नाटक की परम्परा बहुत प्राचीन है. नाटक अपने जन्म से ही शब्द की कला के साथ-साथ अभिनय की कला भी है. अभिनय रंगमंच पर होता है. रंगमंच पर नाटक के प्रस्तुतीकरण के लिए लेखक के शब्दों के अलावा, निर्देशक, अभिनेता, मंच-व्यवस्थापक और प्रेक्षक (दर्शक) की आवश्यकता होती है. नाटक के शब्दों के साथ जब इन सबका सहयोग घटित होता है तब नाट्यानुभूति या रंगानुभूति पैदा होती है.
आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने लिखा है:
बहुत पहले भारतवर्ष में जो नाटक खेले जाते थे उनमें बातचीत नहीं हुआ करती थी. वे केवल नाना अभिनयों के रूप में अभिनीत होते थे. अब भी संस्कृत के पुराने नाटकों में इस प्रथा का भग्नावशेष प्राप्य है……यह इस बात का सबूत बताया जाता है कि नाटकों में बातचीत उतनी महत्त्वपूर्ण वस्तु नहीं मानी जाती थी जितनी क्रिया……नाटक की पोथी में जो कुछ छपा होता है उसकी अपेक्षा वही बात ज्यादा महत्त्वपूर्ण होती है जो छपी नहीं होती और सिर्फ रंगभूमि में देखी जा सकती है. नाटक का सबसे प्रधान अंग उसका क्रिया-प्रधान दृश्यांश ही होता है, और इसीलिए पुराने शास्त्रकार नाटक को दृश्य काव्य कह गए हैं.
इससे यह बात सिद्ध होती है कि कविता और कथा साहित्य की भाँति नाटक के शब्द स्वतंत्र नहीं होते. नाटक के शब्दों का प्रधान कर्त्तव्य क्रिया-प्रधान दृश्यों की प्रस्तावना है.
नाटक अभिनय के लिए होता है, पढ़ने के लिए नहीं. इसलिए नाटक के शब्दों में अर्थ उस प्रकार नहीं घटित होता जैसे कविता, उपन्यास या कहानी में. नाटक के शब्द कार्य की योग्यता से सार्थक होते हैं. नाटक के शब्दों में निहित कार्य की योग्यता रंगमंच पर सिद्ध होती है. इसलिए नाटक प्रयोगधर्मी होता है. प्रयोग का तात्पर्य है मंचन या प्रस्तुति. उसमें रंगमंच की व्यवस्था, वेशभूषा, प्रकाश, अभिनेताओं के क्रिया व्यापार, मुद्राएँ और गतिरचना आदि का समावेश होता है. नाटक के आलेख को जब इस प्रक्रिया के माध्यम से प्रस्तुत किया जाता है तब रसानुभूति होती है. आधुनिक युग में इस रंगानुभूति (Theatrical experience) कहा जाता है. काव्य की अनुभूति से नाटक की रंगानुभूति इस प्रयोग के कारण भिन्न होती है.
नाटक के प्रयोगधर्मी होने के कारण उपन्यास के मुकाबले नाटक की कुछ सीमाएँ होती हैं. उपन्यासकार की भाँति नाटककार को वर्णन और चित्रण की स्वतंत्रता नहीं होती. किसी पात्र के जीवन या घटना के विषय में उसे अपनी ओर से कुछ भी कहने का अवसर नहीं होता. दर्शकों के सामने कुछ घंटों में उसे पूरा नाटक प्रदर्शित करना होता है. इसलिए उसका आकार और विस्तार बहुत नहीं हो सकता. इन सब कारणों से नाटक उपन्यास के मुकाबले अधिक ठोस तथा जटिल होता है. नाटक में अधिक संयम और कौशल की ज़रूरत होती है.
रंगमंच और अभिनय की अपेक्षाओं के कारण नाटककार घटना, पात्र और संवाद को अत्यंत सावधानी से चुनता है. इस प्रकार और उनके विन्यास में नाटककार को अतिरिक्त संयम और कौशल का उपयोग करना पड़ता है. घटना, पात्र और क्रिया को वह ऐसे संवादों के जरिए प्रस्तुत करता है जो अभिनय में ही अपना पूरा अर्थ और प्रभाव प्राप्त कर सकते हैं. इसी को ध्यान में रख कर प्राचीन काल में नाटक की परिभाषा की गई है:
1. अवस्थानुकृतिर्नाट्यम2. तदुपारोपान्तुरूपकम्
अर्थात् 1. अवस्था का अनुकरण नाटक है. और 2. रूप का आरोप रूपक है.
नाटक को रूपक भी कहा जाता है. अनुकरण की क्रिया को ही अभिनय कहते हैं.
अभिनय
नाटक का आलेख (Script) अभिनय की क्रिया से संयुक्त होकर रसानुभूति तक पहुँचाता है. अत: नाटक को समझने के लिए अभिनय की आधारभूत बातों की सामान्य जानकारी अत्यंत आवश्यक है.
अभिनय के चार प्रकारों का उल्लेख मिलता है:
1. आंगिक2. वाचिक3. आहार्य4. सात्विक
1. आंगिक
अभिनय में अंगों के संचालन और विभिन्न शारीरिक चेष्टाओं को आंगिक अभिनय कहा जाता है. अर्थात् अभिनेताओं की देहगतियों को भाव और अर्थ को व्यक्त करनेवाला माध्यम बना दिया जाता है.
2. वाचिक
स्वरों के उतार-चढ़ाव और लहजे से अवस्थाओं के अनुकरण को वाचिक अभिनय कहा जाता है.
3. आहार्य
वेश-रचना और श्रृंगार आदि से जो अनुकरण होता है वह आहार्य अभिनय है.
4. सात्विक
किसी भाव को गहराई से अनुभव करते हुए अभिनेताओं की देह में जो सहज प्रतिक्रिया होती है, जैसे स्वेद, प्रकंप, रोमांच आदि उसे सात्विक अभिनय कहा जाता है.
अभिनय के इन सभी रूपों के प्रयोग से रसानुभूति या रंगानुभूति उत्पन्न होती है.
3 comments
अभिनय के इन सभी रूपों के प्रयोग से रसानुभूति या रंगानुभूति उत्पन्न होती है.
" very very interesting to read, it has cleared lot many things and confusion in my mind, great to know"
Regards
उम्दा आलेख!!बहुत बधाई.
पढ़ कर अच्छा लगा शुक्रिया इस आलेख के लिए
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