत्न था. प्रगतिशील लेखक संघ ने इस घोषणा का स्वागत किया. किंतु केदार ने सितम्बर में ही 'मुँह बंद आदमी', 'पंक्तिबद्ध शब्दों' का अनुशासन लोगों का 'मात खोये मोहरों सा' दिखना और लोकतंत्र का जगह जगह घुन जाना आदि दृश्यों के माध्यम से अपना असंतोष व्यक्त कर दिया था.

प्रकृति के उच्छल स्फूर्ति भरे चित्रण के लिए विख्यात केदार ने आपातस्थिति में पहली दफा अवसादपूर्ण मनोभावों में प्रकृति को अंकित किया:
सूर्यास्त में समा गयी
सूर्योदय की सड़क--.
कहीं-कहीं प्रतीकों सहारा न लेकर सीधे-सीधे आपातकालीन संकट भोगती ज़िन्दगी की मर्मवेदना और संघर्षहीनता उभर आती है. इस संकट के कुछ कम होने पर, एमरजेंसी ढीली पड़ने पर कवि को भी कुछ उत्साह होता है:
फिर से
मुक्त हुआ
जनमानस
फिर से लाल अनार
हृदय में फूला
फिर से
समय सिंधु लहराया
उमड़ा
अब जब
ढील मिली जनता को
दुर्दम अंकुश हटने से.
जनता राज की प्रतिक्रियावादी अराजकता और नेताओं का स्वार्थलोलुप व्यवहार केदार के इस दौर की कविताओं का व्यापक विषय रहा है. इस परिस्थिति को व्यक्त करनेवाली प्रतिनिधि पंक्ति है:
व्याप्त मौन
अब भंग हुआ भीतर बाहर
चुटकी बजाते
वाचाल आक्रोस से.
केदार की इसी समझ का आधार है जनता का हित जो उन्हें प्रगतिशील भूमि पर बनाये रखता है. इसी दृष्टिकोण से वे इंदिरा गांधी के दोबारा पदरूढ़ होने पर भी अपनी आलोचना को मंद नहीं पड़ने देते. काँग्रेस के सत्ता में पुनरागमन के बाद, इंदिरा गांधी के जन्मदिन पर देवली में नरसंहार हुआ. इस घटना पर केदार इतने विचलित हुए कि उन्होंने दो कविताएँ एक ही दिन लिखीं:
1. सुराज! सुराज!
मौत के घाट उतारे गए आदमियों का
भोड़ा अट्टहास!
2. आकस्मिक भले हो
प्रधानमंत्री के जन्मदिन पर हुई
चौबीस हरिजनों की हत्या…
बड़े संक्रामक हैं
सांपत्तिक संबंधों के पुरातन संस्कार!
टूटते टूटते भी नहीं टूट पा रही
शताब्दियों की जकड़बंदी.
31 अक्टूबर '84 को साम्राज्यवादी षड्यंत्र के तहत इंदिरा गांधी की हत्या से पहले तक केदार ने उन पर व्यंग्य बाण छोड़े, लेकिन 1 नवम्बर को इन्होंने 'निष्प्राण हो गया शरीर' कविता में इंदिरा गांधी के 'बलिदान रक्त' का उल्लेख किया. लेकिन भावना की आँधी में अपना विवेक धूल धूसरित नहीं होने दिया. काँग्रेस दुबारा भारी बहुमत से गद्दी पर आयी, नयी नीतियाँ उजागर होने लगीं. तब केदार का पहले वाला व्यंग्य जैसे फिर से फूट पड़ा:
चुप रहें सरकार सोते हैं सभी
आँखों में सपने भरे हैं
ज़िन्दगी से दूर हैं
बस इसी के वास्ते मशहूर हैं
चुप रहें, बेकार रोते हैं सभी!
जनता जब क्रांतिकारी आंदोलन की राह पर न हो तब व्यंग्य और विडम्बना के माध्यम से कही गयी बात कविता में यथार्थवाद के अधिक निकट होता है. केदार के व्यंग्य का आधार नागार्जुन के समान जनवादी क्रांति का स्वप्न है, जिसका आधार '45-'46 के जनउभार का प्रत्यक्ष अनुभव है. किन्तु '46 में काँग्रेस का सिद्धांतहीन समझौतापरस्त रवैया और '47 के बाद कम्युनिस्ट पार्टी में विघटन की सीमा तक पहुँचने वाले सुधारवाद का विकास, इन दो कारणों से भारत की जनवादी क्रांति निरंतर दूर खिसकती गयी है.

काँग्रेस ने अंग्रेजों और सम्प्रदायवादियों से समझौता करके क्रांतिकारी उभार को देश के विघटन और साम्प्रदायिक हिंसा की आग में झोंक दिया. नेहरूवादी कम्युनिस्टों ने 'नवनिर्माण' में योगदान करके अपनी स्वतंत्र छवि और भूमिका नष्ट कर दी. फलत: क्रांतिकारी नेतृत्व और जनता का संबंध टूटता गया, जिससे आगे चलकर खुद कम्युनिस्ट आंदोलन में बिखराव आया. '46 में दोनों के निकट आने पर निराला के क्रांतिकारी बादल और केदार के भारतीय जन कविता में एक रोष और एक बोध के साथ गरज रहे थे. लेकिन '55 में आते-आते यह एकता टूट चुकी थी और कवि आह्वान करता है कि :
आज जनता के सिपाही,
दौड़ जनता है विकलतर.
क्रांतिकारी नेतृत्व जनता से अलग थलग हो गया और जनता अंधकार में निश्चेतन है. इस स्थिति का चित्रण केदार ने यूं किया है:
सूर्य नहीं डूबता साहब!
घूमती दुनिया
स्वयं सूर्य से मुँह फेर लेती है
उजाला उतार कर
अंधेरा लपेट लेती है
तभी तो आदमी
यथास्थिति में पड़े-पड़े
अंधे हुए हैं
सुबह से पहले
अंधेर नगरी में
खोये हुए हैं
सूर्य नहीं आदमी डूबता है साहब!
यह कविता '84 की है. इसमें केदार की वही आलोचनात्मक दृष्टि सक्रिय है जिसके दर्शन 'चित्रकूट के बौड़म यात्री' या शेष आयु का धुँआ उड़ाते चंदू और समाज पर गंदा धुँआ छोड़ते शहर के छोकड़ों में होते हैं.

केदार की राजनीतिक दृष्टि की एक विशेषता यह है कि उसे कभी किसी प्रकार की भावुकता से रंजित न पायेंगे. नागार्जुन के समान स्वाधीनता आंदोलन से अबतक राजनीतिक कविताओं में इतिहास देखा जा सकता है. साथ ही केदार की इन कविताओं में सभी प्रमुख घटनाओं पर एक सजग कवि की प्रतिक्रिया पायी जा सकती है. नागार्जुन और केदार की सजगता में एक अंतर यह है कि नागार्जुन अपने राजनीतिक विचारों को स्थिर नहीं रख पाते, लेकिन केदार का दृष्टिकोण आद्योपांत सुसंगत है. वे भावुकता या उत्साह में आकर दक्षिण-वाम को एक नहीं कर देते. नग्न फासिज्म के समर्थन का विचार मन में नहीं लाते. अपने इसी विवेक के बल पर केदार जहाँ जनता के गलत रूझानों की आलोचना भी करते हैं वहीं नागार्जुन जन आंदोलन की धारा में बहते हुए कभी-कभी अपना दृष्टिकोण त्याग देते हैं. फिर भी दोनों कवियों की महत्ता इस बात में है कि उन्हें जनता से अगाध प्रेम है. वे जनवादी क्रांति की गहन आकांक्षा के कवि हैं. 'हरिजन गाथा' के संत गरीबदास की भविष्यवाणी में नागार्जुन का सपना बोलता है और देवली के हत्याकांड पर केदार कहते हैं:
परेशान घूमती फिरती है मेरी कविता
क्रांति के प्रवाह का विश्वास लिए.
क्रांति के प्रवाह की आवश्यकता नरसंहार करने वालों को नहीं, बल्कि उनसे संघर्ष करने वाले किसानों और मजदूरों को है.

--------------------प्रो. अजय तिवारी से साभार

3 comments

जितेन्द़ भगत September 23, 2008 at 9:56 AM

nice written

Udan Tashtari September 23, 2008 at 7:25 PM

अच्छा आलेख!!आभार!!!

anna dhawan

really nice