*** भारतेन्दुयुगीन आलोचना



लोचना की शुरूआत भारतेन्दु से मानी जाती है तो बालकृष्ण भट्ट से और प्रेमघन से भी. ‘‘साधारणतः हिन्दी-विद्वानों की यह धारणा बनी हुई है कि प्रेमघनजी ही हिन्दी के सर्वप्रथम समालोचक हैं.’’1 इसके अलावा वैचारिक घालमेल भी है. जिसमें एक तरफ तो यह कहा जाता है कि, ‘‘भारतेन्दु बाबू हरिश्चंद्र आधुनिक युग के सर्वप्रथम आलोचक हैं.’’ दूसरी तरफ सोच समझ से मुक्त यह भी कहा जाता है कि ‘‘आधुनिक हिन्दी आलोचना का सूत्रपात भारतेन्दुयुग में उपाध्याय पं. बदरीनारायण चैधरी प्रेमघन ने किया.’’2 भारतेन्दुयुग में आलोचना की शुरूआत किसने की उससे ज़्यादा महत्त्वपूर्ण है यह जानना कि आलोचना का आरंभिक और विकासात्मक स्वरूप क्या रहा.

            आरंभिक काल में पत्र-पत्रिकाओं की सम्पादकीय टिप्पणियों, प्राप्ति स्वीकारों और यदाकदा सम्पादक के नाम पत्रों के ही रूप में आलोचना दिखाई पड़ती है. लेकिन धीरे-धीरे यह स्वरूप बदलता है. पुस्तक-परिचय वाली शैली ही समसामयिक पुस्तकों की विस्तृत आलोचनाओं के रूप में विकसित होती है. आनंद-कादम्बिनी की संयोगिता-स्वयंवर और बंग-विजेता तथा हिन्दी प्रदीप की सच्ची समालोचना इसी शैली के प्रौढ़ उदाहरण हैं. इसमें पुस्तक परिचय का हल्कापन नहीं है. इनमें सत् साहित्य को प्रोत्साहन और असत् के बहिष्कार की सदिच्छा ही प्रधान है, इसलिए ये समीक्षाएँ गंभीर और विश्लेषणात्मक है.3

*** भारतेन्दुयुग : अंतर्जातीय सम्पर्क एवं सांस्कृतिक अस्मिता

‘‘अहै इहाँ पर तीन मत, हिन्दू यवन क्रिस्तान
भारत की शुभ देह में, तीनिहुँ अस्थि समान।’’
......................................................(प्रतापनारायण मिश्र)
भारत के शरीर में हिन्दू, मुस्लिम और ईसाइ अस्थि के समान है। यह उपमा बताती है कि अपने तमाम धार्मिक मतवादों व कट्टरताओं के बावजूद वृहद् राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में इनके चिंतन की दिशा क्या थी।

वीरभारत तलवार ने हिन्दी नवजागरण के लेखकों में मुस्लिम विरोधी तत्वों को उभारते हुए उन्हें हिन्दू नवजागरण का लेखक सिद्ध किया। जन चेतना के लेखक ‘धार्मिक नेता’ कहलाये। उन्होंने बताया कि मुसलमानों के सांस्कृतिक और प्रशासनिक वर्चस्व से लड़ने के लिए जिन तीन मुद्दों को इन लेखकों ने उठाया वे हैं- हिन्दी भाषा आंदोलन, नागरी लिपि आंदोलन और गोरक्षा आंदोलन। और निष्कर्षतः बताया कि भाषा, लिपि और गाय का राजनीतिक इस्तेमाल कर किस तरह इन हिन्दू भद्रवर्गीय लेखकों ने साम्प्रदायिकता को सींचा, जिसका परिणाम वर्तमान साम्प्रदायिक उन्माद है।1

इन लेखकों के यहाँ मुसलमानों का ही नहीं ईसाइयों का भी विरोध है जिसे तलवार नज़रअंदाज करते हैं। और यह विरोध करने वाला मानस हमेशा ‘हिन्दू’ नहीं होता था। क्योंकि यही मानस हिन्दू मतावलम्बियों व धर्म परम्पराओं की विकृतियों का भी विरोध करता था। इन दोनों विरोध भावों को जो दिमाग़ संचालित करता था वह था शिक्षित भद्रवर्गीय दिमाग़। जो विरोधों की कसौटी के लिए धर्म नहीं देश हित को अपनाता है। भद्रवर्गीय लोग धर्म के प्रति जिस तरह का सुविधाजनक रवैया अपनाते हैं वही रवैया इन लोगों ने भी अपनाया। धर्म समाज में व्याप्त सच्चाई है। देशहित में धर्म की भूमिका तय करना ऐतिहासिक ज़रूरत और मजबूरी थी। इसीलिए उनकी ‘देशोन्नति की धारणा’ में देखा जाना चाहिए कि कैसे धर्म देश के लिए ज़रूरी है भी और नहीं भी, साथ ही देशहित की कसौटी पर कैसे धर्म से मुक्ति की छटपटाहट है। धारणाओं की समग्र दृष्टि और चिंतन का सम्पूर्ण परिप्रेक्ष्य अस्मिता बोध पर केन्द्रित है, इसे याद रखना चाहिए।

किसी भी तरह की अस्मिता बग़ैर ‘अदर्स’ (अन्य) के उत्पन्न ही नहीं हो सकती। उसकी पहचान ही ‘अदर्स’ के बरक्स होती है। ऐसे में इस अदर्स के प्रति उसका रवैया आग्रहों से मुक्त नहीं हो सकता। यह आग्रह हमेशा श्रेष्ठता बोध का होता है। यह प्रक्रिया दो चरणों में घटित होती है। एक, अदर्स का विरोध कर; दूसरी, ‘सेल्फ’ की स्थापना कर। जब अस्मिता की यह लड़ाई धर्म के आधार पर लड़ी जाती है तब वह साम्प्रदायिक रूप ले लेती है। 19वीं शताब्दी का हिन्दी नवजागरण अपने ‘स्वत्व’ को गढ़ रहा था। ‘स्वत्व निज भारत गहै’, इसमें परम्परा, इतिहास और भविष्य की चेतना तीनों की भूमिका थी। इस ‘स्वत्व’ के लिए अदर्स तो थे अंग्रेज, लेकिन इसे गढ़ने की प्रक्रिया में परम्परा और इतिहास के दबाव ने एक और ‘अदर’(अन्य) पैदा किया और वह है ‘मुसलमान’। यह ज़मीन ज्यादा उर्वर थी। हालाँकि ऐसे में भविष्य की चेतना भी एकरैखिक नहीं हो सकती थी। फिर भी भविष्य की जो चेतना धार्मिक दृष्टिकोण से तय हो रही थी उसके अनुसार-‘‘हम हिन्दू हैं और यह देश हमारा स्थान है। यह भारत है और हम यहाँ के मुख्य निवासी हैं। दूसरे लोग केवल गौण रीति से भारतीय कहलावें पर मुख्य भारतीय हमीं हैं।’’2 और भविष्य की जो चेतना आर्थिक और राजनीतिक संबंधों व उसके महत्वों के आधार पर बन रही थी, उसके अनुसार-‘धन्य भाग उस स्थान के जहाँ अनेक धर्म के लोग एक मत के हों।’ साथ ही -‘‘हिन्दू मुसलमान दोनों भारतमाता के हाथ हैं। न इनका उनके बिना निबाह है न उनका इनकेे बिना। अतः सामाजिक नियमों में एक दूसरे के सहायक हों। इसमें दोनों का कल्याण है। कोई दहिने हाथ से बायाँ हाथ अथवा बाएँ हाथ से दहिना हाथ काट के सुखी नहीं रह सकता।’’3 इस समझ ने हिन्दू और मुसलमानों को ‘एक’ करना शुरू किया। इसी से भारत का स्वत्व पहचाना गया और राष्ट्रवाद की शुरूआत हुई। भारतेन्दुयुगीन अस्मिता-बोध सांस्कृतिक परिस्थितियों से अटूट रूप से जुड़ा हुआ है। विविधता और विकास की यह प्रक्रिया इनसे मुक्त नहीं था।

सांस्कृतिक और अस्मिताओं के जुड़ाव को अंतर्जातीय सम्पर्कों के व्यतिरेक में देखना चाहिए। भारतेन्दुयुगीन साहित्य में अंतर्जातीय सम्पर्क के दो रूप दिखायी पड़ते हैं। एक, भारत की भौगोलिक सीमा से परे; दूसरा, भौगोलिक सीमा के भीतर। भौगोलिक सीमा से परे जो सम्पर्क हैं वह मुख्यतः यूरोपीय देशों, अमरीका, जापान, चीन आदि देशों के सम्पर्क से आनेवाली नयी चेतना व ज्ञान-विज्ञान के संदर्भों में आता है। गदाधर सिंह ने ‘चीन में तेरह मास’ शीर्षक पुस्तक लिखी। राधाचरण गोस्वामी ने ज़ार रूस पर लेख लिखा। दोनों में ही साम्राज्यवादी कुकृत्यों की आलोचना की गई है। तथाकथित सभ्य देशों की असभ्यता को दिखाकर राष्ट्रीय अस्मिता को मजबूती प्रदान की गई।

बाहरी सम्पर्क से प्राप्त जानकारियों को स्वीकारात्मक और प्रतिक्रियात्मक जैसे दो तरह के रवैये में देखा जा सकता है। स्वीकारात्मकता सामान्य रूप से ज्ञान और सोच के धरातल पर है। बालकृष्ण भट्ट ने लिखा-‘‘यूरोप के देशों की जो इतनी उन्नति है तथा अमेरिका जापान आदि जो इस समय मनुष्य जाति के सिरताज हो रहे हैं इसका यही कारण है कि उन-उन देशों में लोग अपने भरोसे पर रहना या कोई काम करना अच्छी तरह जानते हैं। हिन्दुस्तान का जो सत्यानाश है इसका यही कारण है कि यहाँ के लोग अपने भरोसे पर रहना भूल ही गए।’’4 यहाँ भट्टजी केवल अंग्रेजों के भरोसे बैठे रहनेवाले राष्ट्रवादियों की आलोचना ही नहीं करते, बल्कि अंतर्जातीय सम्पर्क से ‘आत्मनिर्भरता’ का सबक लेते हैं और जाॅन स्टुअर्ट मिल को उद्धृत करते हुए कहते हैं-‘‘समाज को जीर्ण और छिन्न-भिन्न करनेवाले खान-पान के अनेक ढकोसले अब नहीं चल सकते। नयी उमंग की नूतन सभ्यता में प्रवेश पायी हुई हमारी या आपकी संतान सब एकामयी कर डालेंगी। मुसलमान, पारसी, अंग्रेज, हिन्दू खुलाखुली एक साथ बैठे खाद्य-अखाद्य सब कुछ खायेंगे।’’5 अंतर्जातीय सम्पर्क से समाज एक नए सांस्कृतिक गठन की ओर अग्रसर है, भट्टजी इसे पहचान गए थे। मुल्क की तरक्की के लिए ऐसे कई और सकारात्मक परिवर्तनों की ज़रूरत वे महसूस करते हैं। भट्टजी ने लिखा-‘‘फ्रांस और इंगलैंड सरीखे देशोें में एक साधारण कुली और किसान भी पैट्रियट होने का पूरा अभिमान रखता है। मुल्की इंतजाम और राजनीति के भांत-भांत के काट ब्योंत और तेचपेच समझना तो उसके लिए कुछ बड़ी बात नहीं है। ...हमारे यहाँ अच्छे-अच्छे कुलीन और प्रतिष्ठित राजा बाबू भी सिवाय खाने और सोने और देह को आराम में रखने के कुछ और जानते ही नहीं।’’6 आगे उन्होंने कहा-‘‘एक वह कौम है कि साधारण सी सुई और दियासलाई के कारखाने वाले करोड़पति हैं; साल में लाखों कमाते हैं। ऐसे हजारों किस्म के कारखाने इंगलैंड, जर्मनी, फ्रांस और बेल्जियम वालों के हैं ...वहीं हम हैं जिन्हें लड़की-लड़कों के ब्याह से इतनी फुर्सत नहीं मिलती कि दूसरा काम करें।’’7 यहाँ परिवर्तन और विकास की उम्मीद बेशक देशी पूँजीपति वर्ग से लगायी गयी है, लेकिन प्रक्रिया की समझ अंतर्जातीय सम्पर्क का ही परिणाम है। जो समसामयिकता की समझ और देशहित के नियामक तत्वों की पहचान संभव करता है, साथ ही आर्थिक और राजनीतिक चेतना के निर्माण में भी मुख्य भूमिका अदा करता है। स्वदेशी के आग्रहों के बावजूद वे कहते हैं कि ‘‘जैसा जर्मनी वाले हमारे यहाँ के दर्शन और वेदों का प्रचार अपने देश में बहुतायत से कर रहे हैं वैसा ही हम उनके यहाँ के विज्ञान को अपने देश में फैलाने का यत्न करें।’’8 अंतर्राष्ट्रीय सम्पर्क से अर्जित इस ज्ञान का स्वीकार क़ौमी ज़रूरतों के मुताबिक है। यही वह आधार भी है जिसके आधार पर प्रतिक्रिया भी उभरती है।

उन नयी रोशनीवालों को जो हर ‘पुरानी बातों और पुराने ख़याल से घिन्न’ करता हो, केवल जोश और तेज मिजाज़ी ही जिसकी तबियत हो और यहाँ तक कि ‘वाइन’ को ‘सब सभ्यता का सार’ कहता हो भट्टजी अस्वीकार्य समझते हैं। अंतर्जातीय सम्पर्क का यह असर आलोच्य है। भारतेन्दु ने भी अपने ‘तदीय समाज’ के माध्यम से और अपने रचनात्मक साहित्य में भी मदिरापान का सख़्त विरोध किया है।

अंग्रेजों के सम्पर्क से स्त्रियों के बारे में एकबारगी जो नये विचार आये उसके प्रति अधिक प्रतिक्रिया हुई और नयी रोशनी वालों की आलोचना की गई। भारतेन्दु ने अपनी ‘नीलदेवी’ की भूमिका में साफ कहा कि ‘‘यह शंका किसी को न हो कि मैं स्वप्न में भी यह इच्छा करता हूँ कि इन गौरांगी युवती समूह की भांति हमारी कुललक्ष्मी गणा भी लज्जा को तिलांजलि देकर अपने पति के साथ घूमैं।’’9 प्रेमघन की ‘गुप्त गोष्ठी गाथा’ में भी एक मित्र (जिसकी अंग्रेज पत्नी होती है) की बीवी को कोई अपने घर में नहीं आने देना चाहता क्योंकि वह घरेलू स्त्रियों को आज़ादी का पाठ पढ़ाने लगती हैं। भट्टजी ने नयी रोशनीवाली इस सभ्यता पर व्यंग्य करते हुए लिखा-‘‘फ्रीडम, अर्थात् स्त्री और पुरुष दोनों परस्पर स्वतंत्र और निरपेक्ष बल्कि साहब और मेम दोनों की स्वतंत्रता तराजू पर तौलने से मेम साहब की आजादी का पलरा झुका हो। एक उम्दा नमूना सभ्यता का यह भी है कि मेम साहब एक दिन भी रंडापे का दुःख न उठाने पावे। मियाँ इधर कब्र में पहुँचे बीवी साहिबा के लिए दूसरा तैयार।’’10

इस अंतर्जातीय सम्पर्क ने नया अंग्रेजी दाॅ मध्यवर्ग तैयार किया। जो अंग्रेजों के रंग-ढंग से लबरेज है। प्रतापनारायण मिश्र ने इसकी भरपूर आलोचना की है। राधाचरण गोस्वामी ने ‘मिस्टर बूट’ नामक निबंध में उसकी खूब ख़बर ली है। प्रेमघन के ‘गुप्त गोष्ठी गाथा’ में उनके एक मित्र का उल्लेख आता है। नाम है- ज्योतिधारी मिस्टर निशाकरधर बैरिस्टर-एटाल, जो विलायत जाकर, सुहावनी सभ्यता लख, होटल में खा, भाँति-भाँति के आनंद उपयोगकर बैरिस्टर बन एक मेम से सगाई कर लौटे, और अपने देसी दोस्तों को कहते हैं-‘‘तुम लोग अभी जैंटिलमैन से ट्रीट करना बिल्कुल नहीं जानता। पान खाना तो जंगलीपन है, हमलोग तो चुरट पीता है।’’11

इसके अतिरिक्त ‘ईश्वर के अस्तित्व तक में संदेह’ भी नयी रोशनीवालों के प्रति प्रतिक्रिया का कारण बना। इस युग के लगभग सारे रचनाकार मूर्तिपूजा के समर्थक थे। ऐसे में पश्चिमी विचारों की नास्तिकता, तत्जन्य स्वतंत्र व उच्छृंखल व्यवहार उनके लिए अस्वीकार्य था। अधिकांश प्रतिक्रिया, व्यवहार और आचरण के स्तर पर है जो सीधे संस्कृति और परम्परा की मूल मान्यताओं के विरूद्ध जाता देखकर होती थी। कई बार उसका कोई देश हितात्मक रूप नहीं दिखाई देता था। इस प्रतिक्रियात्मकता को मध्यकालीन मानस की आधुनिकता से टकराहट के रूप में भी देखा जा सकता है, खासकर व्यक्ति स्वातंत्र्य के धरातल पर। लेकिन परम्परा और आधुनिकता का संबंध बहुत ही स्पष्ट व्याख्यायित संबंध नहीं है। आधुनिकता में परम्परा का अंधविरोध नहीं बल्कि सशर्त स्वीकार है। यह शर्त मानवता के मूल उद्देश्य से जुड़े महाख्यानों के अनुसार लगाये जाते थे। नवजागरण कालीन लेखक भी परम्परा चाहे वह धार्मिकता के अर्थ में ही क्यों न हो, अधिकतर सशर्त ही स्वीकार करते हैं। यदि उसकी यथास्थिति का समर्थन भी करते हैं तो उसका आधुनिक अथवा गैरआधुनिक मानवतावादी विश्लेषण उनके पास होता है। लेकिन यह प्रक्रिया बड़ी जटिल होती है जिसमें मध्यकालीन रूढ़िवादी मानसिकता और आधुनिक तर्क-विवेक का द्वन्द्व न केवल तीखा, बल्कि चोर-सिपाही के खेल की तरह एक दूसरे पर हावी होता रहता है।

अंतर्जातीय सम्पर्क ने दो काम किये। एक ओर ज्ञान के नये द्वार खोले तो दूसरी ओर सभ्यता और संस्कृति का सार्वभौमिक चरित्र और उसकी विविधता समझ में आयी। साथ ही, यदि भारतेन्दु के शब्दों में कहें तो-‘यह भी पता चला कि दोनों एक ही जैसे हैं फिर भी वे राजा और हम प्रजा क्यों हैं ?’ साथ ही कुछ ऐसे लोग भी उभरे जिनमें ‘साहब’ बनने की होड़ लग गयी। जो आखि़रकार कहीं के न रहे। न अंग्रेज ही हो पाये, न भारतीय रहे। यह कहीं का न रहना उस अस्मिता से च्युत हो जाना है जो परम्परा, संस्कृति और जातीयता के सम्मिलित बोध का परिणाम है।

भौगोलिक सीमा के भीतर अंतर्जातीय सम्पर्क मुख्यतः हिन्दू, मुसलमान और ईसाइ इन तीनों धार्मिक समुदायों के बीच के अंतःसम्बन्धों में अभिव्यक्त होता है। जहाँ विरोध और सामंजस्य की खींचतान दिखलायी पड़ती है। अन्य भाषा-भाषी जातियों के बीच (जैसे बंगाली, मराठी, पंजाबी आदि) सम्पर्क अधिकतर विचार के धरातल पर है व्यवहार के धरातल पर बहुत कम। जबकि धार्मिक समुदायों के बीच दोनों रूप देखे जा सकते हैं पर व्यवहार की कसौटी अधिक लागू होती है।

जब धर्म की कसौटी लागू करते हैं तो ‘हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान’ के रूप में राष्ट्र और भाषा को धार्मिक अस्मिता का आधार देते हैं, जो काफी हद तक साम्प्रदायिक लगता है। लेकिन विकास इसका नहीं होता। विकास उस व्यावहारिक दृष्टि का होता है जो मनुष्य को धर्म के आधार पर न पहचान कर साधारण और विशेष के रूप में पहचानता है। जिसके अनुसार-‘‘साधारण समुदाय के लोग जिनका बल, विद्या, धन, मान आदि सर्वसाधारण से अधिक नहीं होता पर संख्या तीन चैथाई से भी कुछ अधिक ही होती है। इससे वही देश के अस्थि माँस कहलाते हैं, बरंच उन्हीं का नाम देश है और उन्हीं की दशा देश की दशा कहलाती है।’’12 स्पष्ट है, नवजागरण में जो ‘मुट्ठीभर द्विजों का हिन्दूत्व’ था वह टूट रहा था और सर्वसाधारण का हस्तक्षेप बढ़ रहा था। चेतना व वैचारिकी इस दिशा में विकसित हो रही थी।

इन लेखकों ने मुस्लिम वर्चस्व का खूब विरोध किया। मुख्यतः विचारों के आधार पर। इसके पीछे उनका धर्ममूलक इतिहास-बोध ज़िम्मेदार है, जो साम्राज्यवादी नीतियों का परिणाम था। लेकिन व्यावहारिक जीवन और राष्ट्रीय हित अथवा राष्ट्र का भविष्य इस विरोध भाव से तय नहीं होता है। इन सभी लेखकों के दर्जनों ऐसे निबंध हैं जिनमें हिन्दू अथवा मुसलमान शब्द तक का प्रयोग नहीं है। समस्याओं और विचारों को हमेशा हिन्दू-मुस्लिम के खाँचे में देखना नवजागरण के लेखकों की विशेषता नहीं है।

ऊँच और नीच की कसौटी भी जाति अथवा धार्मिक पहचान नहीं है। निबंध ‘नीचपन क्या है’ में भट्टजी ने ‘रुपये’ को इसकी कसौटी माना और कहा-‘‘जिसने रुपये को लात मार बात और प्रतिष्ठा का आदर किया ऊँचों से भी ऊँचा है और जिसने रुपये के पीछे सब कुछ गंवाय एक उसी को सिद्ध किया उसके बराबर नीच से नीचा भी कोई नहीं।’’13 भट्टजी के ‘दुर्भिक्ष दलित भारत’ में भारत के दुर्भिक्ष को भी अंग्रेज सरकार की लूट बताया गया है, मुसलमान यहाँ भी नहीं है। अपने ‘पसंद’ शीर्षक निबंध में भट्टजी ने पसंद को उसकी विशेषताओं के आधार पर दो खण्डों में बाँटा-‘अंग्रेजी पसंद और हिन्दुस्तानी पसंद।’ यहाँ हिन्दू पसंद अथवा मुस्लिम पसंद का ज़िक्र तक नहीं है। हिन्दुस्तान की संकल्पना में हिन्दू-मुस्लिम का भेद नहीं है। दरअसल उपनिवेश विरोधी राष्ट्रवाद की दृष्टि ने पूरी वैचारिकता को क्रांतिकारी रूझान दिया। हिन्दू और मुसलमानों के संबंध नये तरीके से परिभाषित होने लगे। प्रतापनारायण मिश्र ने लिखा-‘‘जितना दारिद्रय मुसलमानों के सात सौ वर्ष के शासन के द्वारा फैला था, उससे अधिक इस नीतिमय राज्य में विस्तृत है। ....इस राज्य में सौ ही वर्ष के बीच यह दशा हो गयी है कि देश भर में चैथाई से अधिक जन केवल एक बेर खा पाते हैं, सो भी पेट भर नहीं।’’14 इतिहास के शत्रु उनके लिए परेशानी नहीं हैं, वे इतिहास की भूल सुधारने के बजाय वर्तमान शत्रु और चुनौतियों को पहचानते हैं, जिससे संघर्ष के लिए हिन्दू और मुसलमानों की एकता ज़रूरी है। बेशक हिन्दू अस्मिता का बोध है और वह मुसलमानों व ईसाइयों के सापेक्ष ही परिभाषित हो रही है, लेकिन मुस्लिम विरोध का रंग उतना साम्प्रदायिक नहीं है जितना वीरभारत तलवार दिखाते हैं। शंकराचार्य और गुरूनानक की तुलना करते हुए बालकृष्ण भट्ट ने नानक की प्रशंसा की और कहा-‘‘गुरु नान्हिक ने जाति-पांति को फूट की बुनियाद समझ वर्ण-विवेक को यहाँ तक घटाया कि हिन्दू-मुसलमान दोनों को एक कर दिया।’’15 इसी का परिणाम है कि पंजाब आगे को बढ़ रहा है। बंगाल में चैतन्य महाप्रभु की भी यही भूमिका वे देखते हैं। अर्थात्, अस्मिता-बोध का हिन्दू स्वरूप परम्परागत मानसिकता की उपज है परन्तु धार्मिक एकता वर्तमान की ठोस ज़रूरत। यह ज़रूरत धार्मिक कट्टरता से दूर नहीं हो सकती थी। इसकी पहचान ही आधुनिक चेतना है।

प्रतापनारायण मिश्र ने तो अपने निबंध ‘हम राजभक्त हैं’ में हिन्दू और मुसलमान दोनों की तरफ से राजभक्ति को ‘सनातन धर्म’ सिद्ध किया है। 1875 के बलवे में भी ‘प्रतिष्ठित हिन्दू-मुसलमानों का दोष न था।’ रही बात राजभक्ति को वह संदेह से परे है-‘‘शरीफ हिन्दू, मुसलमानों से ऐसा संदेह करना दूरदर्शिता की हत्या लेना है।’’16 अपनी दरबारी मानसिकता में भी दोनों को साथ रखा। मिश्रजी साम्प्रदायिकता के कारणों को पहचानते थे और उसके विरोधी थे। उन्होंने लिखा-‘‘यदि ऐसा होता कि आर्यसमाजियों में आर्य, सनातनधर्मियों में पंडित महाराज, मुसलमानों में मुल्ला जी, ईसाइयों में पादरी साहब इत्यादि ही उपदेश करते तब कोई हानि न थी, बरंच यह लाभ होता कि प्रत्येक मत के लोग अपने-अपने धर्म में दृढ़ हो जाते। सो न करके एक मत का मनुष्य दूसरे सम्प्रदायियों में जाके शांति भंग करता है। यही बड़ी खराबी है क्योंकि विश्वास हमारे और ईश्वर के बीच निज संबंध है।’’17 विश्वास निजी मामला है, दूसरे के विश्वास में दख़ल से सारी खराबी है। साम्प्रदायिकता इसी से पैदा होती है। इसीलिए मिश्रजी कहते हैं-‘‘किसी मत का खंडन-मंडन वा किसी के धर्मग्रन्थ तथा आचार्यादि मान्य पुरुषों और मंदिरादि श्रद्धेय पदार्थों का अनादर करना महा नीचता है ...आपस में वैमनस्य बढ़ने के अतिरिक्त और कोई फल नहीं प्राप्त होता।’’18 यह नितांत आधुनिक रवैया है। इसके पीछे तर्क की आधुनिक प्रणाली सक्रिय है जो कहती है-‘‘यदि वेद, बाइबिल, कुरानादि की एक प्रति अग्नि तथा जल में डाल दी जाय तो जलने अथवा गलने में कोई बच न जायेगी। फिर एक मतवाला किस शेखी पर अपने को अच्छा और दूसरे को बुरा समझता है।’’19 इन विचारों के वाहक लेखक को साम्प्रदायिक कहनेवालों की समझ पर प्रश्नचिह्न लगाना चाहिए।

यही स्थिति ईसाइयत के विरोध व सामंजस्य की भी है। अक्सर औपनिवेशिकता के विरोध के रूप में यह उभरती है। ब्रिटिश सत्ता ईसाइ मशीनरियों को आर्थिक मदद देती थी। ये मिशनरियाँ गरीबों की सहायता कर उनका धर्म परिवर्तन करती थी साथ ही भारतीय रूढ़िवाद के विरोध के नामपर पूरी परम्परा और संस्कृति की आलोचना किया करती थी। इनके जीवन व्यवहार और शैली की उन्मुक्तता भी उन कारणों में हुई जिसके लिए ईसाइयों की आलोचना की गई। लेकिन यह भी अंध या साम्प्रदायिक विरोध नहीं है। प्रतापनारायण मिश्र ने लिखा-‘‘चित्त से मसीह को प्रतिष्ठा न करना हमारी समझ में अन्याय है और पादरियों की चिकनी चुपड़ी बातों में आके उनका गुलाम बन जाना भी आत्म हिंसा है।’’20 भारतेन्दुयुगीन लेखकों का धर्म के सारतत्व व उनके प्रतिपादकों से कोई विरोध नहीं रहा है। भारतेन्दु ने भी ‘पंचपवित्रात्मा’ लिखा है। इनका विरोध उन लोगों से है जो मतों के आधार पर राजनीति और धंधा करते हैं। ये उन क्रिश्चियन्स का विरोध करते हैं जो ईसा के ‘उत्तम उपदेशों’ पर न चलकर ‘ऊपरी चाल ढाल’ में धार्मिकता समझते हैं। इनके प्रति सामान्यीकृत हिकारत नहीं है। यदि ऐसा होता तो शुभ देह में तीसरे अस्थि ‘क्रिस्तान’ नहीं होते।

वीरभारत तलवार ने लिखा-‘‘बिहार में हिन्दू-मुस्लिम भद्रवर्ग के बीच सांस्कृतिक संबंधों में वैसी कटुता नहीं दिखाई देती जो पश्चिमोत्तर प्रांत में थी।’’21 यह बात ठीक है कि हिन्दू-मुस्लिम संबंध देश के हर हिस्सों में अलग-अलग तरह के थे। बिहार में अलग, बंगाल में अलग और पश्चिमोत्तर प्रांत में अलग। लेकिन पश्चिमोत्तर प्रांत में जिस ‘कटुता’ की बात कही है वह वैसी ही नहीं थी। दरअसल तलवार के इस कथन के पीछे गोरक्षा आंदोलन और हिन्दी भाषा व लिपि संबंधी आंदोलन में मौजूद हिन्दू स्वर है। इस हिन्दू स्वर की व्याख्या उन्होंने व्यापक संदर्भों से काट कर की है।

गोरक्षा आंदोलन को मुसलमानों के विरूद्ध गोलबंद होने की राजनीति कहा गया। धर्म के आधार पर राजनीतिक एकता लाने की कोशिश तो दिखती है, जो पश्चिमोत्तर प्रांत की सामाजिक-सांस्कृतिक वैशिष्ट्य को देखते हुए ज़रूरी भी कही जा सकती है, पर यह गोलबंदी खुद को मज़बूत और प्रभावी बनाने की थी। इसे हिन्दुओं के प्रभावशाली होने से हिन्दुस्तानियों के प्रभावशाली होने तक का सफ़र तय करना था। हिन्दुस्तानियों के प्रभावशाली होने का अर्थ अंग्रेजों के विरूद्ध राजनीतिक स्वाधीनता अर्जित करना था, न कि मुसलमानों को बाहर खदेड़ना। क्योंकि अपने तमाम मुसलमान विरोधी विचारों के बावजूद इन हिन्दी लेखकों में मुसलमानों को बाहर खदेड़ने की संकल्पना नहीं दिखती है। भारतेन्दु तो अपने अंतिम दिनों में इन्हें एक होने की बात कह ही गए थे, उनके बाद उनके मंडल के रचनाकार भी इसी नज़रिये को लेकर आगे बढ़े।

गोरक्षा के आन्दोलन के पीछे जो तर्क दिये जा रहे थे उसका एक पक्ष गाय संबंधी परम्परागत महात्म्य और मुसलमानों द्वारा गोहत्या की जघन्यता थी, तो दूसरा पक्ष गाय की उपयोगिता का था जो हिन्दू और मुसलमान दोनों पर लागू होता था। ‘‘गाएँ बचेंगी तो मुसलमानों को कड़वा दूध न देंगी।’’22 यह उपयोगिता उभयपक्षिय है। यहाँ तक कि इसे कृषि संस्कृति से जोड़ते हुए प्रेमघन ने लिखा-‘‘इस देश की कृषि का कार्य गोवंश ही के सहारे चलता है और हिन्दू मुसलमान उसी के आधार पर अपना जीवन निर्वाह करते हैं। अतः उसके वध से जो हानि होती है, उसे सब समझ सकते हैं।’’23 यह भी उभयपक्षिय उपयोगी है। देखनेवाली बात यह है कि यह तथाकथित आंदोलन मुसलमानों से किस तरह का संघर्ष करता है। इस संदर्भ में भगवती प्रसाद शर्मा ने बिल्कुल ठीक लिखा है कि वे मुसलमानों से गोरक्षा के नाम पर किसी प्रकार का झगड़ा करना नहीं चाहते थे। वे हिन्दूवादी ढाँचे से हटकर, मुसलमानों के दृष्टिकोण को भी ध्यान में रखकर चलते थे।24 प्रतापनारायण मिश्र ने लिखा-‘‘मुसलमान भाइयों के साथ भी मतवाद न बढ़ाकर उन्हें यह समझना चाहिए कि हमारा आपका सैकड़ों वर्षों से मेल-मिलाप है और अब इस देश को छोड़के कहीं आप निर्वाह नहीं कर सकते अतः यहाँ की जलवायु के अनुकूल और वृहत् समुदायवालों की रीति-नीति का सहगमन ही शारीरिक और सामाजिक सुख अथच सुविधा का मूल समझिये।’’25 गोरक्षा का काम हिन्दुओं का था लेकिन मुसलमानों का सहयोग भी उपेक्षित था, ऐसे में यह मुसलमानों के विरूद्ध गोलबंदी की राजनीति कैसे है ? बल्कि ऐसी राजनीति करनेवालों की आलोचना करते हुए कहा गया है कि ऐसे लोग ‘‘प्रत्येक धर्म पर आक्षेप कर कर हिन्दुओं की श्रद्धा हटा देते हैं और अन्य धर्मियों को अधिक गोवध के लिए भड़का के सर्वसाधारण की शाँति में विघ्न डालते हैं।’’26 इन्हें स्पष्ट अंदाजा था कि दो तरह के लोग इस संदर्भ में सक्रिय होंगे-‘‘बाजे-2 हठी मुसलमान कुरान और हदीस के वचन सुने अनसुने करके अपनी ज़िद का निबाह करेंगे, इस मामले में हमारा साथ न देंगे। ... बरंच बाजे-2 भाग्यशाली शहरों में धर्मिष्ट मुसलमान भी शरीक हैं।’’27

इस अभियान में हिन्दुओं का तो धार्मिक आधार था, लेकिन गोवध के समर्थन में मुसलमानों के पास तो कोई धार्मिक आधार भी नहीं था। मिश्रजी ने लिखा-‘‘मुहम्मदीय धर्म में यह बात कहीं नहीं लिखी कि गाय के प्राण लिए बिना धर्म रही नहीं सकता।’’28 मिश्रजी की ही ‘गो-गुहार’ कविता में गाय कहती है-‘‘अहिमद इसाई न दई, आज्ञा कतहूँ मुँहि मास की । तौ हू हा हा ! फटै न छाती, इन निर्दय हत्यारन की ।’’29

इनके गोरक्षा आंदोलन के पीछे पशु-हिंसा के विरूद्ध इन लेखकों का मानवतावादी दृष्टिकोण भी है। जो केवल गाय के लिए ही नहीं पशु मात्र के लिए है। भारतेन्दु ने ‘बकरी विलाप’ लिखा। प्रतापनारायण मिश्र ने ‘गो-गुहार’ के अतिरिक्त ‘ब्राह्मण’ के 15 अगस्त 1886 के अंक में ‘पशु प्रार्थना’ नाम से लम्बी कविता लिखी। 15 मई 1883 के ‘ब्राह्मण’ में ‘दयापात्र जीव’ शीर्षक लेख लिखा, जिसमें कुत्तों पर होनेवाली निर्दयता पर खेद प्रकट किया है। इस संदर्भ में भारतेन्दुयुगीन लेखक मध्यकालीन संत कवियों की परम्परा से जुड़ते हैं। अकारण नहीं है कि इन संत कवियों को न केवल इन लेखकों ने बार-बार उद्धृत किया है, बल्कि सीधे-सीधे उन पर लिखा भी है।

गोरक्षा के पीछे यदि मध्यकालीन भाववादी धार्मिक तर्क थे या मध्यकालीनता रूपी संकीर्ण हिन्दूवादी तर्क थे, तो साथ में परदुःखकातरता के साथ उपयोगितावादी भौतिक, अतः आधुनिक तर्क भी थे। यहाँ यह भी ध्यान रखना चाहिए कि उस दौर में गोरक्षा आंदोलनों का एक प्रभाव यह भी पड़ा कि वायसराय को भेजे एक पत्र में महारानी विक्टोरिया ने लिखा - ‘‘वैसे तो मुसलमानों द्वारा की जा रही गोहत्या आंदोलन का कारण है, पर वास्तव में, यह हमारे खि़लाफ है, जो कि अपने सैनिकों इत्यादि के लिए मुसलमानों से कहीं अधिक गो-वध करते हैं।’’30 ऐसे में तलवार वाला सपाट दृष्टिकोण उस युग की समझ को धुंधला कर सकता है।
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1. विस्तार के लिए देखें-‘रस्साकशी’
2. प्रतापनारायण मिश्र, रचनावली/खण्ड-2, पृ॰ 189.
3. वही, खण्ड-3,पृ॰ 119.
4. बालकृष्ण भट्ट, प्रतिनिधि संकलन, पृ॰83
5. वही, पृ॰ 111.
6. वही, पृ॰ 7-8.
7. वही, पृ॰ 71.
8. वही, पृ॰ 155.
9. भारतेेन्दु समग्र, पृ॰ 479.
10. बलकृष्ण भट्ट, प्रतिनिधि संकलन, पृ॰ 176.
11. प्रेमघन सर्वस्व, भाग-2, पृ॰ 76.
12. प्रतापनारायण मिश्र, रचनावली/खण्ड-2, पृ॰ 190.
13. बालकृष्ण भट्ट, प्रतिनिधि संकलन, पृ॰ 54.
14. प्रतापनारायण मिश्र ग्रन्थावली, पृ॰ 272.
15. बालकृष्ण भट्ट के निबंधों का संग्रह, पृ॰ 28.
16. प्रतापनारायण मिश्र, रचनावली/खण्ड-2, पृ॰66-67.
17. वही, पृ॰ 88.
18. वही, पृ॰ 252.
19. वही, पृ॰ 89-90.
20. प्रतापनारायण मिश्र, रचनावली/खण्ड-3, पृ॰ 181.
21. रस्साकशी, पृ॰ 308.
22. प्रतापनारायण मिश्र ग्रन्थावली, पृ॰ 178.
23. प्रेमधन सर्वस्व, भाग-2, पृ॰ 246.
24. नवजागरण और प्रतापनारायण मिश्र, पृ॰ 261.
25. प्रतापनारायण मिश्र, रचनावली/खण्ड-2, पृ॰228.
26. वही.
27. वही, पृ॰ 232.
28. प्रतापनारायण मिश्र, रचनावली/खण्ड-3, पृ॰117.
29. वही, रचनावली/खण्ड-1, पृ॰57.
30. गौ-वध और अंग्रेज, धर्मपाल, पृ॰ 15 से उद्धृत.

*** काव्य-निर्णय में सहृदय की भूमिका


रस-विमर्श और रस-प्रक्रिया में साधारणीकरण, संभवतः केन्द्रीय महत्त्व की अवधारणा है, जबकि साधारणीकरण की चर्चा बहुधा नाट्य पर आधारित ही मिलती है. हालाँकि रस को (श्रव्य) काव्य से भी सम्बन्धित मान लिया गया है. फिर भी, इस चर्चा में कतिपय प्रसंग ऐसे आ जाते हैं जिनकी अनिवार्यता प्रश्नास्पद है और कतिपय पक्ष अनालोचित से रह जाते हैं. यद्यपि भारतीय काव्यशास्त्र की एक धारा ने, जिसे आज मुख्य धारा कहा जाता है/ कहा जा सकता है, काव्य की आत्मा को रस बताया है. नाट्य या काव्य के प्रेक्षण अथवा श्रवण से रस साधारणीकृत होकर सहृदय सामाजिक को अनुभूत होता है. रस क्या है? रसास्वाद की प्रक्रिया क्या है? इत्यादि प्रश्नों पर पर्याप्त चर्चा हुई है. यहाँ दो अन्य पक्ष महत्त्वपूर्ण रूप से आलोच्य है - आत्मा, जो कि काव्य के पक्ष में रस है, और सहृदय सामाजिक। भारतीय चिंतन दुरूह की परम्परा में इनकी निष्पक्ष पहचान करना आसान प्रतीत नहीं होता. इसकी अपनी जटिलता है.

भारतीय चिंतन परम्परा में चार्वाकेतर सभी दार्शनिक परम्पराओं ने आत्मतत्व को पर्याप्त महत्त्वपूर्ण माना है. फिर भी, महत्त्व के स्तर एवं गंभीरता में पर्याप्त भेद है. इस लिहाज से भारतीय दार्शनिक चिन्तन धारा को दो मुख्य खेमों में बाँटकर देखा जा सकता है. अर्थात् आत्मतत्व के संज्ञान के प्रति भारतीय धारा ने स्पष्टतः दो दृष्टि अपनाई है, जिन्हें वस्तुवादी एवं ज्ञानवादी कहा जाता है / जा सकता है. वस्तुवादी दृष्टि का प्रतिनिधि सिद्धांत न्याय दर्शन है, जिसे प्रत्येक अवधारणा का लक्षण परिस्पष्ट रूप से, अन्वय और व्यतिरेक विधि से, बता देना आवश्यक लगता है. ज्ञानवादी दृष्टि का प्रतिनिधि सिद्धांत (अद्वैत) वेदान्त दर्शन है, जिसे किसी स्थिति को अवधारणा कहने समझने के बजाए जिज्ञासा का, विमर्श का विषय समझना-कहना ही अभिप्रेत है. इस असम्बद्ध प्रतीत होने वाले दार्शनिक क्षेत्र में प्रविष्ट होने का अभिप्राय यह जानना है कि किस प्रकार इन चिंतन दृष्टियों ने अन्य क्षेत्रों पर अपना सैद्धांतिक वर्चस्व कायम किया है. वस्तुवादी दृष्टि को सामाजिकों (साधारण मनुष्यों) पर किंचित् भी भरोसा नहीं है. जो कुछ भी कहना, समझना होगा - सम्प्रदायविद् ही समझाऐंगे. संक्षेप में, यह नज़रिया जनता को जड़ मानता है. जबकि ज्ञानवादी नज़रिया प्रत्येक व्यक्ति में, सैद्धांतिक रूप से, चिंतन की सम्भावना और जिज्ञासा करने योग्य क्षमता के प्रति विश्वास व्यक्त करता है. चिंतन में उपस्थित द्वैध का यह प्रारंभिक कारण है.

*** 'दिनकर' की काव्यगत विशेषता

रामधारी सिंह 'दिनकर' का जन्म 23 सितंबर 1908 में बिहार के बेगूसराय जिला के सिमरिया घाट गांव में हुआ था। आर्थिक तंगी के कारण इनका बचपन संघर्ष में ही बीता,‌ फिर बाद में राष्ट्रीय भाव धारा से प्रमुखता से जुड़ने के कारण उनका जीवन अस्थिर ही रहा। इन सब के बावजूद भी कवि अपनी रचनाओं की जीवंतता को सदैव बनाए रहे। इनके काव्यो में एकरूपता के बजाय अनेक रंग रूप और विशेषता देखने को मिलता है जो इस प्रकार है-

1). राष्ट्रीय भाव धारा के प्रमुख कवि

रामधारी सिंह की कविताओं में राष्ट्रीयता कूट-कूट कर भरी भरी है। उनकी कविताओं को पढ़कर सहज मानव के हृदय में भी राष्ट्र के लिए कुछ कर लुटाने का भाव उमड़ पड़ता है और पराधीन भारत के कवि होने के नाते यह स्वाभाविक भी था। उस दौर के लगभग सभी कवियों या कवयित्रियों की रचनाओं में राष्ट्रीयता प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से विद्यमान है किंतु इन सभी रचनाकारों से दिनकर इस मामले में थोड़े भिन्न है। एक तरफ जहां राष्ट्रवाद बड़ी संयम के साथ मैथिलीशरण गुप्त, रामनरेश त्रिपाठी आदि की रचनाओं में आता था तो वहीं दूसरी ओर थोड़े और क्रांति के साथ माखनलाल चतुर्वेदी, बालकृष्ण शर्मा, सुभद्रा कुमारी चौहान आदि की कविताओं में विकल्प के साथ या गुंजाइश के साथ परिलक्षित होता था।किंतु इन सब के इतर दिनकर की कविताएँ हर सीमा रेखा को लांघ कर पाठक में हृदय में चिंगारी पैदा कर देता था। वह अक्सर विकल्प विहीन दिखती हैं। उदाहरण के लिए-

पूछेगा बूढ़ा विधाता तो मैं कहूँगा, 

हाँ तुम्हारी सृष्टि को हमने मिटाया।

यहाँ कवि सृष्टि को ही मिटा देने की बात करता है क्योंकि उसे यह सृष्टि शोषण से युक्त नजर आती है।

*** मीरा का काव्य और ‘स्त्रीत्व’ का निर्माण


मीराबाई जैसी मध्ययुगीन कवयित्री को स्त्री सन्दर्भों में पढ़ना चुनौती भरा काम है। मीरा के सन्दर्भ में अक्सर यह देखा गया है कि उनके व्यक्तिगत जीवन और भक्ति सन्दर्भों को लेकर प्राय: हिन्दी आलोचना का रवैया ‘नारी गौरवान्वयन’ कर पुरुष सन्दर्भों के लिये स्थान सुरक्षित रख करके स्त्री को देवी जैसे शब्दों के मायालोक में कैद कर देता है। मीरा को स्त्री सन्दर्भों में पढ़ने से प्रथमतया स्त्री के परम्परागत तर्क के सारे अभियान उथले और झूठे साबित हो जाते हैं और हिन्दी आलोचना की वह प्रवृत्ति भी छल पूर्ण दिखाई देने लगती है जो तीर को गलत निशाने पर बहुत सोच समझ कर लगाती है। यह आलोचना रचनाकार के उन प्रसंगों को राजी से नहीं तो ज़बरदस्ती उभार देती है जो गौण महत्व रखते हैं। मीरा के बारे में भी इन आलोचकों का रवैया सहानुभूतिपूर्ण होते हुए भी तमाम पूर्वग्रहों से भरा होकर ऐसी बातों में मीरा की महानता और देवीत्व दिखाने की कोशिश करता है जिनसे कि अधिक से अधिक एक व्यक्तिगत कहानी भर ही उभर पाती है। हालांकि यह भी कम महत्वपूर्ण नहीं होता कि एक पूरी और साफ कहानी उभर आये, पर ठीक से यह भी नहीं सध पाता और मीरा विधवा या सधवा थी, राणा उसका पति था या देवर था में ही सारी बहस उलझ कर रह जाती है। मीरा के सन्दर्भ में स्त्री प्रश्नों को उठाना इसलिये भी चुनौतीपूर्ण है कि ऐसा करने से ‘भक्त’ के ‘स्त्री’ में बदलने का पूरा उपक्रम खड़ा हो जायेगा, जिससे धार्मिक ढाँचे के खतरे में पड़ने की सम्भावना बढ़ जाती है। धार्मिक छाया का यह दवाब शायद ही कभी हिन्दी आलोचना का पीछा छोड़ पाया है।

*** रामविलास शर्मा की आलोचना और स्त्री संदर्भ


ज बाज़ारवाद पर जो लोग अच्छी चर्चा कर रहे हैं वे स्त्रीवादी विमर्श के लोग हैं. बाजार का सबसे बड़ा असर व्यक्तिगत  और पारिवारिक जीवन पर पड़ा है. इसने व्यक्तिगत भावनाओंधार्मिक आस्थाओं और परम्परागत समाज के स्त्रियोचित-पुरुषोचित व्यवहार को लाभ के लिए भुनाया है. औरत की देह के सवाल को नग्नतावासनाउत्पाद से जोड़ा है और यह सब बाजार की लाभ नीतियों के तहत बड़ी कुशलता से किया गया है. मिडिल क्लास जो दैनंदिन दिनचर्या और रूचियों तक सीमित है वस्तुतः उपभोक्तावादी है. उसके लिए सभी प्रश्न इच्छा-अनिच्छा के प्रश्न हैं. सामाजिकआर्थिकराजनीतिक रूप में वे गौण हैं. वामपंथ ने बाजार के खतरों और नीतियों को पहले-पहले भांपा लेकिन मजदूर से किसान के संघर्ष तक ही अपनी पहुँच बना सके. नामवर सिंह ने एक साक्षात्कार में कहा था -‘‘हमलोगों ने स्त्रियों पर होनेवाले अत्याचारों पर उतना ध्यान नहीं दिया जितना देना चाहिए था.’’ (स्वाधीनतापत्रिकाशारदीय विशेषांक, 2000, पृ0 - 28) यह एक ऐसी कमजोरी थीजिसे यूरोपियन देशों और खासतौर से अमेरिका के वामपंथी दलों ने सबसे पहले पकड़ा.

*** 'जूही की कली' : युवा पाठ

"निराला" पुस्तक की भूमिका (द्वितीय संस्करण) में डॉ० रामविलास शर्मा लिखते है कि तब से लेकर अब तक देश और साहित्य में अनेक परिवर्तन हो चुके हैं। भारत अब उपनिवेश न रहकर अर्द्ध-उपनिवेश हो गया है। परंतु यह जर्जर सामंती ढांचा अब भी है। जिससे निराला साहित्य का घनिष्ट संबंध अब भी है

रामविलास जी इसके पहले संस्करण की भूमिका में लिखते हैं कि उनका व्यक्तित्व एक अच्छे खासे हीरो का सा है। उनमे काफी वैचित्र्य एवं नाटकीयता है फिर भी उनके जीवन के एक संक्षिप्त अध्ययन से हमारे सामाजिक संगठन की असंगतियाँ, उसकी रूढ़िप्रियता और उसका खोखलापन बहुत कुछ समझ में आ जायेगा । छायावाद के प्रवर्तकों में उनका अन्यतम स्थान है । जो पुराने साहित्य के प्रवर्तक या समर्थक थे और एक पिटी हुई लीक को छोड़कर साहित्य में नए प्रयोग करना प्राचीनता का अपमान समझते थे । इसी विरोध को निराला ने अपना केंद्र बनाया साथ ही साथ छायावाद में भी जो असंगतियाँ थीं जिससे उनका मार्ग अवरुद्ध हो गया था  । वैसी रचनाओं से मुँह मोड़कर निराला समाज के यथार्थ जीवन की ओर झुके और साहित्य में एक नई प्रगतिशील धारा के अगुआ बन। वह दो युगों के प्रतिनिधि साहित्यकार हैं और जीवन के विषम परिस्थितियों में भी उन्होंने साहित्य की साधना की है। 

रामविलास जी की यह भूमिकाएँ अक्षरसः  उनके साहित्य के महत्व को सपष्ट रूप से व्यक्त करता है।

'जूही की कली' निराला की प्रथम रचना मानी जाती है।

         "विजन-वन वल्लरी पर
          सोती थी सुहागभरी - 
          स्नेह-स्वप्न-मग्न अमल-कोमल-तनु-तरुणी
          जूही की कली"

निराला जहाँ एक ओर स्वाधीनता और सामाजिक परिवर्तन के पक्ष में क्रांतिकारी चेतना को प्रेरित कर रहे थे, वहीँ दूसरी ओर जातीय भाषा और राष्ट्रवाद, साथ-साथ वह हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में प्रतिष्ठित करने हेतु प्रयासरत थे। 'जूही की कली' स्थूल दृष्टि से तो नहीं किन्तु सूक्ष्म दृष्टि से राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन की विषयवस्तु के साथ तात्कालिक समाजिक, राजनैतिक और सांस्कृतिक आन्दोलन को अपने अंदर समाहित किये हुए हैं। जैसा कि इस कविता की बाहरी बनावट या अभिधात्मक रूप कविता को केवल प्रकृति चित्रण जैसा प्रतीत करता है, किन्तु किसी भी कविता का अपने समकालीन यथार्थ एवं विषय-वस्तु का संबंध स्थापन केवल एक स्तर पर नहीं वरन कई सारे स्तरों पर होता है और यही कारण है कि कविता एक स्तर पर नहीं तो अगले स्तर पर राष्ट्रीय जागरण या आन्दोलन की मूल चुनौतियों को गहराई से समझते हुए अभिव्यक्त होता है।

*** ‘लोकवादी तुलसीदास’

रचनाकार की दृष्टि यदि उनकी रचनाओं में समाहित हो तो रचनाकार का व्यक्तित्व व उनकी विशेषताओं को उजागर करने के लिए रचना से परे कम ही भटकना पड़ता है.  तुलसीदास को 'लोकवादी' का विशेषण देने के लिए डॉ विश्वनाथ त्रिपाठी अपनी पुस्तक 'लोकवादी तुलसीदास'  में उनकी रचनाओं को ही आधार बनाते हैं और यथेष्ट विवरण एवं उद्धरण से तुलसी की लोकवादिता को प्रस्तुत करते हैं. इसी क्रम में उन बिन्दुओं को भी बेहिचक रेखांकित करते हैं जहाँ तुलसी की लोकवादिता खंडित होती है. लेकिन इस खंडन के कारण पुस्तक का नाम त्रिपाठी जी नहीं बदलते. पुस्तक का नाम ध्येय-सापेक्ष होता है और इस पुस्तक के नाम से उनका ध्येय स्पष्ट हो जाता है.

तुलसीदास को विषय बनाना इतिहास और परंपरा में सप्रयोजन प्रवेश करना है. प्रयोजन वर्तमान से सम्बद्ध ही नहीं अतीत से विशेष लगाव का भी हो सकता है. इतिहास और परम्परा के प्रति विशेष लगाव का मतलब आँख मूंदकर गले लगाना नहीं बल्कि अपनी रचना-दृष्टि और उद्देश्य के अनुरूप परंपरा का साक्षात्कार करना है. 'लोकवादी तुलसीदास' इसी तरह का साक्षात्कार है. डॉ. त्रिपाठी ने इसे चार अध्यायों में विभक्त किया है. प्रथम अध्याय 'तुलसी के राम' में तुलसी के अधीष्ट 'राम के रामत्व' को अन्य रचनाओं के राम से पृथक करते हुए उसकी विशिष्टता को सामने लाते हैं. उन्होंने लिखा कि वाल्मीकि, भवभूति, तुलसी और निराला के 'रामों' में जो अंतर है उसका कारण इन महाकवियों के युगबोध का अंतर है. एक ही धरातल पर समानता दिखती है और वह है केवल राम का संघर्ष.  (पृ० २५)  तुलसीदास ने राम के जीवन की अविरल संघर्ष-परंपरा को स्वीकार कर उनके चरित्र को अपनी रचनाओं में पुनः स्थापित करने के स्थान पर अपने युग के नायक के रूप में चित्रित किया. यह नायक तुलसी के दर्शन और चिंतन में तो ब्रह्म है लेकिन उनकी कविता में लोकनायक है. राम के रामत्व के साथ नायक का नायकत्व भी पृथक हो जाता है. राम-नाम की महिमा गाते समय तुलसी निस्सम्बल, असहाय, अभागे, गुणहीन, गरीब, दीन, अकुलीन, पंगु, अंधे, भूखे आदि जन को याद करते हैं. इन्हीं दीन जनों के बंधु हैं तुलसी के लोकनायक. तुलसी भक्त-कवि हैं लेकिन उनके भक्ति और उनके राम में इस लोक की पूरी समाई है. डॉ. त्रिपाठी ने इन्हीं संदर्भो में राम को 'मानव  इतिहास के संघर्षशील व्यक्ति' का और सहायक बन्दर भालू को 'सर्वहारा का प्रतीक'  बना सकने की बात रखते हुए लिखा - "जो लोग राम कथा के इन प्रतीकों को नहीं समझते, वे सचमुच अधिकारी हैं तुलसी को सामंती व्यवस्था का पोषक और संकीर्णतावादी कहने को." (पृ०-२५)

*** बालश्रम


ज बच्चे हमारे सबसे मूल्यवान प्राकृतिक संसाधन हैं। वे समाज और संसार के नियंता हैं। नियंता इस दृष्टि से कि उनके द्वारा उस समाज को आगे बढ़ाया जाना है जिसमें उनका पालन हो रहा है, जिसमे उनका बचपन गुज़र रहा है। मानव जीवन के सबसे स्वतंत्र और स्वच्छंद समय को देखा जाए तो निःसंदेह उसका नाम बचपन ही है किन्तु क्या हम यह कह सकते हैं कि हर बचपन में स्वच्छंदता है? क्या बच्चों को माँ की लोरियाँ नसीब हैं? क्या बचपन को खिलौने मिल रहें है? आज हमारे सामने ये गंभीर सवाल हैं। हर वर्ष 12 जून को हम विश्व बालश्रम निषेध दिवस के रूप में मनाते हैं। यह दिवस उन अबोध नौनिहालों के लिए होता है जो होते तो हमारे लाडलों की तरह ही हैं लेकिन गरीबी की गिरफ़्त में इस कदर जकड़ उठते हैं कि उन्हें बचपन की अमीरी का एहसास ही नही होता है। 2011 की जनगणना के मुताबिक भारत में पच्चीस करोड़ छियानबे लाख ऐसे बच्चे हैं जिनकी उम्र 5 से 11 साल के बीच है। इनमें से करीब 1 करोड़ बच्चे श्रमिक हैं। यदि राज्यों को देखा जाए तो तकरीबन उत्तरप्रदेश में 21 लाख, बिहार में 10 लाख, राजस्थान में 8 लाख बाल मज़दूर हैं। आज देश के लगभग सभी ढाबों, होटलों, पंचर की दुकानों या इस तरह के अन्य कामों में बच्चों को देखा जा सकता है। ऐसा नही है कि इन कामों में सिर्फ लड़के ही श्रमिक हैं बल्कि लड़कियां भी  इन कार्यों में लगीं हैं। अधिकतर धनाढ्य घरों में आपको लड़के और लड़कियां आपको काम करते दिख जायेंगे जहाँ उनका उत्पीड़न भी होता है।

*** वैष्णव भक्ति आन्दोलन का अखिल भारतीय स्वरुप


रतीय इतिहास में मध्यकाल राजनीतिक, सांस्कृतिक, आर्थिक तथा सामाजिक सभी दृष्टि से महत्वपूर्ण था । एक और जहाँ इस्लामी संस्कृति भारतीय सामाजिक संरचना को प्रभावित कर रही थी तो वहीं इसकी पृष्ठभूमि में भक्ति आंदोलन का सूत्रपात भी होता है । साहित्येतिहास में इसे स्वर्णिम काल की संज्ञा दी गई है । भक्ति आंदोलन ने समय समय पर लगभग पूरे देश को प्रभावित किया और उसका धार्मिक सिद्धांतों, धार्मिक अनुष्ठानों, नैतिक मूल्यों और लोकप्रिय विश्वासों पर ही नहीं, बल्कि कलाओं और संस्कृति पर भी निर्णायक प्रभाव पड़ा।[1]

            उत्तरी भारत में चोदहवीं से सत्रहवीं शताब्दी में फैली भक्ति आंदोलन की उद्दाम लहर समाज के वर्ण, जाति, कुल और धर्म की परिसीमाओं का अतिक्रमण कर सम्पूर्ण जनमानस की चेतना में व्याप्त हो गई थी । जिसने एक जन आंदोलन का रूप ग्रहण कर लिया । भक्ति आंदोलन में साधक या भक्त के द्वारा मोक्ष प्राप्ति अथवा आत्म साक्षात्कार के लिए परमात्मा के सगुण या निर्गुण रूप की भक्ति ही नहीं की गई वरन भक्ति के माध्यम से तदयुगीन सामाजिक जीवन में स्थित एक वर्ण या जाति के प्रति कीए गए अत्याचार, अन्याय और शोषण के खिलाफ असहमति और विरोध का प्रदर्शन था । साथ ही उसने जन सामान्य की आशाओं, आकांक्षाओं और आदर्शों की भी अभिव्यक्ति हुई थी ।[2]