जब हम हिन्दी साहित्य कहते हैं तो हमारा आशय हिन्दी में लिखी हुई प्राय: उन कृतियों से होता है जो कविता, कहानी, उपन्यास, नाटक, निबंध, रेखाचित्र, संस्मरण, जीवनी, आत्मकथा, यात्रा विवरण, रिपोतार्ज, समालोचना आदि की होती हैं, लेकिन कभी-कभी धर्म, दर्शन, इतिहास, राजनीति, अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र, पुरातत्त्व, भूगोल, विज्ञान आदि विषयों की पुस्तकों को भी शामिल कर लेते हैं और ऐसा करते समय कहते हैं कि यह ज्ञान का साहित्य है. अंग्रेजी में भी लिट्रेचर शब्द का प्रयोग कभी-कभी इतने ही व्यापक रूप में किया जाता है. इस व्यापक अर्थ में प्रयोग किए जानेवाले साहित्य शब्द के लिए संस्कृत में एक बहुत अच्छा शब्द है: वाङ्मय . वाक् अर्थात् भाषा के माध्यम से जो कुछ भी कहा या लिखा गया हो वह सब कुछ वाङ्मय है. इसके अंतर्गत काव्य तो है ही, सभी प्रकार के शास्त्र भी आ जाते हैं, चाहे वे भौतिक विज्ञान के हों, चाहे समाज विज्ञान अथवा मानविकी के. संस्कृत के एक पुराने आचार्य राजशेखर ने वाङ्मय शब्द का प्रयोग इसी अर्थ में किया है और उनके अनुसार इसके भी दो भेद हैं: शास्त्र और काव्य .
साहित्यशास्त्र में वाङ्मय के उस रूप पर विचार किया जाता है जिसे राजशेखर ने काव्य कहा है, लेकिन जिसका तात्पर्य साहित्य से ही है. काव्य साहित्य क्यों कहा जाने लगा, यह कहानी भी रोचक है. इसलिए इसे जान लेना चाहिए. संस्कृत में काव्य की सबसे पुरानी परिभाषा है: शब्दार्थौ सहितौ काव्यम् . शब्द और अर्थ का सहित भाव काव्य है. सहित भाव अर्थात् साथ-साथ होना. इस परिभाषा में सहित शब्द इतना महत्त्वपूर्ण है कि आगे चलकर यह सहित भाव ही साहित्य के रूप में काव्य के लिए स्वीकार कर लिया गया. स्वयं संस्कृत में ही आगे चलकर विश्वनाथ महापात्र नाम के एक आचार्य ने साहित्य दर्पण नामक ग्रंथ लिखकर साहित्य शब्द के प्रचलन पर मुहर लगा दी. इसलिए इस विषय में किसी प्रकार के भ्रम की गुंजाइश नहीं है कि आज जिस अर्थ में हम साहित्य शब्द का प्रयोग करते हैं, वह बहुत पुराना है और हमारे देश में वह सैकड़ों वर्षों से इसी अर्थ में प्रचलित होता आया है.
सवाल यह है कि आखिर इस साहित्य शब्द में ऐसी कौन-सी विशेषता है जिसके कारण शब्द और अर्थ साहित्य की महिमा प्राप्त करते हैं? वैसे देखें तो शब्द और अर्थ तो हर जगह साथ-साथ रहते ही हैं. क्या शास्त्र में शब्द और अर्थ का साथ नहीं होता? फिर साहित्य के शब्द और अर्थ के साथ में कौन-सा सुरखाब का पर लगा है?
संस्कृत के ही एक दूसरे बड़े आचार्य कुंतक ने इस प्रश्न का बहुत सुन्दर समाधान प्रस्तुत किया है. वे कहते हैं कि जब शब्द और अर्थ के बीच सुंदरता के लिए स्पर्धा या होड़ लगी हो तो साहित्य की सृष्टि होती है. सुंदरता की इस दौड़ में शब्द अर्थ से आगे निकलने की कोशिश करता है और अर्थ शब्द से आगे निकल जाने के लिए कसम खाता है और निर्णय करना कठिन हो जाता है कि कौन अधिक सुंदर है. शब्द और अर्थ की यह स्पर्धा ही सहित भाव है. और साहित्य का विशेष धर्म भी यही है.
विज्ञान जगत से एक उदाहरण लेकर इस बात को एक और ढंग से रखा जा सकता है. हाइड्रोजन और आक्सीजन नामक दो गैस विशेष अनुपात में मिलती है तो पानी नामक एक तीसरी चीज़ बन जाती है. पानी इन दोनों गैसों के बिना नहीं बन सकता, लेकिन वह इन दोनों में से कोई भी नहीं है. दोनों के विशेष संयोग का ही परिणाम पानी है. यह विशेष संयोग ही वह सहित भाव है जिसके कारण शब्द और अर्थ साहित्य की पदवी प्राप्त करते हैं.
इस बात को और स्पष्ट करने के लिए एक उदाहरण लें. तुलसीदास की कविता की एक पंक्ति है: वरदंत की पंगति कुंद कली अधराधर पल्लव खोलन की . यह राम के शिशु रूप का वर्णन है. शब्द भी सुंदर है और अर्थ भी. लेकिन कहना कठिन है कि कौन अधिक सुंदर है. शब्द और अर्थ के बीच जैसे स्पर्धा लगी है. यह स्पर्धा ही सहित भाव है. इसलिए यह साहित्य है. यह सहित शब्द इतना अर्थगर्भ है कि आधुनिक युग में इसका विस्तार एक अन्य आयाम में भी किया गया है. यह साहित्य का सामाजिक आयाम है. सहित का जो भाव साहित्य का अपना धर्म है, वही मनुष्य के समाज की भी बुनियाद है. इसे हम परस्परता अथवा आपसी संबंधों के रूप में देखते हैं. मनुष्य सामाजिक प्राणी है तो इसलिए कि वह अपने अलावा दूसरे के करने धरने में रस लेता है, औरों के सुख-दुख में शामिल होता है तथा औरों को भी अपने सुख-दुख का साझीदार बनाना चाहता है. यही नहीं बल्कि वह अपने इर्द-गिर्द की दुनिया को समझना चाहता है और इस दुनिया में कोई कमी दिखाई पड़ती है तो उसे बदलकर बेहतर बनाने की भी कोशिश करता है. परस्परता के इस वातावरण में ही प्रसंगवश वह चीज़ पैदा होती है जिसे साहित्य की संज्ञा दी जाती है. दूसरी ओर जब मनुष्य की कोई वाणी समाज में परस्परता के इस भाव को मजबूत बनाती है तो उसे साहित्य कहा जाता है.
इस प्रकार साहित्य में निहित सहित शब्द का एक व्यापक सामाजिक अर्थ भी है जो उसके उद्देश्य और प्रयोजन की ओर संकेत करता है.
जब कोई अपने और पराये की संकुचित सीमा से ऊपर उठकर सामान्य मनुष्यता की भूमि पर पहुँच जाए तो समझना चाहिए कि वह साहित्य धर्म का निर्वाह कर रहा है. पुराने आचार्य अपनी विशेष शब्दावली में इसी को लोकोत्तर और अलौकिक कहते थे. आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने इसी को आज की भाषा में हृदय की मुक्तावस्था कहा है. जिस मुक्त अवस्था का अनुभव हृदय करता है, वह इसी लोक के बीच संभव है. इसे परलोक की कोई अनूठी चीज़ समझना ठीक नहीं.
इस प्रकार साहित्य के संसार में शब्द और अर्थ सौन्दर्य के लिए आपस में होड़ करते हुए लोकमंगल के ऊँचे आदर्श की ओर अग्रसर होते हैं.
__________________प्रो. नित्यानंद तिवारी, साभार
अंततः कहा जा सकता है कि साहित्य मनुष्य के भावों और विचारों की ऐसी समष्टि है जो समाज में मनुष्य के परस्परता के वातावरण से जन्म लेकर परस्परता के भाव को मजबूत बनाती है.
अंततः कहा जा सकता है कि साहित्य मनुष्य के भावों और विचारों की ऐसी समष्टि है जो समाज में मनुष्य के परस्परता के वातावरण से जन्म लेकर परस्परता के भाव को मजबूत बनाती है.
8 comments
लेख्ा उपलब्ध कराने के लिए शुक्रिया !
साधुवाद! आपने अत्यन्त सम्यक जानकारी प्रदान की है।
सुना है कि साहित्य का 'हित' से भी कुछ सम्बन्ध है। इसका उल्लेख आपकी व्याख्या में नहीं आया है।
apka bhut bhut sukriya hme sahitya ke bare mai btane ke liye.
Dhanyabad guruji
bahut bahut dhanyavaad! sunder lekh hai
बहुत ही सुंदर ब्लॉग . इस ब्लॉग को देख कर दिल बाग़-=बाग़ हो गया. बधाई
Super website.
Bahut Sundar
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