कविता को साहित्यिक अभिव्यक्ति का सबसे पुराना रूप माना जाता है. विद्वानों ने कई तरह से उसे समझने और परिभाषा में बाँधने का प्रयत्न किया है. लेकिन कविता की शक्ति अनुभव की आँच होती है जो परिभाषाओं के ढाँचे को पिघला देती है. काव्यत्व के लिए पद्य का ढाँचा अनिवार्य नहीं है. काव्यत्व गद्य में भी हो सकता है. लेकिन पद्य कहने से सामान्यत: कविता का बोध होता है. पद्य लय का अनुशासनबद्ध पारिभाषिक रूप है. गद्य में लय का यह पारिभाषिक रूप नहीं होता, लेकिन गद्य में भी जब लय के संवेदन प्रभावी होकर उभरते हैं तो उसमें काव्यत्व आ जाता है. फिर भी उसे कविता नहीं कहा जा सकता. उसके लिए गद्य काव्य जैसे संयुक्त पद का व्यवहार होता है. इससे पता चलता है कि काव्य उसकी संज्ञा नहीं विशेषण है, विधा के स्तर पर वह है गद्य ही. कविता, पद्य की जाति या वंश परंपरा की रचना है. इसीलिए पद्य कहने से कविता का ही बोध होता है.
आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने लिखा है:
कविता का लोकप्रचलित अर्थ वह वाक्य है जिसमें भावावेग हो, कल्पना हो, पद लालित्य हो और प्रयोजन की सीमा समाप्त हो चुकी हो. प्रयोजन की सीमा समाप्त हो जाने पर अलौकिक रस का साक्षात्कार होता है.
उन्होंने आगे लिखा है:
वस्तुत: अलौकिक शब्द का व्यवहार हम इसलिए नहीं करते कि वह इस लोक में न पाई जानेवाली किसी वस्तु का द्योतक है बल्कि इसलिए करते हैं कि लोक में जो एक नपी-तुली सचाई की पैमाइश है उससे काव्यगत आनंद को नापा नहीं जा सकता.
किन्तु हमारे प्राचीन शास्त्रकारों ने काव्यगत आनंद की व्याख्या और काव्य के स्वरूप को नापने का प्रयत्न किया है. भारतीय काव्यशास्त्र की विशेषता यह है कि उसमें काव्य की आत्मा जानने की मुख्य चिंता है. अलंकारशास्त्र यदि चमत्कार को काव्य की आत्मा मानता है तो ध्वनिशास्त्र ध्वनि को. रीति और वक्रोक्ति सिद्धांत काव्य की आत्मा रीति और वक्रोक्ति को मानते हैं. किन्तु ध्वनि और रस को भारतीय मनीषा ने व्यापक मान्यता प्रदान की. साहित्य दर्पण के लेखक आचार्य विश्वनाथ तक आते-आते तो काव्य की आत्मा के रूप में रस की प्रतिष्ठा निर्विवाद हो गई. सर्वोत्त्म कविता का आदर्श उसे माना गया जिसमें रस ध्वनित हो.
आधुनिक युग के आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने कविता की परिभाषा इस प्रकार की है:
जिस प्रकार आत्मा की मुक्तावस्था ज्ञानदशा कहलाती है, उसी प्रकार हृदय की मुक्तावस्था रस दशा कहलाती है. हृदय की इसी मुक्ति की साधना के लिए मुनष्य की वाणी जो शब्द विधान करती आई है उसे कविता कहते हैं.
कविता के तत्त्वों के भाव, बुद्धि, कल्पना और शैली का उल्लेख किया जाता है. किन्तु ये तत्त्व साहित्य मात्र की विशेषता को व्यक्त करते हैं.
कविता की आत्मा और उसके तत्त्वों की चिंता न करके उसे साहित्य की विशेष विधा के रूप में समझने की कोशिश हमारे लिए ज्यादा काम की चीज़ हो सकती है. कविता के पाठक के सामने काव्य की लंबी परम्परा ज़रूर रहती है. इस परम्परा-संबंध से काव्य की विशेष योग्यता को पहचानने में बहुत कठिनाई नहीं होती. काव्य की छंदबद्धता या लय की चर्चा ऊपर हो चुकी है. यदि कथा साहित्य को सामने रखकर हम कविता को पहचानना चाहें तो लगेगा कि कविता उन बहुत से विवरणों को छोड़ देती है जो कथा साहित्य के लिए आवश्यक हैं. कविता उतने ही विवरणों को काम में लाती है जिनसे भाव और अनुभव का स्वरूप उभर जाये. यानी कविता में जीवन और परिस्थितियों के विवरणों का चुनाव अचूक और गहनतर होता है.
कविता की बहुत बड़ी विशेषता यह है कि वह भाव का बिम्ब ग्रहण कराती है. उदाहरण के लिए:
किसी ने कहा, कमल! अब इस कमल पद का ग्रहण कोई इस प्रकार भी कर सकता है कि ललाई लिए हुए सफेद पंखड़ियों और झुके हुए नाल आदि सहित एक फूल की मूर्ति मन में थोड़ी देर के लिए आ जाये या कुछ देर बनी रहे, और इस प्रकार भी कर सकता है कि कोई चित्र उपस्थित न हो, केवल पद का अर्थ मात्र समझ कर काम चला लिया जाए. … बिम्ब ग्रहण वहीं होता है जहाँ कवि अपने सूक्ष्म निरीक्षण द्वारा वस्तुओं के अंग प्रत्यंग, वर्ण आकृति तथा उसके आस पास की परिस्थिति का परस्पर संश्लिष्ट विवरण देता है.
इस प्रकार कविता भाव को बिम्ब या चित्र रूप में धारण करती है.
कविता जीवन और वस्तुओं के भीतर किन्हीं मार्मिक तथ्यों को चुन लेती है. कल्पना के सहारे उन तथ्यों की मार्मिकता को सघन और प्रभावी रूप में चित्रित करती है. उदाहरण के लिए किसी व्यक्ति को अपनी पत्नी पर अत्याचार करते हुए देखकर कोई दूसरा कहे कि, “तुमने इसका हाथ थामा है.” तो वह एक मार्मिक बिन्दु पर इस तथ्य को पकड़ लेता है. क्योंकि पत्नी को सहारा देना पति का कर्त्तव्य है न कि उस पर अत्याचार करना. यदि वह यह कहता कि, “तुमने इससे विवाह किया है.” तो इस वाक्य में अनेक शास्त्र मर्यादायें और विधियाँ हैं. इसमें अनेक तथ्य शामिल हैं और उनमें से किस तथ्य में कितनी मार्मिकता है, उसका स्पष्टीकरण नहीं होता. लेकिन “हाथ थामने” में तथ्य स्पष्ट है और वह मार्मिक इसलिए हो जाता है कि जिसे सहारा देना चाहिए उस पर अत्याचार किया जा रहा है.
कविता की विशेषता नाद-सौन्दर्य के उपयोग में भी है. “नाद-सौन्दर्य से कविता की आयु बढ़ती है.” वह बहुत दिनों तक याद रहती है.
कविता के कार्य
सभ्यता के विकास से मानव जीवन, अनेक आवरणों से ढक और जकड़ जाता है. कविता इन आवरणों को भेदती है और भावों को उनके मूल या आदिम रूपों तक ले जाती है. उदहारण के लिए "किसी का कुटिल भाई उसे संपत्ति से एकदम वंचित रखने के लिए वकीलों की सलाह से एक नया दस्तावेज़ तैयार करता है. इसकी खबर पाकर वह क्रोध से नाच उठता है. प्रत्यक्ष व्यावहारिक दृष्टि से तो उसके क्रोध का विषय है वह दस्तावेज़ या कागज़ का टुकड़ा. पर उस कागज़ के टुकड़े के भीतर वह देखता है कि उसे और उसकी संतति को अन्न, वस्त्र न मिलेगा. उसके क्रोध का प्रकृत विषय न तो वह कागज़ का टुकड़ा है और न उसके ऊपर लिखे काले-काले अक्षर. ये तो सभ्यता के आवरण मात्र हैं. अतः उसके क्रोध में और कुत्ते के क्रोध में, जिसके सामने का भोजन कोई दूसरा कुत्ता छीन रहा है, काव्य दृष्टि से कोई भेद नहीं है." इस प्रकार कविता सभ्यता के आवरणों को भेद कर भावों के आदिम रूपों को हमारे सामने लाती है.
कविता दृष्टि के व्यापक विस्तार के साथ भावों का विस्तार करती है. पशु की भावना संकीर्ण और केवल अपने तात्कालिक रूप तक सीमित होती है. किन्तु मनुष्य की भावना जीवनजगत् ही नहीं, पदार्थों तक में फैली होती है. इस प्रकार कविता मनुष्य के संपर्क में आने वाली समस्त सृष्टि के साथ उसके भावों का संयोग करती है.
कविता को भावयोग कहा जाता है. कविता मनुष्य की भावसत्ता के सर्वोत्तम रूप का साक्षात्कार कराती है. वह मनुष्य को स्व-पर की संकीर्ण सीमा के ऊपर उठा देती है.
कविता का एक कार्य आनंद प्रदान करना भी है. लेकिन कविता के आनंद का मूल्य तभी है जब वह जीवन के किसी मार्मिक तथ्य का उद्घाटन भी करे.
कविता के कार्य
सभ्यता के विकास से मानव जीवन, अनेक आवरणों से ढक और जकड़ जाता है. कविता इन आवरणों को भेदती है और भावों को उनके मूल या आदिम रूपों तक ले जाती है. उदहारण के लिए "किसी का कुटिल भाई उसे संपत्ति से एकदम वंचित रखने के लिए वकीलों की सलाह से एक नया दस्तावेज़ तैयार करता है. इसकी खबर पाकर वह क्रोध से नाच उठता है. प्रत्यक्ष व्यावहारिक दृष्टि से तो उसके क्रोध का विषय है वह दस्तावेज़ या कागज़ का टुकड़ा. पर उस कागज़ के टुकड़े के भीतर वह देखता है कि उसे और उसकी संतति को अन्न, वस्त्र न मिलेगा. उसके क्रोध का प्रकृत विषय न तो वह कागज़ का टुकड़ा है और न उसके ऊपर लिखे काले-काले अक्षर. ये तो सभ्यता के आवरण मात्र हैं. अतः उसके क्रोध में और कुत्ते के क्रोध में, जिसके सामने का भोजन कोई दूसरा कुत्ता छीन रहा है, काव्य दृष्टि से कोई भेद नहीं है." इस प्रकार कविता सभ्यता के आवरणों को भेद कर भावों के आदिम रूपों को हमारे सामने लाती है.
कविता दृष्टि के व्यापक विस्तार के साथ भावों का विस्तार करती है. पशु की भावना संकीर्ण और केवल अपने तात्कालिक रूप तक सीमित होती है. किन्तु मनुष्य की भावना जीवनजगत् ही नहीं, पदार्थों तक में फैली होती है. इस प्रकार कविता मनुष्य के संपर्क में आने वाली समस्त सृष्टि के साथ उसके भावों का संयोग करती है.
कविता को भावयोग कहा जाता है. कविता मनुष्य की भावसत्ता के सर्वोत्तम रूप का साक्षात्कार कराती है. वह मनुष्य को स्व-पर की संकीर्ण सीमा के ऊपर उठा देती है.
कविता का एक कार्य आनंद प्रदान करना भी है. लेकिन कविता के आनंद का मूल्य तभी है जब वह जीवन के किसी मार्मिक तथ्य का उद्घाटन भी करे.
__________________________________प्रो. नित्यानंद तिवारी, से साभार
(अब साहित्य का शास्त्र : आरंभिक परिचय, नित्यानंद तिवारी, स्वराज प्रकाशन, नई दिल्ली पुस्तक में प्रकाशित )
9 comments
एक अच्छी पोस्ट। शुक्रिया आपका।
शुक्रिया
बहुत बहुत आभार
बहुत अच्छी पोस्ट. आभार.
आभार इस आलेख के लिए.
dhyanwad
dhyanwad
gyan prapet karne me apka lekh kafi madadgar he
Dhanyvad.
nice post
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