पचास-पचपन बरस पहले अपने एम.ए. के पाठ्यक्रम में देवकीनन्दन खत्री के उपन्यास `चन्द्रकांता' को आचार्य रामचन्द्र शुक्ल की दृष्टि से पढ़ा था. यह मेरा ही नहीं, शायद मेरे जैसे अनेक पाठकों का हाल रहा होगा. शुक्लजी के अनुसार `खत्रीजी भले ही हिन्दी के पहले मौलिक उपन्यासकार हैं जिनकी रचनाओं की सर्वसाधारण में धूम हुई' परन्तु `ये वास्तव में घटना प्रधान कथानक या क़िस्से हैं जिनमें जीवन के विविध पक्षों के चित्रण का कोई प्रयत्न नहीं, इससे ये साहित्य कोटि में नहीं आते.' साथ ही वह यह भी स्वीकार करते हैं कि `जितने पाठक उन्होंने उत्पन्न किये उतने और किसी ग्रंथकार ने नहीं. ...चन्द्रकान्ता पढ़कर वे हिन्दी की और प्रकार की साहित्यिक रचनाएं भी पढ़ चले और अभ्यास हो जाने पर कुछ लिखने भी लगे.' जिस रचना ने साहित्य के पाठक और लेखक तैयार किये उसे ही साहित्य की श्रेणी से ख़ारिज कर दिया गया. यह शुक्लजी की अपनी पूर्वाग्रहग्रस्त संकीर्ण साहित्यिक सोच रही होगी.
पिछले दिनों अंग्रेजी लेखिका जे. के. रॉलिंग की रचना `हैरी पॉटर - द हाफ ब्लड प्रिंस' के शोर-शराबे में इस शृंखला की एक-दो पुस्तकें नज़र से निकलीं तो मुझे बरबस `चंद्रकांता' कथा माला का ध्यान हो आया. शताधिक वर्ष पहले न कोई विज्ञापन-प्रचार न विक्रय-प्रबन्धन, खत्रीजी की रचनाएं बेची नहीं जाती थीं, बिकती थीं. वह रोज़ एक अंश लिखते, जो छपता और हाथों हाथ एक पैसा प्रति के हिसाब से बिक जाता. पुस्तक के रूप में आते ही पूरा का पूरा संस्करण चुक जाता. खत्रीजी हिन्दी के पहले विशुद्ध मसि जीवी लेखक थे. उनका आग्रह था कि उनकी रचनाएं केवल हिन्दी (नागरी) में ही छपें ताकि लोगों में इस भाषा का प्रचार हो. हुआ भी ऐसा ही. हज़ारों लोगों ने केवल `चंद्रकान्ता' पढ़ने के लिए हिन्दी सीखी. कितना उपकार है उनका इस भाषा पर कि एक `असाहित्यिक' रचना के कारण हिन्दी का एक बहुत बड़ा पाठक वर्ग अस्तित्व में आ गया, परवर्ती लेखकों को जिसका पूरा-पूरा लाभ मिला.
यह सही है कि देवकीनन्दन खत्री परिस्थितिवश, संयोग से साहित्यकार बने. वह तो जंगलात के ठेके लिया करते थे. कई छोटे-बड़े राजदरबारों में उनका अपने पिता के कारोबार के सिलसिले में आना-जाना था, जो दरबारोपयोगी वस्तुओं की आपूर्ति करते थे. बाद में उनके अपने सम्पर्क भी पनप गये. कितने ही राजे, राजकुमार, सामन्त, रईस उनकी मित्र-मण्डली में शामिल थे. उस वर्ग की चालों, साज़िशों, उठा-पटक को उन्होंने बड़े नज़दीक से देखा था. मित्रों के साथ ख़ूब घुमक्कड़ी होती. पूर्वी उत्तर प्रदेश और पश्र्चिमी बिहार के जंगलों के पत्ते-पत्ते से उनका परिचय था, किलों-खण्डहरों की इंर्ट-इंर्ट को वह पहचानते थे. ख़ूब मौजमस्ती में कट रही थी कि किसी बात पर नाराज़ होकर काशी नरेश ने उनके ठेके रद्द कर दिये. काम काज ठप्प हो गया. पल्ले का पैसा कुछ रईसी शौक़ों में तो कुछ घर ख़र्चे में चुक गया. बेकारी और कड़की में भी कभी चार यार मिल बैठते तो कुछ क़िस्से कहानियों और कुछ पुराने अनुभवों को दोहराने का दौर चल निकलता. ऐसे में अनायास एक कथा वक्ता का जन्म हो गया. संस्कार रूप में खत्रीजी को रामायण-महाभारत का अच्छा ज्ञान था. संस्कृत की कथा सरित्सागर, कादम्बरी, दशकुमार चरित, हितोपदेश-पंचतंत्र आदि कथा-रचनाओं की पढ़ी-सुनी अर्थात जानकारी थी. मनोविनोद के लिए पढ़ी फ़ारसी-उर्दू के अलिफ लैला, तिलस्म होशरूबा, क़िस्सा चार यार जैसी रचनाओं से भी परिचय था. इन सबमें से यथावश्यक कथा प्रसंग और कथानक रूढ़ियां ग्रहण कर खत्रीजी ने वर्तमान को अतीत के साथ जोड़ते हुए, उन्मुक्त कल्पना के सहारे अपने कथा संसार की रचना की. `चन्द्रकान्ता' शृंखला में लेखक के विविध अनुभवों और जानकारियों की अभिव्यक्ति है.
अट्ठाईस भागों और लगभग तीन हज़ार पृष्ठों में वर्णित `चन्द्रकान्ता' एवं `चन्द्रकान्ता सन्तति' का कथा-परिवेश पूर्णतया काल्पनिक, मध्यकालीन दरबारी सा है. वही राजे, राजकुमार, राजकुमारियां, कुचक्री दीवान, चतुर सेवक, उनके षड्यंत्र, घात-प्रतिघात, जादू-तिलस्म, ऐयारी-होशियारी का एक रोमांचक संसार। एक-दूसरे के मायाजाल को काटने और नया तिलस्म रचने का प्रयास। रहस्य और रोमांच से भरपूर इस रचना का कथानक सरपट भागता है परन्तु फिर भी नियंत्रित। यह देवकी नन्दन खत्री का कुशल वस्तु संयोजन है कि इतने विस्तृत कथानक में कहीं कोई बिखराव, दोहराव या अन्तर्विरोध नहीं. कार्य-कारण भाव की शृंखला संबंधी सम्पूर्ण कथा निरन्तर कौतूहल का सृजन और शमन करती हुई चलती है. एक सफल घटना प्रधान उपन्यास की यह अनिवार्यता है. रचना के बाद के भागों में रचनाकार की लेखनी में अधिक परिपक्वता आई है. अब कथा वक्ता की अपेक्षा उसका कथाकार का रूप सामने आता है. कहानी के साथ-साथ वह अपनी नैतिकता, आदर्शवादिता और सामाजिक चेतना को भी अभिव्यक्ति देता है. यह परवर्ती उपन्यास-रचना के लिए एक दिशा निर्देश है.
`चन्द्रकान्ता' से प्रभावित और प्रेरित होकर इस जैसे और कितने ही उपन्यास लिखे गये परन्तु कोई भी मूल रचना की ऊंचाइयों को नहीं छू सका. स्वयं खत्रीजी के अन्य उपन्यास भी उतने सफल एवं लोकप्रिय नहीं हुए.
`चन्द्रकान्ता' का प्रभाव हिन्दी सिनेमा पर भी बहुत पड़ा. जादू और तिलस्म की फ़िल्मों का एक पूरा दौर इस रचना पर आधारित रहा. कुछ समय पहले इसको लेकर एक आधा-अधूरा सा टी. वी. धारावाहिक भी बना था परन्तु उसमें मूल रचना के साथ न्याय नहीं हो पा रहा था. दर्शकों ने उसे नकार दिया.
यह इस कृति की कालजयता ही है जो रचना के सौ साल बाद भी लोगों का ध्यान आकर्षित करने में समर्थ है. इतना होते हुए भी, विषय-वस्तु, भाषा आदि को लेकर `चन्द्रकान्ता' पर आक्षेप आचार्य शुक्ल ही नहीं, उससे भी पहले, देवकी नन्दन खत्री के जीवन काल में ही लगने लगे थे. वह इससे अवगत थे. `सन्तति' के अन्त में वह लिखते हैं `कई मित्रों ने संवाद-पत्रों में इस विषय का आन्दोलन उठाया था कि इनके कथानक संभव हैं या असंभव?' उनका उत्तर था `जिस प्रकार पंचतंत्र, हितोपदेश आदि ग्रंथ बालकों की शिक्षा के लिए लिखे गये थे, उसी प्रकार यह लोगों के मनोविनोद के लिए, पर यह संभव है या असंभव? इस विषय में कोई यह समझे कि चन्द्रकान्ता और वीरेन्द्र सिंह आदि पात्र और उनके विचित्र स्थानादि सब ऐतिहासिक हैं तो बड़ी भूल होगी.' वह इसे पूर्णतया कल्पित मानते हुए कहते हैं `कल्पना का मैदान बहुत विस्तृत है और उसका यह एक छोटा-सा नमूना है.' विश्व का पौराणिक और धार्मिक साहित्य संभव हुई असंख्य असंभव चमत्कारी घटनाओं से भरा पड़ा है. यदि वे सच के रूप में स्वीकृत हो सकती हैं तो `चन्द्रकान्ता' के कथानक में भी संभव की संभावना खोजी जा सकती है. वस्तुत: इसे संभाव्य असंभावनाओं और विश्वसनीय अविश्वसनीयताओं का अनुस्यून कहा जा सकता है. स्वयं लेखक कहता है `कौन सी बात हो सकती है, कौन सी नहीं इसका विचार प्रत्येक मनुष्य की योग्यता और देश-काल, पात्र से सम्बन्ध रखता है. ...दो सौ वर्ष पहले जो बातें असंभव थीं आजकल विज्ञान के सहारे सब संभव हो रही हैं... और फिर यह भी कि साधारण लोगों की दृष्टि में जो असंभव है, कवियों की दृष्टि में भी वह असंभव ही रहे यह कोई नियम की बात नहीं.' ऐसा कहकर लेखक अपनी लेखकीय स्वतंत्रता के अधिकार का प्रतिपादन करता है.
`चन्द्रकान्ता' का आकर्षण उसका घटना वैचित्र्य है। घटनाओं के इस जमघट में पात्रों की चारित्रिक विविधता के लिए अधिक स्थान नहीं बचता तो भी उनके व्यक्तित्व की श्वेत-श्याम रेखाएं स्पष्ट झलकती हैं. समकालीन समाज के रीति-रिवाज, रूढ़ियों, मान्यताओं के निर्वाह के प्रति लेखक सजग है. वह अपनी रचना की सीमाओं को भी जानता है और यह भी जानता है कि यदि गंभीर लेखन किया होता तो उस जैसे `अप्रसिद्ध ग्रंथकार की पुस्तक को कौन पढ़ता?'
देवकी नन्दन खत्री कथा-शिल्पी थे, भाषा-शिल्पी नहीं, उनका लक्ष्य बोलचाल की भाषा में आम पाठकों तक अपनी बात पहुंचाना था. वह अपने पूर्ववर्ती प्रतिष्ठित लेखकों की भाषा से भी परिचित थे. उनका मानना है कि `उस समय हिन्दी के लेखक थे परन्तु ग्राहक नहीं थे. इस समय ग्राहक हैं (वैसे) लेखक नहीं हैं. समकालीन लेखकों के बारे में उनका आक्षेप है कि `इन्होंने हिन्दी के प्रचलित स्वरूप की ओर अधिक ध्यान नहीं दया.' उनका अपना आदर्श राजा शिवप्रसाद सिंह थे जिनके बारे में उनकी मान्यता है `जिस ढंग की हिन्दी वह लिख गये उसी से वर्तमान में हिन्दी का रास्ता कुछ साफ हुआ.' खत्रीजी की ऐसी भाषा की आलोचना करते हुए आचार्य शुक्ल का कथन है `उन्होंने साहित्यिक हिन्दी न लिखकर `हिन्दुस्तानी' लिखी जो केवल इसी प्रकार की हल्की रचनाओं में काम दे सकती है.' ऐसे आक्षेप उन पर अपने समय में भी लगे परन्तु वह अपनी धारणा पर अटल रहे. अपनी बात की पुष्टि में में उनके पास एक सशक्त तर्क है `कुछ विदेशी शब्दों के प्रयोग से ही कोई देववाणी संस्कृत के शब्दों का विरोध नहीं हो जाता. गोस्वामी तुलसीदास तक की भाषा में ऐसे शब्दों का प्रयोग मिलेगा. यह आठ सौ बरस तक उन भाषाओं के सम्पर्क में रहने का परिणाम है. उनका यह भी मानना है कि यदि राजा शिवप्रसादी हिन्दी प्रकट न होती तो सरकारी पाठशालाओं में हिन्दी के चन्द्रमा की चांदनी मुश्किल से पहुंचती. ...बाबू हरिश्र्चन्द्र जैसे लेखकों ने सरल भाषा में लिखा होता तो उनके पाठक अधिक होते और स्वाभाविक शब्दों के मेल से हिन्दी की पैसेंजर भी मेल बन जाती.' उनकी इस बात में भी दम है कि `किसी दार्शनिक ग्रंथ की या पात्र की भाषा के लिए यदि किसी बड़े कोश को टटोलना पड़े तो कोई परवाह नहीं, परन्तु साधारण विषयों की भाषा के लिए भी कोश की खोज करनी पड़े तो नि:संदेह दोष की बात है. मेरी हिन्दी किस श्रेणी की हिन्दी है इसका निर्धारण मैं नहीं करता, परन्तु यह जानता हूं इसके पढ़ने के लिए कोश की तलाश करनी नहीं पड़ती.'
वस्तु स्थिति यह है कि उस समय तक खड़ी बोली हिन्दी गद्य का कोई एक रूप निर्धारित नहीं हुआ था. भारतेन्दु और उनकी मण्डली का गद्य राजा लक्ष्मण प्रसाद का गद्य, राजा शिवप्रसाद का गद्य इत्यादि, इन सबमें संरचनागत बहुत अंतर है. किसी भटकाव में न फंसते हुए खत्रीजी ने अपना मार्ग स्वयं चुना. उन्होंने केवल भाषा की सम्प्रेषणीयता पर ध्यान दिया.
वस्तुत: देवकीनन्द खत्री को यह अनुमान नहीं था कि उनकी रचनाओं को इतनी लोकप्रियता मिलेगी. इसीलिए उन्होंने बोलचाल की सरलतम भाषा का प्रयोग किया क्योंकि वह अर्द्धशिक्षित असाहित्यिक पाठकों को लक्षित करके लिख रहे थे. परन्तु उन्हें जब विश्वास हो गया कि उनके विशाल पाठकवर्ग में सुशिक्षित और सुरुचि सम्पन्न लोग भी सम्मिलित हो रहे हैं तो वह विषय और भाषा दोनों के प्रति अधिक सतर्क हो गये. उनके परवर्ती लेखन में उत्तरोत्तर विकास दिखाई पड़ता है. अब वह पात्रों के व्यक्तित्व, व्यवहार और सामाजिक परिवेश की ओर भी सजग दिखायी पड़ते हैं. यह बदलाव बहुत धीमा है. लेखक की स्वीकारोक्ति है `चन्द्रकान्ता' और `सन्तति' में यद्यपि इस बात का पता नहीं लगेगा कि कब और कहां भाषा का परिवर्तन हो गया, परन्तु उसे आरम्भ और अन्त में आप ठीक वैसा ही परिवर्तन पायेंगे जैसा बाल और वृद्ध में.' फिर भी उनका आग्रह भाषा की अपेक्षा लिपि के प्रति अधिक था, क्योंकि जिस भाषा के अक्षर होते हैं, उनका खिंचाव उन्हीं मूल भाषाओं की ओर होता है जिससे उनकी उत्पत्ति हुई है.
भाषा के स्वरूप को लेकर उठाए गए ये मुद्दे आज भी प्रासंगिक हैं. हिन्दी के वर्तमान शैलीगत वैविध्य को उसका बहुआयामी विकास माना जाये या एकरूपता और टकसालीपन का अभाव? हमें शायद उसकी प्रेषणीयता को ही अधिमान देना होगा. `चन्द्रकान्ता' के संदर्भ में यह बात और भी स्पष्ट हो जाती है. साथ में हमें यह भी ध्यान में रखना होगा कि यह एक भाषा और विधा के रूपायणकाल की रचना है. यह दिशा खोज भी रही है और दिखा भी रही है.
रचना के ऐतिहासिक महत्त्व की ओर संकेत करते हुए खत्रीजी का कहना है `कथा सरित्सागर के समान `चन्द्रकान्ता' बतलावेगी कि एक वह भी समय था जब इस प्रकार के ग्रंथों से ही वीर प्रसु भारत भूमि की संतान का मनोविनोद होता था.' वर्तमान समय में भी `हैरी पॉटर' जैसी रचनाओं का पाठक `चन्द्रकान्ता', `सन्तति' को अधिक कौतूहलपूर्ण, रोमांचक, रोचक और पठनीय पायेगा.
(रचना तथा रचनाकार संबंधी सभी संदर्भ `देवकी नन्दन खत्री समग्र, प्रकाशक- हिन्दी प्रचारक संस्थान, वाराणसी से लिये गये हैं.)
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