*** 'सिंदूर तिलकित भाल' की व्याख्या

(कविता) 
सिन्दूर तिलकित भाल
नागार्जुन 
***
घोर निर्जन में परिस्थिति ने दिया है डाल !
याद आता तुम्हारा सिंदूर तिलकित भाल !
कौन है वह व्यक्ति जिसको चाहिए समाज ?
कौन है वह एक जिसको नहीं पड़ता दूसरे से काज ?
चाहिए किसको नहीं सहयोग ?
चाहिए किसको नहीं सहवास ?
कौन चाहेगा कि उसका शून्य में टकराय यह उच्छ्वास ?
हो गया हूँ मैं नहीं पाषाण
जिसको डाल दे कोई कहीं भी
करेगा वह कभी कुछ विरोध
करेगा वह कुछ नहीं अनुरोध
वेदना ही नहीं उसके पास
फिर उठेगा कहाँ से निःश्वास
मैं साधारण,सचेतन जन्तु
यहाँ हाँनाकिन्तु और परन्तु
हाँ हर्ष-विषाद-चिंता-क्रोध
हाँ है सुख-दुःख का अवबोध
हाँ हैं प्रत्यक्ष अनुमान
हाँ स्मृति-विस्मृति के सभी के स्थान
तभी तो तुम याद आती प्राण,
हो गया हूँ मैं नहीं पाषाण !
याद आते स्वजन
जिनकी स्नेह से भींगी अमृतमय आँख
स्मृति-विहंगम की कभी थकने देगी पाँ
याद आता मुझे अपना वह 'तरउनी’ ग्राम
याद आतीं लीचियां,वे आम
याद आते मुझे मिथिला के रुचिर भू-भाग
याद आते धान
याद आते कमल,कुमुदिनि और तालमखान
याद आते शस्य-श्यामल जनपदों के
रूप-गुण-अनुसार ही रक्खे गये वे नाम
याद आते वेणुवन वे नीलिमा के निलय,अति अभिराम
धन्य वे जिनके मृदुलतम अंक
हुए थे मेरे लिए पर्यंक
धन्य वे जिनकी उपज के भाग
अन्न-पानी और भाजी-साग
फूल-फल कंद-मूल,अनेक विध मधु-मांस
विपुल उनका ऋण ,सधाकता मैं दशमांश
ओह,यद्यपि पड़ गया हूँ दूर उनसे आज
हृदय से पर रही आवाज -
धन्य वे जन,वही धन्य समाज
यहाँ भी तो हूँ  मैं असहाय
हाँ भी व्यक्ति समुदाय
किन्तु जीवन-भर रहूँ फिर भी प्रवासी ही कहेंगे हाय !
मारूँगा तो चिता पर दो फूल देंगे डाल
समय चलता जायगा निर्बाध अपनी चाल
सुनोगी तुम तो उठेगी हूक
मैं रहूँगा सामने (तस्वीर में) पर मूक
सांध्य नभ में पश्चिमांत-समान
लालिमा का जब करुण आख्यान
सुना करता हूँ,सुमुखि उस काल
याद आता तुम्हारा सिंदूर तिलकित भाल            (1943)
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(व्याख्या)  

सिंदुर तिलकित भाल  नागार्जुन की सबसे प्रसिद्ध और सर्वश्रेष्ठ कविताओं में एक है. कवि अपने घर-परिवार से दूर पड़ा हुआ अपनी पत्नी का तिलकित भाल याद करता है. और उसी के साथ साथ जुड़ी हुई अपने गाँव की प्रकृति और वहाँ का समूचा जनजीवन उसकी आँखों के आगे तैरने लगता है. फिर इन सबके बीच उसे पत्नी का सिंदुर तिलकित भाल याद आता है. इस तरह पत्नी कवि को उस समूची प्रकृति और भू भाग से जोड़ने वाली सत्ता बनती है तथा प्रकृति और भू-भाग का जीवन पत्नी के प्रति उसके लगाव को दृढ़ करने वाला माध्यम बनता है. यह दोतरफा क्रिया नागार्जुन के प्रेम व्यापार को अधिक ऊँचे और स्वस्थ स्तर पर व्यक्त करती है.

कवि अपने को घोर निर्जन परिस्थिति में पड़ा हुआ अनुभव करता है. उसके आस-पास लोग-बाग न हों, ऐसी बात नहीं है. वहाँ भी व्यक्ति और व्यक्तियों के समुदाय हैं. लेकिन उन सबके साथ नागार्जुन का कोई भावात्मक और सामाजिक संबंध नहीं बन पाता. लोग उसे प्रवासी मानते हैं, अर्थात बाहर से आकर बसा हुआ. तालमेल का यह अभाव विभिन्न राष्ट्रों की अपनी सांस्कृतिक भिन्नताओं और विशिष्टताओं की सूचना देता है. स्वभावत: अकेले के तीव्र भाव से व्यथित कवि को अपनी पत्नी का सिंदूर लगा मस्तक याद आता है. पत्नी की स्मृति उसके अकेलेपन के अनुभव को तोड़ती है. उसे ढाढ़स देती है. पत्नी की स्मृति के साथ जुड़ी हुई है तरउनी गाँव की, वहाँ के लोगों की, और वहाँ के वस्तुओं की स्मृतियाँ भी. उसे लगता है कि वहाँ के किसानों ने अपनी मेहनत से उपजाई हुई चीज़ों, मसलन अन्न-पानी और भाजी-साग, फूल-फल और कंद-मूल...आदि ने मुझे पाला-पोसा है. उनका मुझपर अपार ऋण है. मैं उनका ऋण चुका नहीं सकता. और विडम्बना यह है कि मैं आज उनसे दूर आ पड़ा हूँ. यहाँ सब चीज़ों के रहते हुए भी कवि आत्मीयता और अपनापन नहीं अनुभव करता है. वह कहता है कि यहाँ भी कोई काम रूकता नहीं, मैं असहाय नहीं हूँ और अगर मर जाऊँगा तो लोग चिता पर दो फूल भी डाल देंगे, लेकिन यहाँ प्रवासी ही माना जाऊँगा, यहाँ रहकर भी यहाँ का नहीं बन पाऊँगा. स्मृति में ही वह पत्नी से कहता है कि तुम्हें जब मेरी मृत्यु की सूचना मिलेगी तो तुम्हारे हृदय में वेदना की टीस उठेगी. तुम तस्वीर में मुझे देखोगी और मैं कुछ नहीं बोलूँगा. अपनी इस भावना को सूर्यास्त के बिम्ब के माध्यम से और भी मार्मिक बनाते हुए नागार्जुन कहते हैं कि शाम के आकाश के पश्चिम छोर के समान जब लालिमा की करूण गाथा सुनता हूँ, उस समय तुम्हारे सिंदूर लगे मस्तक की और भी तीव्रता से याद आती है.

कविता तीन खण्डों में रची गई है. पहले खण्ड में कवि अपने अकेलेपन के अनुभव के बारे में बताता है. यहाँ वह अपने प्रवासी होने की स्थिति को अस्वीकार करता है और कहता है कि मैं मुनष्य हूँ, निर्जीव पत्थर नहीं हूँ जिसे भाग्य जहाँ चाहे उठाकर फेंक दे. दूसरे खण्ड में पत्नी जिस गाँव में है वहाँ का पूरा सामाजिक और प्राकृतिक वातावरण कवि के मानस पटल पर उभरता है. इस परिचित और प्रिय वातावरण के सम्मोहन से कवि आन्तरिक शक्ति संचित करता है. तीसरे खण्ड में वह अपने बचपन की याद करता है. तरउनी के निवासियों के उपकार के प्रति कृतज्ञता से भर जाता है और इसीलिए तत्काल विदेश में अपनी उपस्थिति के प्रति क्षोभ व्यक्त करते हुए मृत्यु की कल्पना करता है. इन तीनों खण्डों के केन्द्र में स्थित है कवि की पत्नी, जिसके सिंदूर तिलकित भाल की स्मृति से कवि का स्वच्छंद चिंतन फूटता है.

कवि ने पत्नी के लिए “सिंदूर तिलकित भाल” का बिम्ब चुनकर कलात्मक कल्पना का ही परिचय नहीं दिया है, बल्कि अपने प्रेम को भारत –खासकर उत्तर भारत- की सांस्कृतिक विशिष्टता के माध्यम से पारिभाषित भी किया है. सिंदूर विवाहित स्त्री के सुहाग का प्रतीक है. नागार्जुन अपनी पत्नी का सुहाग हैं. वे पत्नी के मस्तक पर सुहाग के चिह्न को ही प्रेम के प्रतीक के रूप में चुनते हैं. सिंदूर उनके लिए संस्कृति की एक रूढ़ि भर नहीं है, वह संबंधों की प्रगाढ़ता का प्रतीक-चिह्न भी है. सांस्कृतिक चिह्न को मानवीय और भावात्मक संबंधों के धरातल पर परिभाषित करके नागार्जुन इस बात का उदाहरण प्रस्तुत करते हैं कि वे अपनी जनता की जातीय संस्कृति से भी कितना गहरा प्रेम करते हैं. विदेश में रहना उनके लिए कष्ट और वेदना का कारण इसलिए है कि उन्हें अपने देश की जनता, प्रकृति और संस्कृति से गहरा प्रेम है. पत्नी का परम अंतरंग संबंध इस प्रेम का प्रतीक है. यही कारण है कि कविता में कवि की सभी कल्पनायें और भावनायें पत्नी के सिंदूर तिलकित भाल को केन्द्र में रखकर ही प्रकट हुई हैं.

नागार्जुन ने पत्नी को अपने सामाजिक और प्राकृतिक वातावरण से काटकर अस्वस्थ रूप में अपनी चिंता का विषय नहीं बनाया है. कालिदास के दुष्यंत जब शकुंतला के विरह से क्षुब्ध होते हैं और चारण लोग शकुंतला का एक चित्र उन्हें देते हैं तो वे पूछते हैं कि इसमें कण्व ऋषि का आश्रम कहाँ है, वह ताल कहाँ है जिसके तट पर एक हिरणी अपने सींग से हिरण की आँखों की कोर खुजला रही है? इन सबके बिना शकुंतला नहीं हो सकती. इस चित्र में ये सब नहीं है, इसलिए यह शकुंतला का चित्र नहीं है. नागार्जुन की पत्नी भी तरउनी गाँव, वहाँ के लीची, आम, कमल, कुमुदिनि, तालमखान, वहाँ के नाम-गुण के अनुसार नामों वाले निवासियों के बिना नहीं हो सकती. अकारण नहीं है कि नागार्जुन कालिदास के भोगवादी चित्रों की उपेक्षा करके कालिदास कविता में उन्हीं प्रसंगों पर ध्यान केन्द्रित करते हैं जहाँ सच्चे प्रेम-संबंधों से उपजी वास्तविक करूणा है.

नागार्जुन की कला की विशेषता यह है कि वे कला को सजा-संवार कर पेश करने की जगह भावों की उदात्तता और विचारों की स्वस्थता पर अधिक बल देते हैं और पाठक में एक स्वस्थ संस्कार उत्पन्न करते हैं.

------------- प्रो. अजय तिवारी  से साभार

आप देख सकते हैं इनकी पुस्तक नागार्जुन की कविता

9 comments

जितेन्द़ भगत August 14, 2008 at 6:32 PM

nice

जितेन्द़ भगत August 14, 2008 at 6:42 PM

साथ्‍ा में कवि‍ता भी लगा देते तो ढ़ूढने की मेहनत नहीं करनी पड़ती।
(चलि‍ए इतनी मेहनत कर लेते हैं)

Udan Tashtari August 14, 2008 at 8:44 PM

बहुत आभार.

प्रफुल्ल कोलख्यान / Prafulla Kolkhyan September 10, 2012 at 2:53 PM

प्रो अजय तिवारी का उपयोगी विश्लेषण साहित्य के पाठकों के लिए महत्त्वपूर्ण है।

Unknown February 20, 2015 at 8:27 PM

THANKS DEAR SIR.

Unknown August 20, 2017 at 11:32 PM

धन्यवाद तिवारी जी,
पंकि्त बद्ध स्पष्टीकरण देते तो छात्रोपयोगी होता।

Unknown August 20, 2017 at 11:32 PM

धन्यवाद तिवारी जी,
पंकि्त बद्ध स्पष्टीकरण देते तो छात्रोपयोगी होता।

Unknown November 8, 2019 at 12:29 PM

धन्यवाद सर

Unknown July 29, 2021 at 10:58 AM

ब्लॉग हो तो ऐसा हो। love you sir