उपन्यास क्या है
उपन्यास और कहानी का कला-रूप आधुनिक युग की उपज है. विद्वानों का ऐसा विचार है कि उपन्यास और कहानी संस्कृत की कथा-आख्यायिकाओं की सीधी संतान नहीं हैं. कविता और नाटक के संदर्भ में यही बात नहीं कही जाती. अर्थात नाटक और कविता की तरह उपन्यास और कहानी की परम्परा पुरानी नहीं है.
उपन्यास का संबंध यथार्थवाद से बताया जाता है. पुरानी दुनिया आदर्शवादी थी. आधुनिक दुनिया यथार्थवादी है. यथार्थवादी होने का पहला लक्षण है जीवन के सारे मूल्यों का लौकिक होना. उसमें जीवन की व्याख्या मुख्यत: दो आधारों पर होती है. ये आधार हैं:
1. भौगोलिक, सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक परिस्थितियाँ
2. ऐतिहासिक परम्परा
मनुष्य की आंतरिक विशेषता इन दोनों आधारों से निर्मित होती है. ये दोनों बातें गतिशील, परिवर्तनशील और विकासमान हैं. इसीलिए मनुष्य का आंतरिक गुण भी गतिशील, परिवर्तनशील और विकासमान है. यथार्थवाद मनुष्य की व्याख्या में आत्मा की सनातन सत्ता को नहीं मानता. इस प्रकार आधुनिक युग में मनुष्य की धारणा ही बदल जाती है. उपन्यास का कला-रूप मनुष्य की इस बदली हुई धारणा से पैदा हुआ है.
यही कारण है कि उपन्यास में उन परिस्थितियों का ब्यौरा बहुत अधिक और निर्णायक होता है, जिनके भीतर आदमी रहता है. इसी बात को उपन्यास शब्द की व्युत्पत्ति से भी सिद्ध किया जा सकता है.
उप (अर्थात समीप)+न्यास(अर्थात थाती). यानी वह चीज जो मनुष्य के बहुत समीप है. आदमी रोजमर्रा की जिन स्थितियों में रहता है वे उसके सबसे निकट होती है. इन्हीं परिस्थितियों से प्रभावित होते हुए, लड़ते-उलझते और उन्हें बदलते हुए आदमी अपने जीवन चरित्र और स्वभाव को संगठित करता है. यही मनुष्य का वास्तविक जीवन है. यह वास्तविक जीवन, भाव और आदर्श के मुकाबले परिस्थितियों को बदलने वाले संघर्ष पर निर्भर हैं.
आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने उपन्यास की मूलभूत विशेषता को इस प्रकार बताया है:
जन्म से ही उपन्यास यथार्थ जीवन की ओर उन्मुख रहा है. पुरानी कथा-आख्यायिका से वह इसी बात में भिन्न है. वे (यानी, पुरानी कथा-आख्यायिकाएँ) जीवन के खटकने वाले यथार्थ के संघर्षों के बचकर स्वप्नलोक की मादक कल्पनाओं से मानव को उलझाने, बहकाने और फुसलाने का प्रयत्न करती थीं, जबकि उपन्यास जीवन की यथार्थ से रस खींचकर चित्त-विनोदन के साथ ही साथ मनुष्य की समस्याओं के सम्मुखीन होने का आह्वान लेकर साहित्य क्षेत्र में आया था. उसके पैर ठोस धरती पर जमे हैं और यथार्थ जीवन की कठिनाइयों और संघर्षों से छनकर आने वाला “अव्याज मनोहर” मानवीय रस ही उसका प्रधान आकर्षण है.
यह यथार्थ जीवन, अनेक परिस्थितियों का संघात होने के कारण जटिल होता है. आदमी इन परिस्थितियों से संघर्ष करते हुए अपने चरित्र को संगठित करता है. इस संघर्ष के दौरान वह आदमी के भीतर समानता और भिन्नता को नए ढंग से अनुभव करता है. इस समानता और भिन्नता की विशेषता यह है कि उसका स्वरूप सनातन और निश्चित नहीं है. यही कारण है कि मनुष्य के चरित्र की विशेषताओं का रूप भी स्थिर नहीं है. उपन्यासकार जीवन की गतिशील परिस्थितियों के भीतर से बार-बार मनुष्य के चरित्र को खोजता और संगठित करता है.
प्रेमचंद ने इन्हीं बातों को ध्यान में रखते हुए उपन्यास की परिभाषा की है:
मैं उपन्यास को मानव-चरित्र का चित्र मात्र समझता हूँ. मानव चरित्र पर प्रकाश डालना और उसके रहस्यों को खोलना ही उपन्यास का मूल तत्त्व है. ... सब आदमियों के चरित्रों में भी बहुत कुछ समानता होते हुए भी कुछ विभिन्नताएँ होती हैं. यही चरित्र संबंधी समानता और विभिन्नता-अभिन्नत्व में भिन्नत्व और विभिन्नत्व में अभिन्नत्व-दिखाना उपन्यास का मूल कर्त्तव्य है.
उपन्यास के तत्त्व
उपन्यास में जो कहानी कही जाती है उसके कई सहायक तत्त्व होते हैं. उन तत्वों को शास्त्रीय भाषा में निम्नलिखित नाम दिए गए हैं:
1. पात्र
इन सभी तत्वों के विषय में एक बात अत्यंत महत्त्वपूर्ण है, जिसे हमेशा ध्यान में रखना चाहिए. वह है जीवन और समाज की जटिलताओं से जूझने का प्रमाण. उपर्युक्त सभी तत्वों का कोई निर्धारित साँचा नहीं है. हर उपन्यासकार अपनी दृष्टि से जीवन की समस्याओं को चीर कर उनके भीतर से इन तत्वों का संगठन करता है. ये तत्व यांत्रिक फार्मूले नहीं हैं. इनकी भूमिका नियामक नहीं निर्देशक है.
यहाँ यह जानकारी भी जरूरी है कि कहानी के भी वे ही तत्व हैं जो उपन्यास के हैं. इसलिए कहानी के सभी तत्वों पर विचार करते समय उपन्यास की अपेक्षा उन तत्वों में संक्षिप्तता, सघनता और प्रभाव की एकदेशीय केन्द्रीयता को ध्यान में रखना चाहिए.
पात्र
हर उपन्यास में कुछ लोगों के जीवन की घटनाएँ, उनका दुख-सुख या उनकी समस्याएँ होती हैं. लोग विभिन्न समुदायों, विभिन्न सामाजिक हैसियत और पारिवारिक पृष्ठभूमि तथा भिन्न व्यावसायिक क्षेत्रों से सम्बद्ध होते हैं. समाज में उनकी स्थिति और भूमिका के अनुसार उनके व्यक्तित्व और मानसिकता का गठन होता है. पात्रों का उपस्थापन और चित्रण यदि इन सभी प्रसंगों के आधार पर होता है तो उन्हें सजीव और स्वाभाविक पात्र कहा जाता है. ये कल्पित नहीं, ठोस और वास्तविक पात्र होते हैं. प्रेमचंद के अनुसार कल्पना के गढ़े हुए आदमियों में विश्वास और प्रभाव उत्पन्न करने की क्षमता नहीं होती.
यदि ऐतिहासिक दृष्टि से हम विचार करें तो भारतेन्दु युग के उपन्यासकारों, विशेषकर श्रीनिवास दास और बालकृष्ण भट्ट के उपन्यासों के पात्र, प्रेमचंद के पात्रों से अलग हैं. जैनेन्द्र, अज्ञेय और फनीश्वरनाथ रेणु के उपन्यासों के पात्र प्रेमचंद के उपन्यासों के पात्रों से भिन्न हैं. यह भिन्नता इसलिए है कि पात्र समाज के विभिन्न स्तरों और विभिन्न ऐतिहासिक स्थितियों के पेट से पैदा हुए हैं. इनकी वर्गीय और वैयक्तिक विशेषताएँ ठोस स्थितियों से उत्पन्न हुई हैं.
प्रेमचंद के जमाने तक पात्र के वैयक्तिक चरित्र में नैतिक मूल्य समाप्त नहीं हुए थे. इसलिए चरित्र-चित्रण का आधार नैतिक मूल्य थे. लेकिन बाद में नैतिक मूल्यों का स्थान व्यक्तित्व ने ले लिया. अत: पात्र के चरित्र-चित्रण की अपेक्षा व्यक्तित्व का उद्घाटन उपन्यासकार का कर्त्तव्य हो गया. चरित्र-चित्रण में सामान्यतया अच्छे बुरे की नैतिक धारणा निहित होती है, जबकि व्यक्तित्व के उद्घाटन में प्रचलित और परम्परागत नैतिकता का विरोध प्राय: ही हुआ करता है. चरित्र-चित्रण में आदर्श का महत्त्व होता है और व्यक्तित्व के उद्घाटन में वास्तविकता का. आधुनिक युग के आदर्शों का महत्त्व घटता गया और व्यक्तित्व की स्वाधीनता का महत्त्व बढ़ता गया है. स्वाधीनता अक्सर विद्रोह में प्रतिफलित होती है. इसलिए समन्वयवादी पात्रों के मुकाबले विद्रोही पात्र अधिक विश्वसनीय और वास्तविक माने जाते हैं.
चरित्र-चित्रण और व्यक्तित्व का उद्घाटन मुख्यत: तीन प्रणालियों में किया जाता है:
1. परिस्थितियों और घटनाओं के बीच पात्रों को डालकर उनके क्रिया व्यापारों और प्रतिक्रियाओं से,
2. स्वयं लेखक द्वारा उनके जीवन की स्थितियों और मानसिकताओं का विश्लेषण करके, और
3. किन्हीं अन्य पात्रों द्वारा किए जाने वाले कथनों से.
कथावस्तु और कथानक
कथावस्तु और कथानक उपन्यास का अत्यंत महत्त्वपूर्ण तत्व है. प्राय: कथानक और कथावस्तु को घटनाओं का सिलसिला मान लिया जाता है, लेकिन घटनाओं का सिलसिला भर कथानक या कथावस्तु नहीं है. कथावस्तु और कथानक में भी अंतर होता है. कथावस्तु उस सामग्री का नाम है जिसे लेखक जीवन के विस्तृत क्षेत्र से चुनता है. जीवन में अनेक स्थितियाँ और स्तर होते हैं. लेखक अपनी रूचि और दृष्टि के अनुसार उनमें से कुछ को मुख्य रूप से चुनता है. जैसे प्रेमचंद के उपन्यासों की कथावस्तु प्रधानत: किसान-जीवन से ली गई है. जैनेन्द्र तथा अज्ञेय के उपन्यासों की कथावस्तु शहरी, शिक्षित स्त्री पुरूषों की समस्याओं से सम्बन्धित है. मानव जीवन में इस प्रकार जितने क्षेत्र हो सकते हैं, उपन्यास लेखक अपनी कथा के लिए उनमें से किसी या किन्हीं को वस्तु के रूप में चुन सकता है.
लेखक द्वारा चुनी गई सामग्री को जब पात्र, क्रिया व्यापार और घटनाओं के संबंध में निरूपित किया जाता है तब उस संबद्ध व्यवस्था को कथानक कहा जाता है. संबंध की यह व्यवस्था कार्य-कारण संबंध पर निर्भर होती है. महत्त्वपूर्ण लेखक कथानक निर्माण में अपनी दृष्टि, प्रतिभा, कल्पना और जीवन के विशाल दृश्य की जानकारी का विवेकपूर्ण उपयोग करता है. यह अवश्य ध्यान रखना चाहिए कि कथावस्तु आधार सामग्री है और कथानक उस आधार सामग्री की रचना है. कथावस्तु की कल्पना नहीं की जाती, लेकिन रचने के दौरान यानी कथानक में कल्पनाशीलता (प्रतिभा) का उपयोग अवश्य होता है. अनुपात और संतुलन, सृजनशील विवेक हैं जो आधार सामग्री से अधिक रचना- प्रक्रिया में प्रतिफलित होता है. यही कारण है कि एक ही कथावस्तु को लेकर भी सब लोग श्रेष्ठ औपन्यासिक कथानक की रचना नहीं कर सकते.
कथानक की विशेषता है - कार्य-कारण संबंध का निर्वाह, अनुपात और संतुलन. कथावस्तु की विशेषता है - विश्वसनीयता, प्रामाणिकता और जीवन के महत्त्वपूर्ण प्रश्नों या समस्याओं को उभारने और हल करने की योग्यता से युक्त होना. इसीलिए विषय का भी महत्त्व होता है.
कथोपकथन
कथोपकथन का उपयोग लगभग सभी साहित्यिक विधाओं में होता है. इसका कारण साहित्यिक नहीं है, जीवनगत है. जीवन में कुछ औपचारिक अवसरों को छोड़कर सारा कार्य-व्यवहार, बातचीत पर ही निर्भर है. इसलिए जब उपन्यास और साहित्य की अन्य विधाएँ कथोपकथन का उपयोग करती हैं तब अपने को जीवन के करीब लाने की चेष्टा करती है. उपन्यास और जीवन में की जाने वाली बातचीत में इतना ही अंतर है कि उपन्यासकार सटीक और प्रसंगानुकूल तथा अधिक अर्थगर्भित संवादों को चुन लेता है. इसलिए उपन्यास में की गई पात्रों की बातचीत या कथोपकथन में शक्ति और संभावना आ जाती है. उसकी योग्यता बढ़ जाती है. वे कथावस्तु की सार्थकता, कथानक की गति और चरित्रों की जटिलता तथा मानव-जीवन के गहरे अभिप्रायों को प्रकाशित करने का दायित्व निभाने लगते हैं. कथावस्तु और पात्र की योग्यता के अनुसार कथोपकथन को स्वाभाविक माना जाता है.
देशकाल और वातावरण
उपन्यास की वस्तु, पात्र और कथ्य, देशकाल और वातावरण के भीतर से ही उत्पन्न होते हैं. कुछ लोग ऐसा सोचते हैं कि देशकाल और वातावरण कहानी, पात्र और कथ्य के लिए विश्वसनीय पृष्ठभूमि भर होते हैं. उनका सोचना है कि मानव-जीवन के अर्थ देशकाल निरपेक्ष होते हैं. देशकाल और वातावरण का उपयोग उनको मूर्त या ठोस बनाने के लिए किया जाता है. आधुनिक विद्वान इसे पूरा सही नहीं मानते. उनके अनुसार मानव-जीवन की समस्याएँ देशकाल और वातावरण में विकसित होने वाली विभिन्न ऐतिहासिक शक्तियों के कारण पैदा होती है. देशकाल और वातावरण केवल प्राकृतिक ही नहीं होता, वह सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, धार्मिक भी होता है. उदाहरण के लिए हिन्दू-मुसलमान संघर्ष और उनमें एकता की समस्या मध्ययुग के पहले नहीं सम्भव थी. पति-पत्नी के बीच बढ़ते तलाक़ और उनके बच्चों के जीवन में उभरने वाले तनाव आधुनिक युग की ही देन है. साम्राज्यवादी ताक़तों से राष्ट्रवादी शक्तियों का संघर्ष आधुनिक इतिहास की चीज़ है.
इस प्रकार उपन्यास की वस्तु, कथ्य और चरित्र में देशकाल और वातावरण का योगदान केवल ऊपरी ही नहीं है. अब तक प्राय: यही माना जाता रहा है कि देशकाल, लोगों के आचार-विचार, रहन-सहन, रीति-रिवाज आदि तक ही सीमित है और वातावरण ऋतुओं और दृश्यों तक. इसमें संदेह नहीं कि उपन्यास में देशकाल और वातावरण का यह अर्थ भी महत्त्वपूर्ण है और लेखक को इनके औचित्यपूर्ण उपयोग का भी ध्यान अनिवार्य रूप से रखना पड़ता है.
भाषा और शैली
भाषा-शैली उपन्यास ही नहीं हर साहित्य विधा का अनिवार्य तत्व है. प्रेमचंद का स्पष्ट मत है कि भाषा का इस्तेमाल रचना शैली को सजीव और प्रभावोत्पादक बनाने के लिए होता है. उनका कथन है:
उपन्यास की रचना शैली सजीव और प्रभावोत्पादक होनी चाहिए, लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि हम शब्दों का गोरख धंधा रचकर पाठकों को भ्रम में डाल दें कि इसमें ज़रूर कोई न कोई गूढ़ आशय है…जनता उन्हीं उपन्यासों को आदर का स्थान देती है जिनकी विशेषता उनकी गूढ़ता नहीं, उनकी सरलता होती है.
गूढ़ता से यहाँ प्रेमचंद का आशय झूठी गंभीरता है और सरलता से वास्तविकता. भाषा का सरल, व्यावहारिक और मुहावरेदार होना इसलिए अच्छा माना जाता है कि वह जीवन की सच्चाइयों से जुड़ी होती है. अलंकारिक और काल्पनिक भाषा सुंदर तो ज़रूर होती है लेकिन वह जीवन से उतनी ही दूर भी होती है. उपन्यास की भाषा का प्रधान कार्य यह है कि वह जीवन में विकसित होने वाली नई-नई जटिलताओं का उद्घाटन करे. इस कार्य के लिए अलंकार और कल्पना का इस्तेमाल भी किया जा सकता है. लेकिन सजावट के लिए उसका इस्तेमाल करना उचित नहीं है.
इस प्रकार उपन्यास में भाषा के दो मुख्य कार्य हैं:
1. वह रचना-शैली को सजीव और प्रभावोत्पादक बनाती है, और
2. जीवन की वास्तविकता का उद्घाटन करती है.
शैली के दो मुख्य रूप हैं - वर्णन और चित्रण. वर्णन शैली की विशेषता यह है कि वह जीवन के अनेक पहलुओं, पक्षों और स्थितियों के ठीक-ठाक स्थान का निर्धारण करती है. उनके बीच जितनी दूरी और निकटता होती है उसके अनुसार उनमें परस्पर सम्बन्ध का बोध पैदा करती है. यदि जीवन के पहलुओं, पक्षों और स्थितियों में असंतुलन और विषमता है तो उसे प्रगट करती है. तात्पर्य यह है कि वर्णनात्मक शैली वह परिदृश्य खड़ा करती है जिसमें पात्र, घटनाएँ और क्रिया व्यापार होते हैं. उदाहरण के लिए हम जिस घर में रहते हैं वह किन-किन स्थानों से कितनी दूर है, उसे पहचानने के लिए हमें आस-पास की किन-किन चीज़ों को ध्यान में रखना पड़ता है, इन सब बातों के ध्यान से ही हम अपने घर को ठीक-ठीक जान पाते हैं. ठीक उसी तरह उपन्यासकार जिन पात्रों के जीवन और घटनाओं को कथावस्तु के रूप में ग्रहण करता है उन्हें पूरे सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक और धार्मिक-दार्शनिक दृश्य स्थितियों के बीच रख देता है. इससे होता यह है कि उपन्यासकार चाहे जीवन के किसी एक पहलू को कथा-सामग्री के रूप में ग्रहण क्यों न करें, लेकिन वह पूरे जीवन से जुड़ा होता है. इस कारण वर्णनात्मक शैली का महत्त्व कम नहीं होता. उसी से कथा में अनुपात और संतुलन बना रहता है.
चित्रण शैली पात्र और घटना के आंतरिक पहलुओं तथा स्तरों का उद्घाटन करती है. किसी पात्र के जीवन के आंतरिक द्वन्द्व और जटिलता तथा घटना के भीतरी विन्यासों को उभारती है. गोदान के एक प्रसंग के उदाहरण से इसे अच्छी तरह समझा जा सकता है. होरी अपनी बेटी बेच देता है. बेटी बेचकर वह कन्या से भी उऋण हो जाता है और बाप-दादों की निशानी ज़मीन भी बच जाती है. इस घटना में जीवन के दो पक्ष भीतर तक गड़े हुए हैं. बेटी बेचना पाप है लेकिन ज़मीन न बचा पाना अपनी ज़िन्दगी खो देना है. होरी की सामाजिक और आर्थिक स्थिति के कारण यह विशेष घटना घटती है. उसकी बेटी का ब्याह और ज़मीन का बचाव, दोनों हो जाता है लेकिन होरी भीतर से टूट जाता है. उसके इस आंतरिक द्वन्द्व को प्रेमचंद ने बड़ी मार्मिकता से चित्रित किया है:
होरी ने रूपए लिए तो उसका हृदय काँप रहा था. उसका सिर ऊपर न उठ सका, मुँह से एक शब्द न निकला, जैसे अपमान के अथाह गढ़े में गिर पड़ा है और गिरता चला जाता है. आज तीस साल तक जीवन से लड़ते रहने के बाद वह परास्त हुआ है और ऐसा परास्त हुआ है मानो उसको नगर के द्वार पर खड़ा कर दिया गया है और जो जाता है, उसके मुँह पर थूक देता है. वह चिल्ला-चिल्ला कर कह रहा है, भाइयो, मैं दया पात्र हूँ, मैंने नहीं जाना, जेठ की लू कैसी होती है और माघ की वर्षा कैसी होती है. इस देह को चीर कर देखो, इसमें कितना प्राण रह गया है, कितना जख़्मों से चूर, कितना ठोकरों से कुचला हुआ! उससे पूछो कभी तूने विश्राम के दर्शन किए, कभी तू छाँह में बैठा. उस पर यह अपमान! और वह जीता है, कायर, लोभी, अधम. उसका सारा विश्वास जो अगाध होकर स्थूल और अन्धा हो गया था, मानों टूक-टूक उड़ गया है.
इस प्रकार कथा में मार्मिकता, सघनता और गहराई चित्रण शैली से उत्पन्न होती है.
सभी उपन्यासकार इन दोनों शैलियों का उपयोग करते हैं, लेकिन कम या ज्यादा उपयोग के कारण उनकी शैली की विशेषता को अलग-अलग पहचाना जाता है. उदाहरण के लिए प्रेमचंद में वर्णन शैली की अधिकता है और जैनेन्द्र में चित्रण शैली की. शैली के यही दो मुख्य रूप हैं लेकिन लेखक के व्यक्तित्व की विशेषता के कारण इनमें भी विशेषता उत्पन्न होती है.
उपन्यास के भेद
विषय वस्तु और कथानक रचना के आधार पर उपन्यासों का वर्गीकरण किया जाता है.
विषय वस्तु के आधार पर छ: प्रकार के उपन्यास होते हैं. आधार और कुछ उदाहरण निम्न हैं:
1. सामाजिक
क. ग़बन (प्रेमचंद)ख. गोदान (प्रेमचंद)
2. राजनीतिक
क. टेढ़े-मेढ़े रास्ते (भगवती चरण वर्मा)ख. झूठा सच (यशपाल)
3. ऐतिहासिक
क. झाँसी की रानी (वृन्दावन लाल वर्मा)ख. गढ़ कुण्डार (वृन्दावन लाल वर्मा)
4. मनोवैज्ञानिक
क. संन्यासी (इलाचंद्र जोशी)ख. त्यागपत्र (जैनेन्द्र)
5. आँचलिक
क. मैला आँचल (फणीश्वरनाथ रेणु)ख. बलचनमा (नागार्जुन)
6. जीवनी परक
क. बाणभट्ट की आत्मकथा (हजारीप्रसाद द्विवेदी)ख. शेखर: एक जीवनी (अज्ञेय)
कथानक रचना के आधार पर निम्नलिखित वर्गीकरण किया जाता है जो कुछ उदाहरण सहित इस तरह है:
1. घटना प्रधान
क. चंद्रकांता संतति (देवकीनन्दन खत्री)
2. चरित्र प्रधान
क. सुनीता (जैनेन्द्र)
3. घटना चरित्र प्रधान
क. ग़बन (प्रेमचंद)
4. वातावरण प्रधान
क. मैला आँचल (फणीश्वरनाथ रेणु)
ये दोनों प्रकार के वर्गीकरण उपन्यास के अध्ययन में सामान्य सुविधा के लिए होते हैं. गहरे विवेचन-विश्लेषण में इनका विशेष महत्त्व नहीं है.
कहानी
ऐसा सभी लोग मानते हैं कि उपन्यास और कहानी एक ही जाति की रचनाएँ हैं. कहानी के भी भी वही तत्व हैं जो उपन्यास के हैं, इसलिए कहानी को समझने के लिए जो अन्य ज्ञातव्य बातें हैं केवल उन्हीं की चर्चा यहाँ की जाएगी.
सबसे पहले विचारणीय बात यह है कि अच्छे उपन्यास लेखक सब समय अच्छे कहानीकार नहीं होते हैं और न अच्छे कहानीकार अच्छे उपन्यासकार. उदाहरण के लिए अमृतलाल नागर अच्छे उपन्यासकार हैं लेकिन अच्छे कहानीकार नहीं हैं. उसी तरह अमरकांत अच्छे कहानीकार हैं लेकिन उनके उपन्यास बड़े साधारण हैं. इससे प्रतीत होता है कि उपन्यास और कहानी लिखने के लिए भिन्न-भिन्न प्रकार की प्रतिभा की ज़रूरत है.
प्रेमचंद ने कहानी के प्रमुख लक्षणों को बताते हुए उसकी परिभाषा की है. उन्होंने लिखा है:
कहानी ऐसी रचना है जिसमें जीवन के किसी एक अंग या किसी एक मनोभाव को प्रदर्शित करना ही लेखक का उद्देश्य रहता है. उसके चरित्र, उसकी शैली, उसका कथा-विन्यास सभी उसी एक भाव को पुष्ट करते हैं. उपन्यास की भाँति उसमें मानव-जीवन का सम्पूर्ण वृहत रूप दिखाने का प्रयास नहीं किया जाता न उसमें उपन्यास की भाँति सभी रसों का सम्मिश्रण होता है, वह ऐसा रमणीय उद्यान नहीं जिसमें भाँति-भाँति के फूल, बेल-बूटे सजे हुए हैं, बल्कि वह एक गमला है जिसमें एक ही पौधे का माधुर्य अपने समुन्नत रूप में दृष्टिगोचर होता है.
यह ध्यान देने योग्य बात है कि कहानी के स्वरूप पर चर्चा करते हुए सदा ही उपन्यास से उसके अंतर को समझाया जाता है.
कहानी आकार में उपन्यास से छोटी होती है. लेकिन आकार में छोटा होना भर कहानी को कहानी नहीं बना सकता. उपन्यास का कोई अध्याय कहानी नहीं हो सकता और न कहानी उपन्यास का कोई अध्याय. अत: कहानी उपन्यास की जाति की होते हुए भी स्वतंत्र विधा है. उसके छोटे होने के कारण लेखक की प्रेरणा और ग्रहण की गई जीवन की सामग्री में निहित संभावना होती है.
उपन्यास में जहाँ जीवन की सम्पूर्णता लेखक का सरोकार है वहाँ कहानी में कोई एक भाव, घटना या चरित्र का कोई एक मार्मिक प्रसंग. उपन्यास की तरह जीवन के विभिन्न प्रसंगों को खोलते-गूँथते हुए विस्तार करने की स्वतंत्रता कहानी में नहीं होती. कहानी की मूलभूत विशेषता को प्रेमचंद ने बताया है. उनका कहना है कि
जब तक वे किसी घटना या चरित्र में कोई ड्रामाई पहलू नहीं पहचान लेते तब तक कहानी नहीं लिखते.
ड्रामाई पहलू का अर्थ है कोई सघन, केन्द्रित और तनावपूर्ण प्रसंग. कहानी में यही लक्ष्य होता है. कहानीकार अपनी कहानी में इस लक्ष्य का निरूपण करता है. इसके लिए वह घटना और चरित्र की योजना तो करता है लेकिन उनका स्वतंत्र रूप से विकास नहीं करता. इस प्रकार कहानी में घटना और चरित्र निमित्त होते हैं. निमित्त का अर्थ यहाँ इतना ही है कि घटना और चरित्र अपने आप में भी लेखक का लक्ष्य न होकर उस नाटकीय पहलू के लक्ष्य के उद्घाटन में सहायक होते हैं. कहानी में किसी पात्र के चरित्र की सभी विशेषताओं का या किसी घटना के सभी प्रसंगों और सिलसिले का विवरण नहीं दिया जा सकता. उपन्यास जीवन की विविधता को समाहित करता है, कहानी किसी एक पक्ष का उद्घाटन करती है.
इसी कारण कहानी में संक्षिप्तता, सघनता और प्रभाव की एकदेशीय केन्द्रीयता, सृजनशील नियम अथवा गुण हैं, जबकि उपन्यास में विस्तार, खुलापन और प्रभाव की बहुस्तरीयता प्रधान गुण के रूप में होती है.
पहले कहा जा चुका है कि कहानी के वे ही तत्व हैं जो उपन्यास के हैं. इसलिए कहानी के सभी तत्वों पर विचार करते समय उपन्यास की अपेक्षा उन तत्वों में संक्षिप्तता, सघनता और प्रभाव की एकदेशीय केन्द्रीयता को ध्यान में रखना चाहिए.
---------------------------प्रो. नित्यानंद तिवारी से साभार
26 comments
कितनी मेहनत का काम कर रहें हैं आप। हिन्दी साहित्य जगत को शुक्रगुजार होना चाहिए।
मैं हिंदी साहित्य से सम्बंधित साईट ढूंढ़ रहा था . इस सन्दर्भ में आपका वेबलॉग पाकर अपार हर्ष हुआ . यहाँ साहित्य से सम्बंधित साडी जानकारी मौजूद है. कुछ उपयोगी लिंक्स भी है . आप ये काम जरी रखे . ईश्वर आपको कामयाबी प्रदान करे.
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हिन्दी साहित्य प्रेमियों के लिये यह ब्लॉग काफी लाभदायक है|इसमें साहित्य के विविध पहलुओं को उजागर किया गया है|जिससे कि साहित्य के प्रति मूलभूत जानकारी उपलब्ध होती है |
हिन्दी साहित्य के छात्रोँ के लिए बहुत उपयोगी सामग्री । इसके लिए आपको बहुत बहुत धन्यवाद
महोदय,
सर्वप्रथम धन्यवाद एवं साधुवाद इस प्रकार के सृजनात्मक साहित्यिक प्रचार प्रसार के लिए...!
एक शिक्षक होने के नाते एक अरसे से एक उपन्यास लिखने की बात मन मे अंकुरित हो रही है जो नव पीढ़ी के किशोरों को समझ मे भी आसानी से आए और इस पीढ़ी की समस्याओं के मनोवैज्ञानिक कारणों पर न सिर्फ प्रकाश डाले बल्कि समाधान भी प्रस्तुत कर सके और इस सबके बावजूद कहानी के रोचकता बनी रहे....इसी दिशा मे आज पहला कदम बढ़ाया जब गूगल पर सर्च कर आपके ब्लॉग तक पहुँचा ...निश्चय ही जानकारी उपयोगी है ...पुन: एक बार धन्यवाद ।
Manshik uttam ruchikar tatv ek prishtha per, prashanshaniya sukhad samaavesh. Sadhuwad. sabzmanni
साहित्य बहुत अच्छी है और मैं हमेशा इसे पढ़ने के लिए प्यार किया है
साहित्य की समझ बढ़ने के लिए बहुत ही महत्त्वपूर्ण जानकारी| बहुत-बहुत धन्यवाद!
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बहुत बहुत धन्यवाद ।
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